प्रेम युद्ध (कहानी)

Love war (story)

हिन्दी काव्य संगम से जुड़े लेखक भावेश खासपुरिया द्वारा रचित कहानी प्रेम युद्ध (कहानी) में बच्चें के प्रति मां की चिंताओं को प्रमुखता से उभरा गया है।

- "अच्छा चलता हूँ, नौ बज गए हैं और माँ मेरी राह देख रही होगी।"

मैंने कलाई पर बंधी घड़ी को निहारते हुए अपने पुराने मित्र से कहा।

- "अरे ! इतने महीनों बाद तो मिलने का अवसर मिला है भावेश, थोड़ी देर और रुक जाओ, चले जाना अभी नौ ही तो बजे हैं।"

मित्र ने बलपूर्वक मुझे रोकना चाहा।

- "हाँ ! मेरा भी रुकने का मन तो है लेकिन अगर कुछ देर और घर ना गया तो माँ फिजूल की फिक्र करने लगेगी, यही आदत है उनकी। हो सकता है वो मुझे ढूंढते-ढूंढते तुम्हारे घर तक आ जाए।" 

मैंने मसखरी करते हुए कहा।

हम दोनों कुछ देर तक इस बात पर मुस्कुराते रहे और फिर मित्र ने कहा कि- "ना जाने तुम्हारी माँ तुम्हारी इतनी फिक्र क्यों करती है?

अरे ! अब तुम छोटे बच्चे थोड़ी ना रहे कि तुम्हें उंगली पकड़कर चलना सिखाएं।"

हाँ ! तुम्हारा कहना उचित है लेकिन अब माँ को कौन समझाए? मां के लिए तो मैं अभी भी वो छोटा बच्चा ही हूँ जिसे कोई भी अनजान व्यक्ति टॉफी दिखाकर अपने साथ बहला-फुसलाकर ले जाएगा लेकिन उसका छोटी-छोटी बातों पर चिंता में डूब जाना शायद सार्थक भी लगता है क्योंकि एक वही तो है जो निस्वार्थ भाव से प्रेम और हमारी देखभाल करती है और जहां देख-रेख होगी वहां फिक्र का होना लाजमी है, तुम्हारी माँ तुम्हारी फिक्र और तुमसे प्रेम नहीं करती तो ये अलग बात है।"

मैंने फिर अपने मित्र को छेड़ते हुए कहा।

इस दरमियां ही मैंने अपनी मोटरसाइकिल को स्टार्ट कर दिया था और फिर हम दोनों ने एक जोर का ठहाका लगाया और मैं अपने गंतव्य को रवाना हुआ।

दिसंबर का महीना था और सड़कों पर सन्नाटा कुछ यूँ पसरा हुआ था जैसे शहर में कर्फ्यू लगा हो।

ओस आंखों के सामने साफ दिखाई पड़ती थी और ऐसा प्रतीत होता था जैसे जल की कुछ बूंदें किसी ने वायु में मिला दी हों।

उन सर्द हवाओं को अपनी मोटरसाइकिल की रफ्तार से चीरता हुआ मैं जैसे तैसे घर पहुंचा, मुख्य द्वार खोल कर अपनी मोटर साइकिल को घर के अंदर चढ़ाया और ठंड के कारण अकड़े हुए हाथों को गर्माहट देने के लिए उन्हें रगड़ता हुआ हॉल के मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश किया।

पिताजी टेलीविज़न देखते हुए रात्रि भोजन का आनंद ले रहे थे और हॉल से ही लगी हुई रसोई में माँ उनके लिए रोटियां तैयार कर रही थी।

- "आ गए जनाब?" मां ने मुझसे प्रश्न किया

- "हां मम्मी।" मैंने उत्तर दिया

- "ट्रेन प्लेटफार्म पर देरी से कैसे आई?"

