बुढ़ापे में वैलेंटाइन (सामयिक व्यंग्य)

Valentines in old age (occasional satire)

उम्र के सातवें दशक की दहलीज पर खड़े रामविभूति सिंह ने वैलेंटाइन डे की पूर्व संध्या पर अपनी अर्द्धांगिनी सुहासिनी का हाथ होले से दबाते हुए कहा- कल अपुन भी घूमने चलते हैं- किसी पार्क में बैठेंगे.. मॉल में घूमेंगे।

उम्र के सातवें दशक की दहलीज पर खड़े रामविभूति सिंह ने वैलेंटाइन डे की पूर्व संध्या पर अपनी अर्द्धांगिनी सुहासिनी का हाथ होले से दबाते हुए कहा- "कल अपुन भी घूमने चलते हैं-- किसी पार्क में बैठेंगे.. मॉल में घूमेंगे.. सनी लियोनी या इमरान हाशमी की कोई फ़िल्म देखेंगे-- पूरा दिन इंजॉय करेंगे.. इतवारीलाल की चाट खाएँगे और चौक में जाकर फत्तेलाल की क़ुल्फ़ी फ़ालूदा को भी टेस्ट करेंगे.."

पत्नी सकुचाई, लजाई और हाथ छुड़ाने का दिखावटी प्रयत्न करते हुए बोली- "इस उमर में यह सब करना क्या शोभा देगा.. नाती-पोते वाले हो गए हो-- जब चलने के दिन थे तो चले नहीं.."

"इसलिए अब चलते हैं.. पता नहीं फिर जा पाए या नहीं.. हसरत मन में लिए विदा हो गए तो अगले जन्म का इंतजार करना पड़ेगा"

"आप सठिया गए हैं कुछ भी बोलते हैं" -सुहासिनी की इस प्यारी झिड़की से वह आश्वस्त हो गए कि कल का उनका प्लान सेंट परसेंट एप्रूव्ड है।

दोनों सुबह-सुबह ही घर से टहलते हुए एकांत पार्क आ गए.. वहाँ काफी गहमागहमी थी। फूल की दुकान पर काफ़ी भीड़ थी.. एक गुलाब का फूल दो सौ रुपए में बेंचा जा रहा था। उन्होंने भी एक ले लिया। क़ीमत सुन सुहासिनी तुनक गई- "सचमुच आप खिसक गए हो.. क्या ज़रूरत थी पैसे बहाने की"

रामविभूति जी भूतकाल में जा पहुँचे बोले- "अरे पगली.. याद करो जब हम अपनी शादी की दूसरी सालगिरह पर बसंत पंचमी के दिन गांधी उद्यान में गुलाब प्रदर्शनी देखने गए थे और तुम्हें काला गुलाब पसंद आया था लेकिन तब तुमने गोदी में सो रहे चिंकू की ओर देखते हुए तीन रुपए भी नहीं ख़र्च करने दिए थे.. हम कितने शर्मिंदा हुए थे अपनी लाचारी पर.. सुनते हैं अब तो प्रदर्शनी भी नहीं लगती.. सारे गुलाब इसी दिन तोड़ लिए जाते हैं और पेड़ों पर केवल काँटे रह जाते हैं चुभने के लिए।"

"हाँ सब याद है .. यदि हम हिसाब किताब से न चले होते तो क्या हमारा चिंकू आईआईटी में पढ़ पाता और इतना बड़ा अफ़सर बन पाता.. वह भी आपकी तरह बैंक में बाबूगिरी करता या कैशियर होता।"

दोनों ने पार्क के किनारे पर खड़े होकर नज़र घुमाई.. पार्क के हर कोने में जोड़ियाँ प्रेम के लेनदेन मे व्यस्त थीं। दोनों ने भी एक दूसरे का हाथ थाम लिया। कुछ क़दम चले ही थे कि किसी टपोरी टाइप के दिलजले आशिक की आवाज़ उनके कानों में पड़ी.. "कमाल है भाई .. ठूँठ में भी कोंपलें फूट पड़ी हैं।"

दोनों अनसुना कर पार्क से बाहर निकल आए और सड़क किनारे लगी एक बेंच पर बैठ गए। रामविभूति जी दुखी मन से बोले- "सुसी.. मेरे कारण तुम्हें कितनी पीड़ादायी बातें सुनने को मिलीं। मुझे माफ़ कर दो।"

