लिखना चाहता हूँ (कविता)
कवि ने कविता 'लिखना चाहता हूं' में समाज में व्याप्त बुराइयों का वर्णन किया है और साथ ही उन बुराइयों को समाप्त करने के लिए समाज के लोगों को जगाना की कोशिश की है। कवि ने इस कविता के माध्यम से समाज को जगाने का प्रयास किया है।
कवि ने कविता 'लिखना चाहता हूं' में समाज में व्याप्त बुराइयों का वर्णन किया है और साथ ही उन बुराइयों को समाप्त करने के लिए समाज के लोगों को जगाना की कोशिश की है। कवि ने इस कविता के माध्यम से समाज को जगाने का प्रयास किया है।
लिखना चाहता हूँ,
अनाथ आश्रम के उन बच्चों की कहानी,
बचपन से पहले ही जहां आ गई जवानी!
जिनकी आँखों में सपना है,
जिनका खो गया कोई अपना है!
करून क्रंदनमय पुकार उस अनाथ की,
जो हर आवाज़ में तलाशते साथ की!
लिखना चाहता हूँ,
टूटते परिवारों की बेबस पुकार,
जहां संबंधों को कर दिया दरकिनार,
हर दीवार पर लिखा मिलता हैं।
टूटे परिवार का बंधन कहाँ सिलता है!
जहाँ सपनों के महल ढह जाते हैं,
आँखों के सपने सपने ही रह जाते हैं।
लिखना चाहता हूँ,
सूने घर की कहानी जहाँ खुशी पराई हुई है,
जहाँ अभी अभी बेटी की विदाई हुई है।
नहीं सूखी मेहंदी की उजडा मांग का सिन्दूर,
कोई अपना ही रूठ के चला गया कहीं दूर।
जहाँ दीवारें भी सिसकियाँ भरती हैं,
और छत के नीचे ख्वाहिशे मरती हैं।
लिखना चाहता हूँ,
जो शर्मसार कर खुद मानवता के ठेकेदार बन बैठे,
खुद ही लूटें इज्जत और खुद पहरेदार बन बैठे।
संवेदनहीनता की काली स्याही से, हर कोना धुंधला हो गया,
आम आदमी नेताओं की मुट्ठी का पुतला हो गया।
लिखना चाहता हूँ,
उन दोहरे मापदंडों की कड़वी सच्चाई को ,
रिश्तों को रखता ताक पर, घर निकाला भाई को।
सच को दबाने की पल पल साजिश गड़ता है,
जहां न्याय की तुला पर, हमेशा झूठ ही भारी पड़ता है।
लिखना चाहता हूँ,
सपनों की चकाचोंद में पिस रहा इंसान है,
जिम्मेदारियों की भीड़ भड़क्का में खो रहा पहचान है।
जो हर सुबह खुद के साथ उम्मीदों को भी जगाते हैं,
रात होते-होते निराशा के अंधेरे में खो जाते हैं।
लिखना चाहता हूँ,
उन आडंबर की चमचमाती परतों के बारे में,
अनचाही थोपी हुई समाज की शर्तों के बारे में,
और दिखावे की दुनिया जो हमें भुला रही है।
मुंगेरी लाल के हसीन सपनों में हमें सुला रही है।
लिखना चाहता हूँ,
‘असीमित’ एक प्रयास कुछ कर जाने का,
सोये हुए समाज को फिर से जगाने का।
सूरज बनकर नहीं, बनूँ एक दीप उजियारा,
मिटा सकूँ मेरे हिस्से के कोने का अंधियारा।
- डॉ मुकेश ‘असीमित’
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