जब दुनिया छोड़ देती है साथ तब एक सच्चा दोस्त साथ देता है, रूस ने हर बार इस लाइन को सोलह आने सच करके दिखाया

Russia
अभिनय आकाश । Dec 4 2021 5:58PM

भारत को हालिया वर्ष में कई दूसरे दोस्त भी मिले हैं। लेकिन जैसे पुराने रिश्तों के बारे में कहा जाता है कि वो कभी टूटते नहीं उसी प्रकार ये रिश्ता भी कभी टूटा नहीं। भारत और रूस की दोस्ती की कहानी के 74 साल पूरे हो गए हैं।

अंग्रेजी की एक कहावत है "A real friend is one who walks in when the rest of the world walks out" यानी जब सारी दुनिया साथ छोड़ देती है तब एक सच्चा दोस्त आपका साथ देता है। भारत और रूस की वर्षों पुरानी दोस्ती पर ये बात बिल्कुल खरी उतरती है। रूस ने हर मौके और हर मोर्चे पर भारत का साथ दिया है। अपने कई बार अक्सर सुना होगा कि जब दो लोग एक-दूसरे के बारे में कहते हैं कि वो बचपन के दोस्त हैं। इसी प्रकार से रूस और भारत बचपन के दोस्त हैं और दोनों के बीच बहुत पुरानी दोस्ती है। इसमें कई उतार-चढ़ाव भी आए हैं। कई बार इस दोस्ती को परखा गया है। कई बार इस दोस्ती की परीक्षा ली गई है। भारत को हालिया वर्ष में कई दूसरे दोस्त भी मिले हैं। लेकिन जैसे पुराने रिश्तों के बारे में कहा जाता है कि वो कभी टूटते नहीं उसी प्रकार ये रिश्ता भी कभी टूटा नहीं। भारत और रूस की दोस्ती की कहानी के 74 साल पूरे हो गए हैं। भले ही वर्तमान में अमेरिका और भारत के बीच नजदीकियां बढ़ी हों लेकिन पुरानी दोस्ती को किसी नई ताकत के साथ तौलकर नहीं देखा जा सकता है। पिछले 74 सालों में अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य बदल गए, कई देश गृहयुद्ध की आग में झुलस गए और कई देशों के बीच रिश्तों में गिरावट आई, लेकिन भारत-रूस के रिश्तों में आज तक कोई खटास देखने को नहीं मिली। भारत की हर मुश्किल में रूस हमेशा ही साथ खड़ा रहा। आज के विश्लेषण में हम आपको जांचे, परखे और दोस्ती की हर कसौटी पर खरे उतरने वाले रूस के साथ भारत के संबंधों की पूरी कहानी बताएंगे। 

नेहरू की सोवियत यात्रा ने जोड़ी रिश्तों की गांठ

दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया दो हिस्सों में बंट चुकी थी। एक ओर सोवित रूस के समर्थन वाला साम्यवाद गुट और दूसरा अमेरिका की अगुवाई में पूंजीवादी देशों का समूह। भारत को उस वक्त नई-नई आजादी मिली थी। भारत शीत युद्ध के वक्त में सोवियत संघ और अमेरिका दोनों के साथ अच्छे रिश्ते बनाए रखना चाहता था। हालांकि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू सोवियत संघ से प्रभावित थे और वह समाजवाद के पक्षधर थे। भारत की आजादी के वर्षों से ही दोनों देशों के बीच के संबंध हैं। 13 अप्रैल 1947 को रूस (तत्कालीन सोवियत संघ) और भारत ने आधिकारिक तौर पर दिल्ली और मॉस्को में मिशन स्थापित करने का फैसला लिया था। रक्षा, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और औद्योगिक तकनीक जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में रूस का बड़ा योगदान रहा है। देश में विकास के लिए बुनियादी ढांचा खड़ा करने और उद्योग स्थापित करने के इरादे से 1955 में पंडित जवाहर लाल नेहरू सोवियत रूस की यात्रा पर गए। नेहरू ने सोवियत रूस की यात्रा 7 जून 1955 को शुरू की थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत रूस के इस शहर में बड़े पैमाने पर लोहा गलाकर स्टील बनाया जा रहा था। नेहरू द्वारा की गई सोवियत रूस की इस महायात्रा ने भारत-रूस के बीच दोस्ती के एक ऐसे रिश्ते की गांठ जोड़ी, जिस पर भारत और रूस आज तक इतराते हैं। भारत को रूस के करीब जाने में एक और चीज ने मददगार बनाया वो था पाकिस्तान का अमेरिका के करीब जाना। 1955 में साम्यवादी रूस ने आजाद भारत के पहले पीएम का दिल खोलकर स्वागत किया। जबर्दस्त खेमेबंदी के दौर में रूस को अपने साथ भारत जैसा विशाल देश मिला था जो साम्यवाद की विचारधारा के साथ चलने को तैयार था। तब भारत और सोवियत रूस के बीच दोस्ती इस कदर परवान चढ़ी थी कि नेहरू जून में सोवियत रूस गये, तो नवंबर में निकिता क्रुश्चेव रूस के प्रधानमंत्री निकोलाई बुलगैन के साथ भारत दौरे पर आ पहुंचे। 

