हमें भी खिलाओ नहीं तो... (व्यंग्य)

political humour
विजय कुमार । Jun 16 2018 3:26PM

आजकल दूरदर्शन ने क्रिकेट और फुटबॉल को हर घर में पहुंचा दिया है; पर हमारे बचपन में ऐसा नहीं था। तब गुल्ली-डंडा, पिट्ठू फोड़, कंचे और छुपम छुपाई जैसे खेल अधिक खेले जाते थे। खेल में झगड़ा भी होता ही है।

आजकल दूरदर्शन ने क्रिकेट और फुटबॉल को हर घर में पहुंचा दिया है; पर हमारे बचपन में ऐसा नहीं था। तब गुल्ली-डंडा, पिट्ठू फोड़, कंचे और छुपम छुपाई जैसे खेल अधिक खेले जाते थे। खेल में झगड़ा भी होता ही है। भले ही वह थोड़ी देर के लिए हो। हमारे मित्र शर्मा जी इसमें तब से ही उस्ताद थे। अनुशासनहीनता उनके स्वभाव का हिस्सा थी। वे अपनी शर्तों पर ही खेलना पसंद करते थे। यदि गुल्ली-डंडे या पिट्ठूफोड़ में उनका दल जल्दी बाहर हो जाए, तो वे बदतमीजी पर उतर आते थे। इसलिए कई बार हम लोग उन्हें अपने साथ खिलाते ही नहीं थे। 

ऐसे में वे गुंडागर्दी करने लगते थे। उनका प्रमुख सिद्धांत था, ‘‘हमें भी खिलाओ, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे।’’ वे गुल्ली या गेंद उठाकर भाग जाते थे या उसे नाली में डाल देते थे। हमने कई बार उन्हें पीटा; पर उनका स्वभाव नहीं बदला। झक मार कर हमें उन्हें खेल में शामिल करना ही पड़ता था। आखिर थे तो वो हमारे साथ पढ़ने वाले दोस्त ही। 

कुछ ऐसा ही मामला पिछले दिनों उ.प्र. में हुआ। बड़े नेताओं के साथ एक बीमारी है कि वे भूतपूर्व होने पर भी इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते। वे मान भी लें, तो उनके समर्थक उन्हें बल्ली पर चढ़ाये रहते हैं। भारत में विधायक, सांसद, मंत्रियों आदि को राजधानी में घर दिये जाते हैं। कहने को तो यहां जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार होती है; पर मंत्री बनते ही नेता जी जमीन से कई फुट ऊपर चलने लगते हैं। फिर जनता को उनसे मिलने के लिए पैरों में बल्लियां लगानी पड़ती हैं। तब भी वे मिल जाएं, तो गनीमत। इसके बाद मंत्री जी जमीन पर चुनाव से पहले ही उतरते हैं। और यदि वे मुख्यमंत्री हों, तब तो कहना ही क्या ?

लेकिन चुनाव में तो हार और जीत दोनों ही होती हैं। जीत गये तो ठीक; पर हारे तो आलीशान घर, कार और सुरक्षा का तामझाम छोड़ना पड़ता है। बस यही मंत्री जी के दुख का कारण बन जाता है। वे तरह-तरह के कारण बताते हैं, जिससे वह कोठी न छूटे। कभी मां-बाप की बीमारी, तो कभी बच्चों की पढ़ाई। कभी स्वयं की सुरक्षा, तो कभी पार्टी की जिम्मेदारी। और कुछ नहीं, तो दादागिरी; कि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। हो सकता है अगली बार फिर हम ही आ जाएं।

लेकिन इस बार उ.प्र. में नेताओं की इस खानदानी दादागिरी से दुखी कई लोग कोर्ट में चले गये। क्योंकि कई नेताओं ने एक नहीं, दो या तीन कोठियां कब्जा रखी हैं। कुछ ने अपने राजनीतिक पूर्वजों के नाम पर न्यास बनाकर उसे कब्जाने का प्रबंध कर लिया; पर कोर्ट ने साफ कह दिया कि मंत्री हो या मुख्यमंत्री, भूतपूर्व होते ही उसे छह महीने के अंदर अपना सरकारी घर खाली करना होगा।

कुछ ने तो कोर्ट की बात मान ली; पर शर्मा जी के कुछ अवतार वहां भी हैं। ‘‘हमें भी खिलाओ, नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे’’ उनका सूत्र वाक्य है। ऐसे ही एक बबुआ ने तय कर लिया कि घर छोड़ने से पहले उसे ‘भूत बंगला’ बना दिया जाए, जिससे कोई उसमें रहने का साहस न कर सके। घर बनाने, सजाने और संवारने के लिए तो कई विशेषज्ञ महीनों तक काम करते हैं; पर भूत बंगला बनाने में किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होती। बबुआ ने अपने ‘विध्वंस दल’ की मीटिंग वहां बुला ली। उन्होंने लंका की ‘अशोक वाटिका’ की तरह कुछ तोड़ा, कुछ उखाड़ा और बाकी को उजाड़ दिया।  

कोई चाहे जो कहे; पर नेता जी ने मकान तो खाली कर ही दिया। अब वर्तमान सरकार जाने और उसके पदाधिकारी। ऐसे में मुझे फिर शर्मा जी याद आये। एक बार उनका स्थानांतरण शहर से बाहर हो गया। उन्होंने दफ्तर के पास ही वर्मा जी का मकान किराये पर ले लिया; पर दो महीने में ही उनकी हरकतों से वर्मा जी दुखी हो गये। उन्होंने कई बार शर्मा जी से मकान छोड़ने को कहा; पर शर्मा जी कहां मानने वाले थे ? झक मारकर वर्मा जी ने कहा कि आपने जो किराया मुझे दिया है, वह मैं लौटाने को तैयार हूं; पर मुझे मकान वापस चाहिए। शर्मा जी ठहरे पुराने खिलाड़ी। उन्होंने किराया वापस लिया और मकान को अंदर से कोलतार से पुतवाकर छोड़ दिया।

तब से आजतक वर्मा जी ने किसी को अपना मकान किराये पर नहीं दिया।

-विजय कुमार

(निदेशक, विश्व संवाद केन्द्र, देहरादून)

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