सिनेमाघर (पंजाबी कहानी)
पास आने पर जीवन ने बहुत विनम्रता से कहा था, उसकी सीट बहुत गर्म हो गई है। उस पर बैठे रहना तो लगभग संभव हो गया है। उसने अनुरोध किया था कि वह कृपा करके उसे बालकनी में सीट दे दें।
जीवन की मां उसे सिनेमाघर ले आई थी। सिनेमाघर आने से पूर्व वह कहां था, इस बारे में उसे बिलकुल याद नहीं था। शायद उसकी आंख ही सिनेमाघर में आकर खुली थी, या उसे होश ही वहां पहुंच कर आया था।
उस समय जीवन बहुत छोटा था। उसकी मां उसे सिनेमा हाल में छोड़ कर स्वयं एक काले पर्दे के पीछे छुप गयी थी। सिनेमा हाल में अंधेरा जैसा था। काले पर्दे के पीछे गुम होती हुई उसकी मां का आकार उसे दिखाई नहीं दिया था। केवल पर्दा हिलता और एक बार हिलकर स्थिर होता अनुभव हुआ था पत्थर की तरह स्थिर। अपनी मां का इस तरह काले पर्दे के पीछे छुप जाना देखकर उसकी चीख निकल गयी थी। उसका रोना सुनकर सिनेमा हाल का एक कर्मचारी तेज कदमों से उसके पास आया था। अंधेरे में राह देखने के लिए उसके पास एक फ्लैश लाइट थी। फ्लैश लाइट की रोशनी उसके पैरों के पास पड़ती थी। पास में देखने पर उस रोशनी का रंग लाल लगता था जीवन को लाल रंग की रोशनी बहुत भली लगती थी। उस समय उसे लाल बत्ती के सही अर्थों का पता नहीं था। आंखों के आंसू पोंछता हुआ जोर−जोर से सुबकता हुआ अभी जीवन बत्ती की ओर देख ही रहा था कि उस कर्मचारी ने उससे बहुत ही धीमी आवाज में कहा था, 'यह हादसा तुझ अकेले के साथ नहीं घटा है। तेरे पास बैठे लोग भी ऐसी ही घटनाओं के बीच से गुजर कर आये हैं। देख, ये सभी कैसे खामोश बैठे हैं।... और नये सिनेमा हाल में शोर करना सख्त मना है। अगर तुम्हें रोना है तो चुपचाप रोओ। इतना कहते हुए कर्मचारी उसके पास जिस ओर से आया था, उधर ही लौट गया था।
कितनी ही देर तक जीवन अवाक सा स्वयं को संभालने का यत्न करता रहा था। उसका जी किया था कि वह जोर से चिल्ला कर सिनेमा के मालिकों से कहे कि रोना शोर करना नहीं है। फिर अचानक ही उसे कर्मचारी के वाक्य याद आये थे− यह घटना उस अकेले के साथ नहीं घटी है। यह याद आते ही उसका जी किया था कि वह सिनेमा हाल में बैठे सभी लोगों को देख ले, जान ले। वे कौन हैं? वे गूंगे क्यों हैं? क्या वे खामोश रोना रो रहे थे?' वे थे भी वहां कि नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर तलाशते हुए जब उसने सिनेमा हाल में चारों ओर देखा था तो उसे कुछ भी नजर नहीं आया था। सचमुच में कुछ भी नहीं। जीवन भली भांति जानता था कि हाल में अंधेरा जैसा था। पर इस अंधेरे में यदि उसे उनके आकार नहीं दिख रहे थे तो उनकी उपस्थिति का अहसास तो अवश्य हो जाना चाहिए था। क्या इतने बड़े हाल में वह सचमुच अकेला था? उसके विचारों में जैसे डर घुल गया था।