जब रूस ने पूरी दुनिया के खिलाफ भारत का साथ दिया

1971 का वो साल जब पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए थे। पूरी दुनिया के सामने पाकिस्तान को भारत के सामने सरेंडर करना पड़ा था। लेकिन पाकिस्तान को हराना और उसके दो टुकड़े करना इतना आसान नहीं था। ये वो दौर था जब अमेरिका और दूसरे बड़े देश खिलाफ में खड़े हो गए थे। ये वो समय था जब पूरी दुनिया में भारत अकेला पड़ गया था। तब रूस ने भारत का साथ दिया और अपनी दोस्ती निभाई। हालांकि रूस और अमेरिका एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे हैं, ये भी एक बड़ा कारण था, जब रूस ने पूरी दुनिया के खिलाफ भारत का साथ दिया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे बड़े मिलिट्री सरेंडर के तहत पाकिस्तान ने भारतीय जवानों के सामने हथियार डाल दिए। अमेरिका इस लड़ाई में पाकिस्तान के साथ था वहीं वो इस लड़ाई में चीन को भी साथ मिलाकर भारत को दबाना चाहता था। उसे डर था कि कहीं ईस्ट पाकिस्तान की आजादी में भारत का हाथ रहा तो भारत बड़ी शक्ति बनकर उभरेगा। साथ ही एशिया में रूस का प्रभाव भी बढ़ने लगेगा। अमेरिका का पाकिस्तान का साथ दिए जाने का एक कारण ये भी था कि अमेरिका के बनाए दो मिलिट्री संगठनों का हिस्सा था। अमेरिका चीन के साथ मिलकर ईस्ट पाकिस्तान के मुद्दे पर भारत को दूर रखने के लिए दबाव बना रहा था। ऐसे में भारत सरकार ने एक कठोर कदम उठाते हुए 9 अगस्त को सोवियत संघ के साथ शांति, भाईचारे और सहयोग की संधि पर हस्ताक्षर किए। जिससे अमेरिका पूरी तरह से भारत के खिलाफ हो गया।  इस संधि के तुरंत बाद सोवियत संघ ने ऐलान किया था कि भारत पर हमला उसके ऊपर हमला माना जाएगा। 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया। 4 दिसंबर 1971 को इंदिरा देश में इमरजेंसी की घोषणा करते हुए इंदिरा सरकार ने सेना को पाकिस्तान का मुंहतोड़ जवाब देने को कहा। अमेरिका इस युद्ध में भारत को अलग-थलग करना चाहता था, इसलिए राष्ट्रपति निक्सन ने चीन को भारत से युद्ध के लिए उकसाया। लेकिन रूस चीन को पहले ही आगाह कर चुका था कि अगर उसने भारत पर आक्रमण किया तो उसे इसके परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। पाकिस्तान के सैनिक चीन के भारत पर आक्रमण की आस में लड़ रहे थे। लेकिन चीन ने इस लड़ाई में कभी भाग नहीं लिया। 9 दिसंबर को अमेरिका के राष्ट्रपति निक्सन ने एयरक्रॉफ्ट कॉरियर यूएसएस इंटरप्राइजेज को बंगाल की खाड़ी में भेज दिया। उस समय तक अमेरिका को लग रहा था कि चीन भारत पर अटैक करेगा। लेकिन चीन रूस की धमकी की वजह से युद्ध में नहीं कूदा। 10 दिसंबर को ब्रिटेन का एयरक्रॉफ्ट कॉरियर ईगल भी भारत को घेरने के इरादे से चल पड़ा। तब रूस अपने जहाजों के बेड़े के साथ बंगाल की खाड़ी में उतर जाता है और ब्रिटेन के एयरक्रॉफ्ट ईगल का मुकाबला करने के लिए अपनी न्यूक्लिर सबमरीन मिसाइल को भी उतार देता है। रूस के इस रूख को देखकर ब्रिटिश सेना पीछे हट जाती है। रूस अमेरिका के एयरक्रॉफ्ट कॉरियर का रास्ता भी पूरी तरह रोक लेता है। उनका एक ही लक्ष्य रहता है कि अमेरिकी जहाज किसी भी भारतीय मिलिट्री बेस को निशाना न बना सके। रूस की हर मिसाइल के निशाने पर अमेरिकी एयरक्रॉफ्ट था। रूस के मिलिट्री कमांडर अपने सबमरीन और जहाजों को अमेरिकी एयरक्रॉफ्ट के बिल्कुल करीब ले जाते हैं। ताकि अमेरिकी सैटेलाइट उन्हें अच्छे से देख लें और उन्हें अंदाजा हो जाए कि रूस अपने न्यूक्लियर सबमरीन के साथ उनके सामने है। इस तरह अमेरिका भी रूस के आक्रमक रवैये को देखकर वापस लौट जाता है। 

