ऐसा देस है मेरा- हँसते हँसते जीना सीखो (पुस्तक समीक्षा)

Book Review of Aisa desh hai mera
अंकित सिंह । Jul 24 2018 4:27PM

ऐसा देस है मेरा, यह लाईन आपके लिए नयी नहीं होगी। यश चोपड़ा की बॉलीवुड फिल्म ‘वीर जारा’ के इस गीत में अपने देश की मिट्टी की खुशबू समाहित है। इस किताब में भी व्यंग्य के जरिए अपने देश की संस्कृति और सभ्यता को उभारने की कोशिश की गई होगी।

अपनी भाग-दौड़ भरी जिंदगी का कुछ हिस्सा हम सब किताबों को देना चाहते हैं। किताबों को पढ़ना और उनसे कुछ हासिल करना हम सभी की आदत में होता है। पर हमें सबसे ज्यादा परेशानी किताबों के चयन के समय होती है कि कौन-सी किताब पढ़ें और कौन-सी नहीं। आपकी इसी उधेड़बुन को दूर करते हुए प्रभासाक्षी की ओर से आपको सलाह दी जा रही है कि जाने-माने लेखक प्रभात कुमार के नये व्यंग्य संग्रह ‘ऐसा देस है मेरा’ को जरूर पढ़ें। पुस्तक लेखक की 58 रचनाओं का संकलन हैं और यह व्यंग्य-लेख सामयिक तो हैं ही इसमें उत्पन्न स्थितियां पाठकों को गुदगुदाती भी हैं। पुस्तक में लेखक ने आम जिदंगी में होने वाली उन घटनाओं पर तंज कसा है जिसे हम गंभिरता से लेने के बयाज हंसी में उड़ा देना ज्यादा बेहतर समझते हैं लेकिन वह बाद में समाज से लिए घातक होता है।  

ऐसा देस है मेरा, यह लाईन आपके लिए नयी नहीं होगी। यश चोपड़ा की बॉलीवुड फिल्म ‘वीर जारा’ के इस गीत में अपने देश की मिट्टी की खुशबू समाहित है। ऐसे में समझा जा सकता है कि इस किताब में भी व्यंग्य के जरिए अपने देश की संस्कृति और सभ्यता को उभारने की कोशिश की गई होगी। लेखक अपनी जीवन संगिनी के पश्चिमी सभ्यता के तरफ झुकाव पर भी तंज कस रहे हैं। लेखक ने महिलाओं की किट्टी-पार्टी में शहीदों को श्रद्धांजलि देने के तौर-तरीकों पर सवाल उठाते हुए आधुनिक सोच पर कटाक्ष किया है तो देश में सब चंगा है, नाम सिंह का काम, और अफसर का इंटरव्यू जैसे प्रसंग आपके सोचने की शैली पर सवाल उठाते हैं।  

लेखक अपनी पत्नी के ही जरिए समाज में रह रहे लोगों की सोच पर भी तंज कसते हैं। इसके साथ ही लेखक अपनी हर रचनाओं में व्यंग्य के जरिए ही देश प्रेम और देश भक्ति को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहे हैं। प्रभात के लेखन को गागर में सागर की उपमा देते हुए हिमाचल की कला-संस्कृति-भाषा के मर्मज्ञ सुदर्शन वशिष्ठ इस किताब की खासियत को बता रहे हैं। सुदर्शन वशिष्ठ ने लिखा है ‘प्रभात ने जीवन के लगभग हर विषय पर कलम चलाई है। सामाजिक अव्यवस्था हो या राजनीतिक विद्रूपता, इन्होंने बारीकी से समस्याओं को व्यंग्य के माध्यम से उठाया है।'

अपने पिता और जीवन की विसंगतियों के नाम इस किताब को समर्पित करते हुए लेखक तीन सौ निन्नानवे शब्द में अपनी दिल की बात कर रहे हैं। उन्होंने लिखा है कि व्यंग्य को हास्य माना जाने लगा है पर व्यंग्य हास्य नहीं हो सकता। उन्होंने लिखा, "अब व्यंग्य सहना नहीं चाहता। देखने, सुनने व पढ़ने वाले आमतौर पर सीधे-सीधे जोर से हंसा देने वाली बातें या रचनाएं पसंद करते हैं।" 

हमेशा व्यंग्य को लेकर कई तरह की बातें कही जाती रही हैं, खासकर भाषा को लेकर। ऐसा देस है मेरा ऐसी किताब है जिसे सामान्य और सरल भाषा में पेश किया गया है। लेखक ने अपनी इस पुस्तक में सामान्य जीवन में घटित होने वाले उन तमाम पहलुओं को छूने की कोशिश की है जिस पर हम चर्चा तो करते हैं पर उसकी सार्थकता को नजरअंदाज कर देते हैं। दफ्तर के प्रसंग, सामाजिक अव्यवस्था हो या राजनीतिक विद्रूपता, बिजनेस की बात हो या फिर तीज-त्योहारों की, लेखक ने हर विभाग को अपनी व्यंग्यात्मक निपुणता से छुआ है।

'अब रियलिटी शो की बारी!' के जरिए प्रभात ने टेलिविजन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों को कठघरे में खड़ा किया हैं तो 'अंतरिक्ष में समोसे' के जरिए हमारी वैज्ञानिक सोच को भी उजागर कर रहे हैं। लेखक ने पति-पत्नी के बीच होने वाली नोक-झोंक को भी नए और रोचक तरीके से पेश किया है। धर्म-अधर्म, भगवान, पर्यटन, शादी, साहित्यिक गतिविधियों, डिजिटल लाइफ और मनोरंजन को भी लेखक ने अपने व्यंग्य के जाल में उलझा दिया है। लेखक मां-बाप की उस मानसकिता पर भी तंज कस रहा है जिसमें माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य बनाने के लिए उन पर जबरदस्ती अपनी इच्छा थोपते हैं। साथ ही साथ लेखक देश में हावी, खासकर शिक्षा व्यवस्था में जिस तरीके से जुगाड़ का इस्तेमाल किया जाता है, इस पर भी तीखा प्रहार कर रहे हैं। 

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लेखक ने हरिशंकर परसाई, यज्ञ शर्मा जैसे व्यंग्यकार की विरासत को आधुनिक तरीके से पेश करने की कोशिश की है। साथ ही साथ लेखक अपने मन की बात कहने में भी नहीं हिचक रहे हैं। ऐसे में व्यंग्य के पाठकों के लिए यह एक अच्छा विकल्प हो सकता है जो हंसाने, गुदगुदाने के अलावा आपको सबक भी सिखाता है। 

पुस्तक का नाम- ऐसा देस है मेरा

लेखक- प्रभात कुमार

प्रकाशक- नीरज बुक सेंटर

मूल्य- 350.00 रुपए

- अंकित सिंह

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