मरना इसी का नाम है (व्यंग्य)

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कुछ के लिए ‘पहले’ का अर्थ कुछ दिन तो कुछ के लिए और चार दिन हैं। बाद में मध्यम वर्गीय परिवार का हाल ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’ जैसा हो जाता है। चुपचाप जीवन जीने को मजबूर। चेहरे पर बनावटी मुस्कान चिपकाये रखनी पड़ती है।

पहले पहल सब अच्छा ही लगता है। वायरस के नाम पर मिली छुट्टियाँ सबमें खुशियाँ बाँटती है। पहले ऑफिस के नाम पर फुर्रर्र से उड़ जाने वाले माता-पिता अब घर में आराम फरमा रहे हैं। बच्चों के लिए न पाठशाला की झिक-झिक, न होमवर्क की किच-किच। अब तो आराम ही आराम है। माता-पिता बच्चों के संग उछलते-कूदते, हँसी-ठिठौली करते खुशियों की दुनिया में खो जाते हैं। हाँ, पहले पहल सब अच्छा ही लगता है।

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बच्चों की चुपड़ी-चुपड़ी बातों के बीच एक दिन अचानक उनकी अक्लमंदी वाली बातें सुनकर हतप्रभ रह जाना, कभी लूडो खेलने वाले बच्चों का अमेजान प्राइम पर ढुलक जाना, आगे चलकर अंग्रेजी चैनलों का लुत्फ उठाना, यूट्युब से कांटिनेंटल डिशेस की वीडियो डाउनलोड करना, कभी ख्याल में न आने वाले परिजनों को वाट्सएप के वीडियो कॉलों पर गले लगाना, घर के छोटे-मोटे काम करते हुए खुद की सेल्फी लेना और सेलिब्रिटी जैसा फील होना, पहले पहल सब अच्छा ही लगता है। पता चला कि बस्ती में फलाने को कोरोना हुआ है तो कुछ दिनों की स्तब्धता मौन का रूप धारण कर लेती है।

कुछ के लिए ‘पहले’ का अर्थ कुछ दिन तो कुछ के लिए और चार दिन हैं। बाद में मध्यम वर्गीय परिवार का हाल ‘अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम’ जैसा हो जाता है। चुपचाप जीवन जीने को मजबूर। चेहरे पर बनावटी मुस्कान चिपकाये रखनी पड़ती है। भीतर ही भीतर मृत्यु भय का ताना-बाना बुनता रहता है। फेशियल, डाई से जगमगाने वाले चेहरे अपनी वास्तविकताएँ ढूँढ़ने लगते हैं। बच्चों का उछल-कूद अब बोझिल-सा लगने लगता है। पहले उनके नन्हें हाथों को देखकर जो गुमान होता था अब उन्हीं नन्हें हाथों को फेसबुक पर समय गुजारते देखना असहज लगता है। धीरे-धीरे पुराने दिनों की ओर लौटने की इच्छा प्रबल होने लगती है। गाढ़े मसालों की बनी सब्जी स्वाद में फीकी लगने लगती है। फोन की गैलरी देख-देखकर आँखें पक जाती हैं। अब वाट्सएप के चैट उबाऊ लगने लगते हैं। घर मैं बैठे-बैठे ऐसा लगता है कि कोई हमें काटने दौड़ रहा है। जूम, गूगल मीट, माइक्रोसॉफ्ट रूम आगे चलकर बहुत खराब लगने लगते हैं। अब इनका नाम सुनते ही खीझ, क्रोध और तनाव पैदा होने लगता है। कब तक एक-दूसरों से दूर रहें? कब तक एक-दूसरे की बनावटी हँसी का सामना करते रहें? कब तक इस तरह घुट-घुटकर जीते रहें? कब तक काम-काज से दूर रहें? कब तक अपने आपको झूठा दिलासा देते रहें? कब तक? कब तक? कब तक?

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अपने ही शहर में, अपने ही मोहल्ले में, अपने ही घर में हमने अपनी समाधि बना ली है। अपने-अपने कमरों में, अपने-अपने फोनों में, अपने-अपने मनपसंद गैजेटों में, अपने-अपने ढंग से खुद को कैद कर लिया है। हिलना चाहते हैं लेकिन हिल नहीं सकते। चलना चाहते हैं लेकिन चल नहीं सकते। दौड़ना चाहते हैं, लेकिन दौड़ नहीं सकते। कब सुबह से शाम हुई और शाम से रात– पता ही नहीं चलता। कभी-कभी घड़ी की सुइयों को देखकर ईर्ष्या होने लगती है। कम से कम वो तो हिल-डुल पाते हैं। क्या हम उनसे भी गये-गुजरे हैं? अब वह दिन दूर नहीं जब कुछ और वक्त बीत जाने पर हम खुद को नोचने, खुरचने, काटने-पीटने लगेंगे। अब धीरे-धीरे मैं, केवल मैं और कोई नहीं...की इच्छा ध्वस्त होने लगी है। वही पुराने दिन, वही लोग, वही बातें याद आने लगी हैं।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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