राहुल गांधी बनाम राहुल (व्यंग्य)

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विजय कुमार । Dec 10 2018 2:02PM

जब देश आजाद हुआ, तो हमारे नेताओं ने जाति और प्रांतभेद से मुक्त भारत बनाने का संकल्प लिया था; पर संकल्प लेने वाले खुद इसे गर्त में डुबोकर चले गये। इसीलिए देश में कब इस नाम पर उपद्रव होने लगें, पता नहीं लगता।

दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी है; पर हम भारत के लोग अभी तक जाति, गोत्र, क्षेत्र, भाषा, वंश और परिवार की राजनीति में ही उलझे हैं। जब देश आजाद हुआ, तो हमारे नेताओं ने जाति और प्रांतभेद से मुक्त भारत बनाने का संकल्प लिया था; पर संकल्प लेने वाले खुद इसे गर्त में डुबोकर चले गये। इसीलिए देश में कब इस नाम पर उपद्रव होने लगें, पता नहीं लगता। 

वैसे हमारे देश के नेता पल्टी मारने में उस्ताद हैं। खुद को नास्तिक बताने वाले अब परम आस्तिक हो गये हैं। कैलास यात्रा हो या पुष्कर मंदिर, जहां मौका मिलता है, वहीं सिर झुका देते हैं। जिन्होंने कभी रामायण और गीता नहीं देखी, वे उसकी चर्चा कर रहे हैं। भले ही कुंभाराम को कुंभकर्ण कहा हो; पर कहा तो है। मैदाने जंग में शहसवार ही तो गिरते हैं। ये बात दूसरी है कि कुंभकर्ण और कुंभाराम जहां भी होंगे, सिर पीट रहे होंगे।


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उधर मुंबई में एक युवा ठाकरे जी हैं। कभी वे भी शिव सेना के बड़े नेता होते थे; पर मरने से पहले वह सेना चाचा जी ने अपने बेटे को सौंप दी। इसलिए उन्होंने एक नयी सेना बना ली। नाम तो उसका नव निर्माण जैसा कुछ है; पर असली काम उसका भी उपद्रव ही है। पहले उनका निशाना दक्षिण वाले थे; पर अब शिकार हिन्दी वाले हैं। उन्हें पीटने में उन्हें बड़ा सुख मिलता है। आखिर अपना घर जो ठहरा; और..। 

पर अब महाराष्ट्र में हिन्दी वाले इतने बढ़ गये हैं कि उनके वोट के बिना सरकार नहीं बन सकती। इसलिए वे उनसे हिन्दी में ही बात करने को मजबूर हो गये हैं। उधर पुरानी सेना के सेनापति भी अयोध्या दर्शन कर आये हैं। वोट तो हिन्दी वालों के उन्हें भी चाहिए। इसलिए मजबूरी में द्रविड़ प्राणायाम ही सही। 

पर खानदानी राजनीति के पुरोधा ने तो राजस्थान के एक मंदिर में अपना गोत्र ही जाहिर कर दिया। पूजा के बाद जब पुजारी जी ने अपनी बही में कुछ लिखने को कहा, तो वे संकट में पड़ गये। हिन्दी बोलनी तो उन्हें आती है; पर लिखनी और पढ़नी नहीं। सो उन्होंने ये जिम्मेदारी भी पुजारी जी को ही दे दी। उसने जो लिखा, बाबा ने वहां अंग्रेजी में चिड़िया बैठा दी। 

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लेकिन इसके बाद बहस छिड़ गयी कि उनका ये गोत्र कैसे हो गया; हिन्दू परम्परा में गोत्र तो पिता की ओर से आता है। तो उनके पिता का गोत्र क्या था ? बात बढ़ते हुए उनके पुरखों के मजहब और शादी तक पहुंच गयी। कल पार्क में धूप खाते हुए भी यही हुआ। टी.वी. की तरह वहां भी कई दल बन गये। कुछ ही देर में पचासों श्रोता भी आ गये। 

ऐसी बहस में हमारे शर्मा जी कम ही बोलते हैं; पर कभी-कभी उनकी बात सब पर भारी पड़ती है। उन्होंने कहा कि गोत्रों का जन्म कब हुआ, ये तो पता नहीं; पर नये गोत्र लगातार बन रहे हैं। बच्चन, प्रधान, चौधरी, सेठ, मंत्री जैसे कई गोत्र पिछले कुछ वर्षों में ही बने हैं। नेहरू गोत्र भी नहर के पास रहने से बना है। इसलिए मैं राहुल बाबा को सलाह देता हूं कि वे पी.एम. खानदान से होने के कारण अपना गोत्र पी.एम. ही रख लें। इस बहाने लोग उन्हें बार-बार पी.एम. कहेंगे। इससे उनके मन को बहुत संतोष होगा। जैसे भिखारी को लक्ष्मीचंद कहें, तो उसका सीना फूल जाता है। 

इसके बाद बहस समाप्त हो गयी। 

-विजय कुमार

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