 संयुक्त राष्ट्र में भारत के लिए वीटो के साथ खड़ा रहा रूस

रूस ऐसा पहला देश था जिसने कश्मीर पर भारत के पक्ष में वीटो किया था। 1957 में जब कश्मीर पर पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पास कराने की कोशिश की तो रूस ने अपने वीटो का इस्तेमाल कर भारत का साथ दिया था। फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस ने 22 जून 1962 को अपने 100वें वीटो का इस्तेमाल कश्मीर मुद्दे पर भारत के समर्थन में किया था। दरअसल, सुरक्षा परिषद में आयरलैंड ने कश्मीर मसले को लेकर भारत के खिलाफ एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसका अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन (सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य) के अलावा आयरलैंड, चिली और वेनेजुएला ने समर्थन किया था। इससे पहले साल 1961 में भी रूस ने 99वें वीटो का इस्तेमाल भी भारत के लिए किया था. इस बार रूस का वीटो गोवा मसले पर भारत के पक्ष में था। कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाए जाने के बाद पाकिस्तान हर मुल्क के दरवाजे पर अपनी याचिका लेकर पहुंचा था। रूस के यहां से उसी दुत्कार के सिवा कुछ हासिल नहीं हुआ। हमें भारत की नीतियों पर शक नहीं, जिन्हें है, वे कश्मीर का दौरा करें। यह वक्तव्य रूस की ओर से तब आया है जब पाकिस्तान चीन के जरिये कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में उठाने की लगातार कोशिश में है। 

भारत ने भी बखूबी निभाई दोस्ती

1979 में जब रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया तो भारत ने रूस की आलोचना करने से इनकार कर दिया। भारत के इस कदम पर पश्चिम में बहुत हाय-तौबा भी मचा।  पश्चिम देशों ने भारत की यह कहकर आलोचना की कि आजादी का समर्थक होने के बावजूद भारत का दक्षिण एशिया देश पर हमले से दूरी बनाए रखना दोहरेपन के अलावा कुछ नहीं है। नई दिल्ली ने यूक्रेन और सीरिया संकट के समय यूएस और ईयू प्रतिबंधों को समर्थन देने के बजाए मॉस्को का साथ दिया।

दोस्ती का दम सुरक्षा का वादा

रूस और भारत के बीच दोस्ती दशकों पुरानी है। इस दमदार दोस्ती ने कई देशों की नींद भी उड़ाकर रख दी। रूस और भारत के बीच दुकानदार और खरीदार का रिश्ता नहीं है बल्कि एक सहयोगी और दोस्ती का रिश्ता है। रूस के साथ मिलकर भारत हथियारों का निर्माण कर रहा है। रूस हिन्दुस्तान को ऐसे-ऐसे विध्वंसक मुहैया करवा रहा है जिसकी काट दुनिया में किसी मुल्क के पास नहीं है। 

