कब आयेगा वह दिन जब अपनी भाषा में मिलने लगेगा न्याय?

When will the day come when justice given in Hindi

कभी सोचा है कि अपनी विशाल प्राचीन संस्कृति के रहते भी भारत के लोग एक पिद्दी से देश इंग्लैंड को महान क्यों मानते हैं, जबकि उसके पड़ोसी फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, इटली इत्यादि उसकी ज्यादा परवाह नहीं करते।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश की न्याय व्यवस्था के लिए सुझाव दिया है कि न्यायालय को अपने निर्णय स्थानीय एवं हिंदी भाषा में देने चाहिए। इस दिशा में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कदम भी बढ़ा दिए हैं, जो सराहनीय है। अब अन्य न्यायालयों की बारी है। गौरतलब है कि देश में आज भी 95 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो अंग्रेजी बोलने और समझने में पूरी तरह से असमर्थ हैं, इसके बावजूद हमारे देश के अधिकतर कामकाजी दफ्तरों में अंग्रेजी का ही प्रचलन है। उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज और फैसले सारे अंग्रेजी में ही होते हैं जिसका प्रभाव इन 95 प्रतिशत लोगों पर पड़ता है। इन लोगों को पूरी तरह से वकील अथवा अधिकारियों पर निर्भर रहना पड़ता है। अतः वादी तथा प्रतिवादी दोनों को आगे की प्रक्रिया समझने में काफी दिक्कत होती है अथवा समझ ही नहीं आती।

आज भारत ही नहीं विदेश भी हिन्दी भाषा को अपना रहे हैं तो फिर हम देश में रहकर भी अपनी भाषा को बढ़ावा देने के बजाय उसको खत्म करने पर क्यों तुले हैं ? सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई भारत सरकार की राजभाषा में क्यों नहीं ? भारत के संविधान में लिखा है कि अंग्रेजी सिर्फ राजभाषा को सहयोग करेगी। देश के संवैधानिक पद पर बैठने वालों के लिए भारत सरकार की राजभाषा जानना अनिवार्य क्यों नहीं होना चाहिए ? हमारा देश भी गजब है ! सजा सुनाई जाती है, जिरह किये जाते हैं पर दोषी और दोष लगाने वाले को यह पता ही नहीं चलता कि यह लोग क्या बहस कर रहे हैं। कभी कोर्ट में जाकर देखें इन सब पर दया आती है। कटघरे में खड़े कभी अपने वकील कभी विपक्षी वकील तो कभी जज को देखते रहते हैं। बाहर आकर पूछते हैं क्या हुआ ? इस अवस्था को हम क्या न्याय मानेंगे ? आजादी के समय यह निर्णय लिया गया था कि सन् 1965 तक अंग्रेजी को काम में लिया जायेगा। इसके पश्चात् इसे हटा दिया जायेगा और हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दे दिया जायेगा। परंतु सन् 1963 के राजभाषा अधिनियम के तहत हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी शामिल कर लिया गया। विश्व में अनेक देश जैसे- इंग्लैंड, अमेरिका, जापान, चीन और जर्मन आदि अपनी भाषा पर गर्व महसूस करते हैं तो हम क्यों नही ?

हमें समझना होगा कि भाषा का बहुत बड़ा "मार्केट" होता है। इसमें सिर्फ किताबें-उपन्यास ही नहीं, उद्योग, कला, विज्ञापन, अखबार, टीवी कार्यक्रम, फिल्में, पर्यटन, संस्कृति, धर्म, खान-पान, रहन-सहन, विचारधारा, आंदोलन और राजनीति भी शामिल है। अगर एक वर्ष के लिए ही भारत जैसे विकासशील देश अंग्रेजी पर रोक लगा दें तो अमरीका और इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था चरमरा सकती है। भारत में अंग्रेजी जितनी फायदेमंद भारतीयों के लिए मानी जाती है, उससे हज़ार गुना ज्यादा लाभ अमरीका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा के लिए भारत से कमा लेती है। कभी सोचा है कि अपनी विशाल प्राचीन संस्कृति के रहते भी भारत के लोग एक पिद्दी से देश इंग्लैंड को महान क्यों मानते हैं, जबकि उसके पड़ोसी फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड, स्पेन, पुर्तगाल, इटली इत्यादि उसकी ज्यादा परवाह नहीं करते। इसका कारण है, हमने इंग्लैंड की भाषा को महान मान लिया, लेकिन उसके पड़ोसियों ने नहीं माना। आज चीन, रूस, जर्मनी, जापान पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अमेरिका से प्रतिद्वंद्विता कर रहे हैं, उसी विज्ञान और तकनीकी में, जिसमें अंग्रेजी नहीं बोलने-लिखने वाले समाज पिछड़ जाने चाहिए थे। इनसे यह स्पष्ट है कि अंग्रेजी का ज्ञान होना तरक्की के लिए जरूरी तो नहीं है। 

