रोचक व्यंग्य रचनाओं का अनूठा गुलदस्ता (पुस्तक समीक्षा)

book review

रचनाओं का सिंहावलोकन करें तो... चाहे आउट-सोर्सिंग के माध्यम से आत्माओं की शिफ्टिंग के कार्य में गड़बड़ी हो या खेलमंत्री जी के पत्र के माध्यम खेल-जगत में व्याप्त राजनीति का कच्चा-चिट्ठा खोल रहे हों...

देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में श्री दीपक गिरकर की व्यंग्य रचनाएँ निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। “बंटी, बबली और बाबूजी का बटुआ” लेखक का पहला व्यंग्य संग्रह है जो इस इस वर्ष रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुआ है। 'व्यंग्य की चमक'- लगभग चार दर्जन व्यंग्य रचनाओं के इस गुलदस्ते को पढ़ते हुए यह सटीक ही लगता है, जब वरिष्ठ साहित्यकार, सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार, भाषाविद आदरणीय डॉ. सुरेश कांत इस व्यंग्य संग्रह की विस्तृत भूमिका में इसे 'व्यंग्य की चमक' नाम देते हैं। दीपक गिरकर बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े रहे हैं, ऐसे में इनकी रचनाओं में इनके कार्यक्षेत्र के बृहद अनुभवों का प्रभाव आना स्वाभाविक भी है। लेखक ने अपनी व्यंग्य रचनाओं में मुख्यतया फैंटेसी, अतिशयोक्ति और पैरोडी शैली का प्रयोग किया है।... व्यंग्य की यही तो खूबी है... 'देखन में छोटे लगे घाव करे गम्भीर'... की तर्ज पर समाज की वर्तमान विसंगतियों, विडम्बनाओं को लक्ष्य करते, बड़ी से बड़ी बात बिम्ब, प्रतीकों के माध्यम से कह दी जाती है। इस दृष्टिकोण से रचनाकार अपनी बात कहने में सफल हैं।

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रचनाओं का सिंहावलोकन करें तो... चाहे आउट-सोर्सिंग के माध्यम से आत्माओं की शिफ्टिंग के कार्य में गड़बड़ी हो या खेलमंत्री जी के पत्र के माध्यम खेल-जगत में व्याप्त राजनीति का कच्चा-चिट्ठा खोल रहे हों या ऐसे ही जब आंतरिक संकट के लिए बाहरी तत्वों पर जिम्मेदारी डालकर पल्ला झाड़ने का मसला हो, सम-सामयिक विषयों का विक्रम-बेताल की कहानी के माध्यम दिलचस्प बनाने का प्रसंग हो, बैंकिंग जगत में ऋण-वसूली के हथकण्डों की बातें हो, रंग बदलने में गिरगिट के भी कान काटने वाले इंसान की बातें हों, जुगाड़ संस्कृति के इफेक्ट्स, साइड-इफ़ेक्ट्स की बातें हों या बतर्ज... 'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' के सदृश ऋण लेकर ऋण न चुकाने की आदत हो, हॉर्स-ट्रेडिंग, रिजॉर्ट राजनीति, स्कूलों में शोषण झेलने के लिए मजबूर पैरेंट्स की व्यथा-कथा की विसंगतिपूर्ण घटनाएं हों या जब विशेष श्रेणी के अपराधी जेल को पिकनिक-स्पॉट समझते हों, कम समय में अधिक आहार पेट में डालने के वाले घोटालेबाज, ढोंगी-बाबा लोगों के जुगाली-प्रसंग हों या उनके कमरदर्द की फिजियोथेरेपी हो, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर सदृश... तनाव मुक्ति के लिए गर्दभ-थेरेपी की बात हो, सपने में आये विचारों के चोरी की घटना हो या ख़बरों में रहने वाले वायरलबाजों को जब सचमुच वायरल हो जाय तो क्या मंजर होता है, जैसे विषयों पर मारक व सटीक व्यंग्य रचा गया है।

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वे आगे ये भी बताते हैं... जिस तरह हर घटना को इवेंट बनाकर परोसा जा रहा है, ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि रिटायरमेंट प्लान की तरह हमें अंतिम संस्कार के लिए भी कहीं प्री-पेड योजना न लेनी पड़ जाय। आगे पढ़ें तो... जहाँ एक तरफ सेंसेक्स और नई दुल्हन का दिलचस्प तुलनात्मक अध्ययन किया गया है तो दूसरी तरफ बयानवीरों और 'डिनर-डिप्लोमेसी' की महीन व्याख्या भी की गई है। कार्य-स्थल पर वर्षों जमे रहने के गुर के साथ उनके कारणों, बारम्बार स्थानांतरण का दंश झेलने वालों की व्यथा-कथा के साथ-साथ इकत्तीस मार्च एक त्यौहार की तरह क्यों है, सरकारी बंगलों के क्या जलवे होते हैं, की विशद और गहन पड़ताल भी व्यंग्यकार करते चलते हैं। पुस्तक में ये जानकारी भी मिलती है कि समय व आवश्यकतानुसार अब कवियों, साहित्यकारों, भिखारियों, पण्डों, कतिपय दुकानदारों आदि या समय-असमय के ऐसे किन्हीं भी विघ्न-संतोषियों से पिंड छुड़ाने वास्ते एक हजार नायाब तरीके बताने वाली 'शर्तिया इलाज' किताब भी अब आ गयी है, जिसके लिए लेखक से मिलना होगा। कृपया उनके पते पर सम्पर्क करें।

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राजनैतिक, सामाजिक, सार्वजनिक और आर्थिक...लगभग हर क्षेत्र की विद्रुपताओं, विसंगतियों पर व्यंग्यकार की पारखी नज़र गयी है। निश्चय ही इस तुमुल कोलाहल पल में राहत देती ये व्यंग्य रचनाएं सुकून देती है। आबालवृद्ध सभी के पढ़ने योग्य, अवश्य पढ़ी जानी चाहिए। लेखक, प्रकाशक को एक रोचक व्यंग्य संग्रह प्रस्तुत करने के लिए बहुत-बहुत बधाई। हार्दिक शुभकामनाएं।

पुस्तकः बंटी, बबली और बाबूजी का बटुआ (व्यंग्य संग्रह)

लेखकः श्री दीपक गिरकर

प्रकाशकः रश्मि प्रकाशन, 204 सनशाइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4 कृष्णा नगर, लखनऊ- 226023

मूल्यः 175 रुपये

समीक्षकः राम नगीना मौर्य

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