छह दशकों से गीतों के जरिये जीवन में रंग भर रहे हैं गुलज़ार

Gulzar is coloring life through songs since six decades

गीतकार गुलज़ार कभी उधम मचाते कूदते बच्चों के लिए हर इतवार मोंगली के संग चड्डी पहने फूलों को खिलाते हैं तो कभी दिल को बच्चा बना कर पहले प्यार की दुश्वारियों से गुजरते हैं।

“मेहनत तो हीरा बेचने वाले को भी करनी पड़ती है, हम तो फिर भी ख्याल बेच रहे हैं'' एक 82 साल के बुज़ुर्ग शायर जिन्होंने बॉलीवुड के 6 दशकों में अपने गीतों से रंग भरा है, ने पिछले दिनों बैंगलुरु में हुए पोएट्री फेस्टिवल में युवा कवियों को संबोधित करते हुए यह कहा।

हैरानी होती है कि 82 साल की उम्र में भी उसी जवान जोश और ज़ज्बे से गुलज़ार अपनी महक बिखेर रहे हैं। 18 अगस्त 1934 में झेलम के पास जन्मे (अब पाकिस्तान) सम्पूरण सिंह कालरा ने पिता की नाराज़गी के बाद “गुलज़ार” तखल्लुस (पेन नेम) अपना लिया।

यूँ तो गुलज़ार ने 1957 से ही हिंदी फिल्मों के लिए गाने लिखने शुरू कर दिए थे पर 1963 में पहली बार गुलज़ार ने मशहूर संगीतकार एस.डी. बर्मन के साथ काम किया और ‘बंदनी’ फिल्म के मशहूर गाने “मोरा गोरा अंग लई ले” की रचना की। पांच दिनों में लिखे गए इस गीत में रविन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं की साफ़ छवि देखी जा सकती है।

‘बंदनी’ के बाद तो गुलज़ार ने बॉलीवुड में अपने गीतों की झड़ी लगा दी। आनंद, मेरे अपने, गुड्डी, बावर्ची, परिचय, नमक हराम, चुपके चुपके, मौसम, आंधी, गोलमाल, अंगूर, सदमा, मासूम, रुदाली, माचिस, दिल से, साथिया, ओमकारा और ना जाने कितने फिल्मों के गानों को गुलज़ार ने अपने लफ़्ज़ों से सजाया और उनके इस जौहर के लिए गुलज़ार को 20 दफा फिल्म फेयर से नवाज़ा गया। गुलज़ार आज भी फिल्मों के लिए गाने लिख रहे हैं।

इतनी शिद्दत के साथ काम करने की ताकत और नई सोच गुलज़ार लाते कहाँ से हैं, एक इंटरव्यू में इसका जवाब देते हुए गुलज़ार साब कहते हैं कि “अगर आप आज के तरोताजा ट्रेंड से वाकिफ नहीं रहेंगे तो बच नहीं पायेंगे और ये बात एक इंजिनियर, एक फोटोग्राफर के लिए जितनी सही है उतनी ही सही एक लेखक और कवि के लिए भी है।”

नई चीजों और नई भाषा को अपनाने में गुलज़ार कभी पीछे नहीं रहे हैं। साल 2014 में उन्होंने आज के ज़माने के पोपुलर पंजाबी गायक हनी सिंह के साथ “हॉर्न होके प्लीज” गाने की रचना की जिसमें उर्दू शायरी को नए रैप की शैली में पेश किया गया है।

एक ही वक़्त में अलग अलग मूड के हिसाब से अलग अलग लफ़्ज़ों और भाषाओं में लिखना गुलज़ार की खासियत है वरना कौन 2014 में एक फिल्म के गाने में लिख सकता है-


"गहरी गर्मी में शर्बत-ऐ-जमजम, रूह अफज़ा तू स्वीटा"

और फिर कुछ दिनों बाद दार्शनिक अंदाज़ में ज़िन्दगी से बात करते हुए लिखे-

“क्या रे ज़िन्दगी क्या है तू, तेरी कार्बन कॉपी हूँ मैं या मेरा आइना तू”

गीतों में अपनी खुशबु बिखरने के साथ साथ गुलज़ार ने फिल्म निर्माण और साहित्य में भी उल्लेखनीय योगदान दिया है। मशहूर लेखक/अनुवादक और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक प्रभात रंजन गुलज़ार के फिल्म निर्माण के बारे में कहते हैं कि “मुझे उनकी फिल्म “अचानक” सबसे अच्छी लगती है। 1973 में विनोद खन्ना को लेकर उन्होंने यह फिल्म बनाई थी। बहुत कम कास्ट के साथ एक कमाल की फिल्म है जिसमें डायलाग, गाने सब बहुत कम हैं। लेकिन बहुत अच्छी फिल्म है। यह उनकी सिग्नेचर स्टाइल से थोड़ी अलग हटकर भी है।” इस फिल्म की कहानी 1958 में हुए चर्चित हत्याकांड के.एम. नानावटी बनाम महाराष्ट्र पर आधारित थी।

गुलज़ार के आज की वक़्त में भी जनता के बीच पॉपुलर होने के सवाल पर प्रभात रंजन कहते हैं कि “गुलजार की सबसे बड़ी बात है कि वे लगातार contemporary बने रहे। हर दौर की भाषा में उन्होंने कुछ मीनिंग भरने की कोशिश की। आप देखिये अभी हाल में रंगून फिल्म में उन्होंने एक गीत लिखा था- ब्लडी हेल। meaninglessness को इतना मीनिंगफुल कोई समकालीन गीतकार नहीं बना सकता। वे हर समय के समकालीन बने रहे यही उनकी ताकत है।”

हर वर्ग और उम्र के लिए गुलज़ार ने अलग अलग वक़्त में अपने गीतों के तरकश से एक एक गीत चुन के निकाले हैं। गुलज़ार कभी उधम मचाते कूदते बच्चों के लिए हर इतवार मोंगली के संग चड्डी पहने फूलों को खिलाते हैं तो कभी दिल को बच्चा बना कर पहले प्यार की दुश्वारियों से गुजरते हैं।

गुलज़ार एक रॉक स्टार शायर हैं और इसलिए आज भी किसी कार्यक्रम में अगर वो शामिल होते हैं तो उनके वहाँ उनके चाहने वालों की भीड़ लग जाती है जिसमें अधिकतर युवा होते हैं, दरअसल आज गुलज़ार होना बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है एक 80 साल की इंसान का एक जवां दिल के ज़ज्बातों को लफ्ज़ देना और लिखना-

"हल्की हल्की आहें भरना,

तकिये में सर दे के धीमे धीमे, 

सरगोशी में बातें करना, 

पागलपन है ऐसे तुम पे मरना,"


अनुतोष पाण्डेय

(लेखक पेशे से वकील और शौक से शायर हैं)

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