लेकिन फिर भी हमारे देश के कुलीन "इलीट" बार बार अपनी मातृभाषा बचाने के बहाने हिंदी का विरोध क्यों करते हैं, जबकि अंग्रेजी के खिलाफ एक शब्द भी वो सुनना नहीं चाहते। इसका कारण है, हिंदी ने देश के सभी प्रान्तों के गरीबों को ताकत दी है, हिंदी के सहारे पूर्वोत्तर के गरीब बंगलुरु या हैदराबाद में काम कर रहे हैं, और ओडिशा व बंगाल के गरीब मुम्बई या सूरत में काम कर रहे हैं और गरीबी से बाहर आ रहे हैं। उसी तरह ग्रामीण परिवेश के लोग हिंदी के सहारे अन्य प्रदेशों में व्यापारिक सम्बन्ध बनाकर अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति उन्नत कर रहे हैं। अंग्रेजी के सहारे ऊँची कमाई वाली नौकरियों, पदों और काम-धंधों पर एकाधिकार रखने वाले वर्ग को हिंदी बोलने वाले ऐसे "छोटे" लोगों की प्रगति सहन नहीं हो रही है। इसी कारण कभी बेंगलुरु के मेट्रो स्टेशनों पर कन्नड़ व अंग्रेजी के साथ हिंदी में साइनबोर्ड लगाने का विरोध होता है और कभी ओडिशा की पूर्व मुख्यमंत्री के सांसद बेटे को हिंदी में पत्र मिलने पर बहुत तकलीफ होती है। आखिर उनकी अंग्रेजी का मार्केट हिंदी के पास जा रहा है।

अगर हम हिंदी के लिये गम्भीर होकर हिंदी भाषा को उसका देश में सर्वोच्च स्थान दिलाना चाहते हैं तो इसके लिये हमारे राजनैतिक नेतृत्व को राष्ट्रभाषा के रूप में सभी संवैधानिक संस्थाओं को प्रथम भाषा के रूप में हिंदी को अपनाने पर जोर देना होगा और राष्ट्र के तीन प्रमुख स्तम्भ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को अंग्रेजी को एलीट क्लास समझने की मानसिकता से बाहर आना होगा। सभी राज्यों के उच्च न्यायालय में उस राज्य की राजभाषा और देश की राजभाषा में सुनवाई होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी हो बहस तथा फैसले हों। सभी फैसले की कॉपी उनकी भाषाओँ में देनी चाहिए। जिस दिन भारत का सर्वोच्च न्यायालय नीतिगत फैसले हिंदी में देना शुरू कर देगा, आम नागरिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता का स्तर आज के मुकाबले ज्यादा बढ़ जाएगा। क्योंकि अभी जनहित के अनेकों फैसले नौकरशाही की निष्क्रियता के कारण फाइलों में धूल खाते रहते हैं। यही हाल शिक्षा के क्षेत्र में है जहां सिर्फ अंग्रेजी में पिछड़े होने के कारण कई प्रतिभाएं निम्नतर समझने की मानसिकता के साथ दम तोड़ देती हैं। जबकि खेलों में मेट्रो शहरों की तुलना में छोटे शहरों से आने वाले खिलाड़ी खुद को बेहतर सिद्ध कर रहे हैं। जरूरत है इच्छाशक्ति की और जब आज हिंदी भाषी प्रधानमंत्री देश के पास है तो आजादी के 70 वर्ष बाद भी हिंदी को सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर कब मिलेगा ? 

- देवेंद्रराज सुथार

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