- "पुराने मित्र से मिलने जाऊंगा वो भी इतने महीनों बाद तो मिलने में देर हो ही जाती है।"

- "अच्छा चलो कपड़े बदल कर आओ और खाना खाने बैठो।"

- "पेट में बिल्कुल जगह नहीं है माँ, मैं खाना नहीं खाऊंगा।"

- "क्यों जगह नहीं है? माँ ने संदेह की नज़रों से देखते हुए मुझसे प्रश्न किया।

- "मैं बाहर से खा कर आया हूँ" मेरी जुबान ने लड़खड़ाते हुए उत्तर दिया।

- "बाहर से खाकर आने के लिए तुम्हें कितनी बार मना किया जाए? न जाने क्या मिलावट का सामान बेचते हैं वो लोग और तुम मजे से चट कर के आ जाते हो।"

- "कभी कभी खाने में क्या बुराई है माँ? वैसे भी मेरे ज्यादा मित्र तो हैं नहीं, कुछ हैं जो महीनों में जा कर मिलते हैं, अब उनके कहने पर कुछ खा लिया तो क्या गुनाह किया?" मैंने प्रेम और विरोध के स्वर का मिश्रण बनाकर माँ को जवाब दिया।

- "हाँ भाई कोई गुनाह नहीं किया तुमने, मैंने गुनाह किया जो तुमसे पूछ लिया, ये सब तुम्हारे पिता की दी हुई छूट का परिणाम है।"

माँ ने पिताजी से मुझे फटकार लगवानी चाही लेकिन पिताजी खामोश रहे। वो टीवी देखने में मगन थे या भोजन करने में या फिर वो मुझे डांटना ही नहीं चाहते थे मैं इस बात से अनजान था लेकिन उनकी खामोशी का लाभ उठाकर मैं चुपचाप से अपने कमरे में आ गया।

- "चाहो तो थोड़ा खालो वरना फिर रात को भूख लगेगी तुम्हे" माँ ने रसोई से आवाज लगाकर मुझे आगाह किया।

- "नहीं माँ पेट में बिल्कुल जगह नहीं है और अब मन भी नहीं रहा" मैंने भी अपने कमरे में से ऊंची आवाज में उन्हें उत्तर दिया।

- "ठीक है तो तुम्हारे लिए रोटी नहीं बनाऊं?"

- "नहीं माँ रहने दो मुझे भूख नहीं है। आप अपने लिए बना लो" मैंने नम्रता से उत्तर दिया।

वक्त बीतता गया और अब घर में चहल कदमी और हलचल कम होने लगी और इस सन्नाटे ने मुझे एहसास दिलाया कि आधी रात हो चुकी थी लेकिन मैं अब भी गोदान पर नजरें टिकाए हुए था। होरी और धनिया की कहानी कुछ रोचक लगने लगी थी। कुछ पल बीते ही थे कि पिता के खर्राटों ने मेरे कमरे तक दस्तक दी। मैंने आंखें उठाकर दीवार घड़ी को देखा तो वो रात्रि के दो बजे का संकेत दे रही थी।

मुझे भी महसूस हुआ कि अब मुझे भी सोना चाहिए। मैं बिस्तर से उठा और कमरे की बत्ती बुझा कर वापस बिस्तर पर लेट गया। कुछ देर तक अपने भूतकाल को कोसा और फिर कुछ देर अपने भविष्य की चिंताओं में डूबा रहा लेकिन बिस्तर पर जो कार्य करने में आया था वो कार्य करने में असफल रहा। नींद मुझे अपने आगोश में लेना ही नहीं चाहती थी, मैंने कई बार करवट बदल ली थी और मन को भी जैसे-तैसे शांत कर लिया था लेकिन नींद थी जो ना जाने क्यों रूठी बैठी थी?

कुछ देर विचार करने के उपरांत समझ आया कि कुछ आवाजें थीं जो मेरे पेट की ओर से आ रही थीं और एक यही कारण था जो मेरी नींद में बाधा बना हुआ था। साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो मुझे भूख लग रही थी लेकिन अब क्या? अब तो बात हाथ से निकल चुकी थी लेकिन मन बार-बार मेरी आंखों को रसोईघर की ओर देखने को मजबूर कर रहा था।

रसोई तक जाने का रास्ता घर के मुख्य हॉल से होकर गुजरता है और माता-पिता हॉल में ही सोया करते थे क्योंकि अंधेरे में उन्हें नींद नहीं आती थी इस वजह से रसोई की एक छोटी बत्ती रात भर जलती थी ताकि हॉल हल्के उजाले से ही सही लेकिन प्रकाशमान रहे।

मैं नहीं चाहता था कि मेरी वजह से माता-पिता की नींद खराब हो लेकिन पेट की भूख न जाने दुनिया में इंसान से क्या-क्या करा देती है?