तन्हाई के अहसास के साथ−साथ उसके मन में कडुआहट जैसी भी भर गयी थी। उसने सोचा कि वह हादसा उस अकेले के साथ ही क्यों घटित हुआ था? ठीक इसी समय उसकी दाहिनी ओर एक कुर्सी के चीखने की आवाज आई थी जैसे कुर्सी पर कोई बैठा हो। उसने गर्दन घुमा कर उस ओर देखने का यत्न किया था, पर असल में कुछ भी नहीं दिखाई दिया। फिर स्वाभाविक ही उसकी निगाह काले पर्दे की ओर चली गयी थी। उसे लगा था जैसे एक बार काला पर्दा फिर हिला हो।
उसी समय उसे फ्लैश लाइट की रोशनी आती दिखी थी। वही कर्मचारी होगा, उसने सोचा था। वह रोशनी उसकी दाहिनी ओर की चली गयी थी। उसी ओर, जिधर से कुर्सी के चीखने की आवाज आई थी। थोड़ी देर बाद जब वह कर्मचारी जीवन के पास से लौट कर निकल रहा था तो उसने उसको रोक लिया था, 'इस सिनेमा हाल में स्क्रीन किस ओर है?' जीवन ने बहुत धीमे स्वर में पूछा था।
'स्क्रीन?... भले मानुस सब तरफ स्क्रीन ही तो है।'
'सब तरफ?' चारों दीवारें, छत और फर्श सब स्क्रीन ही तो हैं।' कर्मचारी की आवाज में अनन्त आश्चर्य था।
'और यह काला पर्दा!' जीवन के प्रश्न में भय था।
'काला पर्दा भी स्क्रीन का ही एक भाग है, एक बहुत जरूरी भाग।' कहते हुए वह जीवन के पास से जाने लगा था। अचानक उसका फ्लैश लाइट वाला हाथ हिल गया था। शायद उसकी बांह किसी कुर्सी से लग गयी थी। उसके हाथ हिलने के कारण रोशनी जो फर्श पर उसके पैरों के पास पड़ रही थी, एक क्षण के लिए जीवन की आंखों के सामने हाल में दूर तक बिखर गई थी। उस रोशनी में भी जीवन को किसी भी कुर्सी पर कोई भी आदमी नजर नहीं आया था। हां, उसे इतना अवश्य दिखा था कि सभी कुर्सियों के मुख भिन्न−भिन्न दिशाओं की ओर थे।
जीवन को यह कितना अजीब लगा था! इससे पहले कि वह कर्मचारी उसके पास से चला जाता, जीवन ने उससे एक प्रश्न और पूछ लिया था, 'तुम तो कहते थे कि हाल में और भी बहुत से लोग हैं, पर सभी कुर्सियां ही खाली पड़ी हैं?'
'यह केवल मेरा अनुमान है, तेरा अहसास या तेरी देख पाने की असमर्थता।' एक धीमी पर तीखी आवाज में कहता हुआ वह चलता बना था।
जीवन फिर चिंता में पड़ गया था। क्या सचमुच ही वह अपने चारों ओर पड़ी कुर्सियों पर बैठे आकारों को देखने में असमर्थ था? पर उन सब कुर्सियों के मुंह भिन्न−भिन्न दिशाओं की ओर क्यों थे? उनके मुंह तो एक दिशा में होने चाहिए थे। पर यह भी तो हो सकता था कि अंधेरे में कुर्सियां इस बात से खबरदार ही न हों।
चुपचाप ही उसने स्वयं से एक निर्णय किया था। वह निश्चय ही कुर्सियों को इस बात से सावधान करेगा और उनसे विनती करेगा कि वे सब अपना मुंह तो एक ओर कर लें। उसने अपनी सीट से खड़े हो कर हाथ जोड़ते हुए कुर्सियों से उनका ध्यान अपनी ओर करने की विनती की थी। अभी उसके मुंह से पहले ही शब्द निकले थे कि हाल में चुप रहने का संकेत करतीं, सीटियां बजने लग गयी थीं। फिर एक साथ कई आवाजें आई थीं− 'बकवास बंद करो। सिनेमा हाल में शोर बंद करो!'
