वो दाल-दाल, ये साग-साग (राजनीतिक व्यंग्य)

Humour on Bihar Politics
विजय कुमार । Aug 21 2017 1:02PM

हमारे प्रिय शर्मा जी परसों अखबार में छपी एक पुरानी कहावत ‘तुम डाल-डाल, हम पात-पात’ के नये संस्करण ‘वो दाल-दाल, ये साग-साग’ के बारे में मुझसे चर्चा करने लगे।

मैं साहित्यप्रेमी तो हूं, पर साहित्यकार नहीं। इसलिए किसी कहावत में संशोधन या तोड़फोड़ करने का मुझे कोई हक नहीं है; पर हमारे प्रिय शर्मा जी परसों अखबार में छपी एक पुरानी कहावत ‘तुम डाल-डाल, हम पात-पात’ के नये संस्करण ‘वो दाल-दाल, ये साग-साग’ के बारे में मुझसे चर्चा करने लगे। 

- वर्मा, ये दाल और साग वाली बात कुछ हजम नहीं हुई।

- शर्मा जी, आपका पेट हमेशा खराब ही रहता है। कभी आप ईसबगोल फांकते हैं, तो कभी त्रिफला। सुना है अब आप हर सप्ताह एनीमा लेने लगे हैं।

- ये अंदर की बात है वर्मा। कभी अकेले में बता दूंगा; पर आज तो तुम दाल और साग की बात बताओ।

- शर्मा जी, बिहार में इन दिनों क्या हो रहा है ?

- वहां बाढ़ आयी हुई है।

- बाढ़ तो वहां हर साल आती है; पर इस बार बाढ़ से पहले जो तूफान आया है, मैं उसके बारे में पूछ रहा हूं।

- क्या तुम्हारा मतलब राजनीतिक तूफान से है ?

- जी हां। वहां पहले लालू और नीतीश में चूहे-बिल्ली का खेल चल रहा था; लेकिन इसमें बाजी मार ली सुशील मोदी ने। क्योंकि उनकी पीठ पर दिल्ली वाले मोदी का हाथ था।

- बिल्कुल ठीक कह रहे हो। उसकी शह पर ही तो छोटे मोदी ने लालू को मात दे दी।

- लेकिन अब ये खेल नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच हो रहा है; और शरद बाबू की धोती में लालू का पैर भी है।

- हां, लगता तो यही है; लेकिन वर्मा, इस उठापटक का कारण क्या है ?

- शर्मा जी, ये साम्यवादियों के सौतेले भाई समाजवादियों का नियमित खेल है। डॉ. राममनोहर लोहिया समाजवादियों के नेता होने के साथ ही बड़े विचारक भी थे। उन्होंने अपने शिष्यों को ये राजनीतिक मंत्र दिया था कि ‘तोड़ो या टूट जाओ।’ बस तब से उनके चेले इसी काम में लगे हैं। राजनारायण, मधु लिमये और चरणसिंह जैसे उनके खास चेलों ने 1979 में जनता पार्टी की सरकार तोड़ी। इससे ही आपातकाल की पापी कांग्रेस और इंदिरा गांधी को पुनर्जीवन मिला। इसके बाद की पीढ़ी के सब समाजवादी अपनी ढपली अलग बजा रहे हैं। कोई एक-दूसरे को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। सत्ता से बाहर होने पर वे गठबंधन करते हैं; पर कुर्सी मिलते ही वह हठबंधन में बदल जाता है, और फिर तोड़ने या टूटने का वार्षिक खेल शुरू हो जाता है।

- वो कैसे ?

- आपने जार्ज फर्नांडीस का नाम सुना है ?

- हां, वो अटल जी के मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री थे। सुना है वे बहुत ईमानदार और सादगी से रहने वाले नेता थे।

- जी हां। नीतीश कुमार ने पहले उन्हें बिहार बुलाकर वहां से सांसद बनाया और फिर ऐसा पटका कि बेचारे तब से बिस्तर पर पड़े हैं। यही हाल अब शरद यादव का होगा। 

- लेकिन शरद यादव तो बड़े नेता हैं ?

- शर्मा जी, नेता बड़ा होता है अपने जनाधार से। जार्ज कर्नाटक के थे और शरद यादव म.प्र. से हैं; पर अपने घर में उन्हें कोई नहीं पूछता। इसीलिए वे नीतीश या लालू जैसे जनाधार वाले नेताओं का पल्लू पकड़कर राजनीति करते हैं।

- और मुलायम सिंह ?

- उनका भी बड़ा जनाधार है; पर उनके बेटे ने उन्हें ही अखाड़े में पटक दिया है। आखिर दोनों समाजवादी जो ठहरे। 

- तो अब लालू और शरद यादव मिलकर क्या करेंगे ?

- पहली बात तो वे मिलेंगे नहीं, और अगर मिल गये तो कुछ दिन बाद लड़ने लगेंगे। समाजवाद के बीज में ही ये खराबी है। इसलिए कोई पेड़ की डाल पर चढ़ता है, तो दूसरा पत्तों की आड़ लेकर उसे धकिया देता है। इस चक्कर में कोई दाल की हांडी में गिरकर अपने हाथ जलाता है, तो कोई साग के भगोने में गिरकर अपने पैर। यही इनकी नियति है। 

- लेकिन वर्मा, इन बिहारी समाजवादियों के झगड़े में कांग्रेस क्यों पड़ गयी ?

- शर्मा जी, चाय में कभी-कभी मक्खी गिर जाती है। समझदार लोग उसे निकालकर चाय पी लेते हैं। कांग्रेस की हालत उस मक्खी जैसी है। नीतीश हो या लालू और शरद यादव, सब यह जानते हैं; पर आपके राहुल बाबा की तो समझदारी से दूर की भी रिश्तेदारी नहीं है। बस इसीलिए ऐसा है।

यह सुनते ही शर्मा जी गरम हो गये। वे मुझे मारने के लिए रसोई से एक करछुल उठा लाये। मैंने देखा, उस पर दाल भी लगी थी और साग भी। 

-विजय कुमार

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