"नहीं जी.. वो कौन सा अपना था जिसकी बातें सुनकर दुख होता.. दुख तो उस दिन हुआ था जब चिंकू के बॉस घर पर डिनर पर आए थे और उसने आपसे अपने कमरे में ही रहने के लिए कहा था।" -कहते हुए सुहासिनी की आँखें छलछला आईं।

"अरे वो तो हम भी कहाँ उनसे मिलना चाहते थे.. बड़े लोगों में उठने बैठने के तौर तरीक़े भी हमें कहाँ आते हैं.. पर हाँ.. बहू पर ज़रूर मुझे ग़ुस्सा आया था.. डिनर के लिए तुमने कितने स्वादिष्ट पकवान बनाए थे ..सब तारीफ़ कर रहे थे.. लेकिन बहू ने यह कहकर कि महाराजिन ने बनाए हैं तुम्हारा अपमान किया था..।"

"सब याद है मुझे.. आपकी तो आदत है हर छोटी छोटी बात पर पारा चढ़ाने की.. आप तो सब छोड़कर वापस गाँव चलने को तैयार थे.. आपने ये भी नहीं सोचा था कि विचारे बिट्टू का क्या होगा.. जन्म से ही वह हमसे कितना हिलामिला है.. हमारे बिना वह ज़रा सी देर भी नहीं रहता है।"

"हाँ.. मुझे जल्दी ग़ुस्सा आ जाता है.. तुम्हारे जितनी सहनशीलता नहीं है.. चिंकू हमारी इकलौती संतान है.. उसकी सही परवरिश हो.. इसके लिए तुमने दूसरी औलाद की भी इच्छा नहीं की.. चिंकू की शादी भी उसकी मर्ज़ी से की.. जब वह तुम्हारी उपेक्षा करता है तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है.. तुमने दो साड़ियों में ज़िंदगी गुज़ार दी.. किराया लगेगा..सोचकर सालों मायके नहीं गई.. बहू गर्भवती हुई तो दिनरात तुम उसकी सेवा में लगी रहीं.. पर उसने कभी तुम्हें एक कप चाय भी बनाकर नहीं पिलाई.. उस समय भी नहीं जब दो दिन को तुम बीमार हो गई थी..।"

"बड़े घर से आई है.. नौकरी भी करती है.. थक जाती है.. हम तो घर पर ही रहते हैं..।"

"तुम भी साठ साल से ऊपर हो गई हो.. दिन भर बिट्टू कितना दौड़ाता है तुम्हें.. क्या मुझे मालूम नहीं.. रोज रात में मुझसे छुपाकर अपनी कमर सेंकती रहती हो.. और कहती हो कि तुम थकती नहीं हो।"

"आप अब भी बड़े वो हो .. सब छुप छुप कर देखते रहते हो.. ताकाझांकी की आदत गई नहीं अब तक..।"

कुछ देर चुप्पी छाई रही। सुहासिनी बोली- "इस जुलाई से बिट्टू भी प्ले स्कूल में जाएगा.. मैंने बहू को चिंकू से कहते सुना था।"

"अच्छा.. पर हमें तो किसी ने बताया नहीं.. क्या हम सचमुच में आउट ऑफ़ डेट हो गए हैं।"

"आप ऐसा क्यूँ सोचते हैं.. बिट्टू स्कूल जाएगा तो उसे भेजने लाने का ज़िम्मा तो आपका ही रहेगा.. जब समय आएगा तो दोनों आपको बताएँगे भी और समझाएँगे भी।"

"अब मुझे क्या समझाएँगे.. क्या चिंकू अपने आप पढ़कर बड़ा हो गया।"

"आप भी बात का कितना ग़लत अर्थ निकाल लेते हैं.. आपकी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं है न.. इसलिए भी आपको स्कूल के नियम क़ायदे जानना ज़रूरी हैं कि नहीं।"

"तुम मुझे हर बार निरुत्तर कर देती हो.. पर हमने भी तो चिंकू को कान्वेण्ट स्कूल में ही पढ़ाया है।"

"सॉरी.. माफ़ करो मुझे"

दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े। कुछ दूरी पर एक फेरीवाला आवाज़ लगा रहा था- चने ज़ोर गरम। रामविभूति जी ने घड़ी देखी.. शाम के छ: बज रहे थे। उन्होंने चने की एक पुड़िया ली और दोनों एक-एक चना चबाते हुए घर की ओर चल दिए।

- अरुण अर्णव खरे

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