मैं अपने कमरे से निकला और दबे पांव रसोई घर की ओर बढ़ा, जीवन में पहली बार कुछ चुराने की अनुभूति हो रही थी और वो भी अपने खुद के घर में। बिना कोई आवाज किए जैसे-तैसे मैं रसोई में पहुंचा और चारों ओर अपनी आंखें घुमाने लगा। रोटी का डिब्बा सामने ही रखा था लेकिन उसे खोलकर कौन देखता? मैंने अपने खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारी थी।

लेकिन तभी मुझे याद आया कि माँ हमेशा घर में आए मेहमानों के लिए एक नाश्ते का डिब्बा हमसे छुपा कर कहीं रखती है और मैं लगा उस डिब्बे को खोजने,

पहली अलमारी दूसरी अलमारी तीसरी अलमारी में जाकर उस डिब्बे पर नजर पड़ी, हाथ में पकड़ कर उस डिब्बे को खोलने ही लगा था कि पीछे से एक आवाज आई।

- "कौन है?" 

बर्तनों की खटपट से माँ की नींद टूट चुकी थी।

मेरे मुंह में जैसे दही जम गया था फिर भी कुछ सेकंड बाद मैंने कहा- 

"मैं हूँ मम्मी"

- "क्या हुआ?" माँ ने प्रश्न किया,

- "कुछ नहीं प्यास लग रही थी इसलिए पानी पीने आया था।"

- "प्यास लग रही है तो नाश्ते वाला डिब्बा खोलने की क्या जरूरत है?" नादान चोर की चोरी पकड़ी गई।

- "मैं जानती हूँ तुम्हें भूख लग रही है। मैंने तुम्हारे लिए खाना बना कर रखा है। रोटी के डिब्बे में रोटी और सब्जी दोनों रखी है चाहो तो गर्म कर देती हूँ।"

मेरी जुबान कटकर पेट में गिर चुकी थी 

लेकिन उस परिस्थिति में जवाब देना जरूरी था।

- "नहीं, ठीक है" मैंने उत्तर दिया,

- "सुबह को आज खीर भी बनाई थी। तुम्हें खीर ठंडी पसंद है इसलिए दोपहर में ही फ्रिज में रख दी थी चाहो तो वो भी खा सकते हो।" 

- "हम्म, ठीक है" मैं उनकी नींद खराब करने के लिए शर्मिंदा था।

लेकिन भोजन की थाली सज चुकी थी और मैं उसे उठाकर अपने कमरे की ओर चल दिया था। हॉल से गुजरते वक्त माँ अपने बिस्तर पर बैठे-बैठे मुझे कुछ इस तरह देख रही थी जैसे कि उन्होंने इस प्रेम युद्ध में अपने विपक्षी दल के सदस्य को आगाह करने के बावजूद भी बुरी तरह पराजित किया हो और मैं अपनी गर्दन झुकाए हुए अपने कमरे की ओर चले जा रहा था और फिर माँ के हाथ की बनी ठंडी खीर ने मेरे पेट की आग को कुछ इस तरह शांत किया कि भोजन के उपरांत मुझे जो नींद लगी वो सीधे सुबह माँ की आवाज से ही टूटी।

वो सुबह मेरे लिए देखने का एक नया दृष्टिकोण लेकर आई, रात को हुई इस घटना ने मेरे गलत होने पर मोहर लगा दी थी। हाँ ! मैं गलत था जो कुछ वर्षों से यह सोचता था कि मुझे खुद से बेहतर कोई नहीं जानता।

मेरे विचार, मेरी भावनाएं, मेरे एहसासों को शायद इस दुनिया में मेरे अलावा कोई और नहीं समझ सकता। मैं उस रात से पहले यही विचार रखता था लेकिन मैं गलत हूँ क्योंकि कोई है जो मुझे मुझसे भी बेहतर समझता है और वो है मेरी माँ।

जिसने मेरे मना करने के बावजूद भी मेरे लिए खाना बना कर रखा। अभी कुछ वर्ष ही तो हुए हैं जब से हमने होश संभाला है लेकिन वो हमें बचपन से संभाल रही है, जीवन के हर मोड़ पर सही और गलत का अंतर समझा रही है।

ये बस दौर का फेर है कि हम हमारी माँ से कभी-कभी वैचारिक तालमेल नहीं बिठा पाते लेकिन दुनिया में एक माँ ही है जिसके पास आप की अनकही पीड़ा को समझने की शक्ति है। एक बार को बाहर का खाना धोखा दे सकता है लेकिन माँ के हाथ की बनी रोटियां कभी नहीं।

भावेश खासपुरिया

कोटा (राजस्थान)

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