एस 400- जिसकी काट दुनिया के पास नहीं है।

ब्रह्मोस की रफ्तार का कोई तोड़ नहीं

टी-90 भीष्म टैंक का विध्वंसक वार से बचना आसान नहीं 

रॉकेट लॉन्चर बीएम-21 ग्रैंड गुस्ताखी करने वालों को खाक में मिला देता है

सुखोई छीन लेता है दुश्मनों की सांसे

भारतीय सेना के ये वो हथियार हैं जिनके आगे दुश्मन के होश उड़ जाते हैं। ये वो हथियार हैं जो दुश्मन के लिए काल है। रूस से भारत को ये जांबाज मिले हैं जो हर नापाक हरकत पर माकूल जवाब देने की ताकत रखते हैं। रिश्तों के नए दौर में हिन्दुस्तान नई ऊंचाईयों को छू रहा है। रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच रिश्ता खरीदार और विक्रेता से बदलकर एक सहयोगी के रूप में हो चुका है। रूस अब भारत के साथ मिलकर हथियारों का निर्माण भी करने में लगा है।  रक्षा क्षेत्र में भारत-रूस सहयोग को ‘मेक इन इंडिया’ पहल से जोड़कर द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊर्जा देने वाले कदम के रूप में देखा जा रहा है। 2018 में रूसी राष्ट्रपति पुतिन के भारत दौरे में साढ़े सात लाख एके-203 राइफलें भारत में बनाने का सौदा हुआ।  सत्तर हजार एके-203 राइफल रूस से सीधी खरीदी जा रही हैं। वहीं भारत और रूस संयुक्त उपक्रम उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले में एक उत्पादन इकाई में 10 साल के भीतर 6 लाख से ज्यादा ‘एके 203’राइफलों का निर्माण किया जाएगा।  भारत के 80 प्रतिशत से ज्यादा सैन्य उपकरण रूस से ही खरीदे जाते हैं। रूस के साथ भारत का रक्षा सौदा एस-400 और एके-203 राइफल तक ही सीमित नहीं है। रूस की तरफ से भारत की तीनों सेनाओं के लिए रक्षा उपकरण मुहैया कराई जाती है। भारतीय वायु सेना के रूसी मिग-29 और सुखोई-30 इसके कुछ जीवंत उदाहरण हैं। नौ सेना की बात करें तो रूसी जेट और पोत भी उसके बेड़े में शामिल हैं। हालिया वक्त में रूस से परमाणु शक्ति से लैस सबमरीन का भी ऑर्डर भारत की तरफ से दिया गया है। कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत और रूस के बीच एक मजबूत रक्षा सहयोग है। स्‍टाकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, 2010 से 2019 तक रूस ने अपने हथ‍ियार निर्यात का एक-तिहाई हिस्‍सा भारत को बेचा है। वर्तमान दौर में जल, थल और आसमान में हिन्दुस्तान की ताकत का कोई सानी नहीं है। भारतीय जवानों के साथ कदम से कदम मिलते हैं तो  दुश्मन के दिल हिलते हैं। सेना के ये हथियार जब रणभूमि में उतरते हैं तो दुश्मन थर्र-थर्र कांपने लगता है। आज भारत की सेना और उसकी ताकत पर हर देशवासी अभिमान करता है। 

हालांकि अतीत की भावुकता से किसी देश की विदेश नीति नहीं चल सकती है। भारत खुद को वैश्विक ताकत के तौर पर स्थापित करना चाह रहा है और ऐसे में यूएस-रूस औऱ चीन के के साथ रिश्तों में फिर से संतुलित करना भारत की जरूरत है। रूसी राष्ट्रपति के दिल्ली दौरे से भारत इस रिश्ते को नया आयाम देना चाहेगा। 2014 से अब तक 19 बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की मुलाकात हुई हैं और हर दिन एक नया अध्याय जोड़ा जा रहा है।  वैश्विक भू-राजनीतिक समीकरणों के बदलने के बावजूद भारत रूस से अपनी दोस्ती बनाए रखना चाहेगा। दूसरी तरफ, रूस भी भारत के साथ भावनात्मक रिश्ते को अपने पक्ष में जारी रखना चाहेगा। केवल ऐसा नहीं है कि रूस की जरूरत सिर्फ और सिर्फ भारत को ही है, बल्कि ये वाइस वर्सा है।  

-अभिनय आकाश

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