ठिठक कर जीवन अपनी सीट पर गिर पड़ा था। उसे जैसे सीट ने छुप जाने का अवसर नहीं दिया था। फिर उसने सोचा था, दूसरे सब लोगों को कुर्सियों ने अपने भीतर छुप जाने का अवसर दे दिया हो।
सिनेमा हाल की सभी आवाजें उसके कानों में गूंजे जा रही थीं कि उसे एक लाल बत्ती तेजी से उसकी ओर बढ़ती आती दिखी थी। इस बार फिर वही कर्मचारी था। कर्मचारी ने उसे बहुत सख्त शब्दों में चेतावनी दी थी। 'सिनेमा हाल के मालिक इस प्रकार की बकवास बर्दाश्त नहीं करेंगे। यदि उसने इस किस्म की हिम्मत फिर की तो उसे काले पर्दे वाले रास्ते भेज दिया जायेगा।' सुनते ही जीवन की निगाहें कर्मचारी के हाथ की रोशनी की ओर चली गयी थीं। इस बार उसे वह रोशनी पहले से कहीं ज्यादा लाल हो गई लगी थी।
चेतावनी देकर कर्मचारी वापस चला गया था। जीवन कुछ समय अपनी कुर्सी पर एक ही जगह पर बैठा रहा था। फिर अचानक ही उसे अपनी कुर्सी की सीट गर्म होती हुई अनुभव हुई थी। कुछ ही समय बाद वही कर्मचारी फिर उसकी ओर आया था। शायद यह देखने कि वह टिक कर बैठ गया था कि नहीं। उसके पास आने पर जीवन ने बहुत विनम्रता से कहा था, उसकी सीट बहुत गर्म हो गई है। उस पर बैठे रहना तो लगभग संभव हो गया है। उसने अनुरोध किया था कि वह कृपा करके उसे बालकनी में सीट दे दें। उत्तर में कर्मचारी ने बहुत दृढ़ और रोआब भरी आवाज में कहा था कि इस सिनेमा हाल में सबकी सीट पहले ही निश्चित थी और फिर हाल की फर्श वाली सीट से ऊपर बालकनी में जा सकना तो एकदम संभव नहीं है। और उसने यह भी कहा था कि जीवन की सीट गर्म नहीं है। यह केवल उसका अनुमान था, उसका अहसास। या उसकी ठंड महसूस कर सकने की असमर्थता।
पता नहीं क्यों इतना सुनते ही जीवन ने आंखें बंद कर ली थीं। इस बार उसे कर्मचारी के वापस जाने का भी पता नहीं लगा था। कुछ समय बाद उसे सामने की ओर किसी और कुर्सी के चीखने की आवाज आई थी, जैसे कुर्सी पर कोई बैठा हो। फिर उसे जैसे काला पर्दा हिलता हुआ लगा था या शायद उसकी आंखों का भ्रम था। एक बार फिर लाल बत्ती उसके पास से निकल कर उसके सामने की कुर्सियों की ओर चल गई थी।
लौटते समय वह कर्मचारी जीवन के पास रुक गया था। जीवन केा खामोश अपने स्थान पर बैठे देख कर उसने कहा था कि उसका आचरण चेतावनी के बाद कितना सुधर गया था। इस पर सिनेमाघर के मालिक बहुत खुश हैं। इसी खुशी में मालिकों ने ईनाम के तौर पर उसके लिए भुनी हुई मूंगफली भेजी थीं। जब जीवन ने पहली ही मूंगफली तोड़कर मुंह में रखी थी तो उसमें से एक भी गिरी नहीं निकली थी। फिर उसने दूसरी मूंगफली तोड़ी थी, फिर तीसरी। किसी मूंगफली में भी गिरी नहीं थी। जब जीवन ने कर्मचारी से इस गिरी वाली मूंगफली के विषय में बताया तो उत्तर में उसने कहा था, 'यह केवल तुम्हारा भ्रम है, तुम्हारा अहसास है या फिर, तुम्हारी गिरी और छिलके में अंतर जानने की असमर्थता है।'
इस बार वह कर्मचारी जीवन के पास से जाने की जल्दी में नहीं लगता था। जीवन को लगा था जैसे उसकी सीट और गर्म होती जा रही है। वह सोच रहा था कि फिल्म शुरू हो जायेगी तो उसका मन उस ओर लग जायेगा। फिर शायद उसे सीट इतनी गर्म न लगे। इन्हीं विचारों में डूबते हुए उसने कर्मचारी से पूछा था, 'फिल्म कब शुरू होगी?'
'फिल्म कब शुरू होगी?... भले मानुस फिल्म तो जबसे तुमने इस हाल में पैर रखा था तभी से शुरू है।' कर्मचारी ने जैसे जीवन की नादानी पर आश्चर्य प्रकट किया था। 'सच्ची?' एक अनाम डर जैसे जीवन के मन को चीरता चला गया था। ठीक उसी समय उसकी बाई ओर किसी कुर्सी की जोर से चीखने की आवाज आई थी। इस बार तो जरूर ही कोई उस कुर्सी पर बैठा था, उसने सोचा था। पर जब उसमें गर्दन घुमा कर उस ओर देखा था तो कुछ भी दिखाई नहीं दिया था। फिर सहज ही उस काले पर्दे की ओर देखा था। इस बार निश्चित रूप से काला पर्दा हिला था। एक बार हिल कर पर्दा स्थिर हो गया था। पत्थर की तरह स्थिर।
दूसरे ही क्षण उसकी बांई और कोई मुंह फाड़ कर रोया था। अचानक रोने की आवाज सुनकर सिनेमाघर का वह कर्मचारी फ्लैश लाइट का मुंह फर्श की ओर किए, तेज कदमों से उस ओर चल दिया था।
अनुवादक− स्व. घनश्याम रंजन
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