सरदार पटेल ही नहीं राजेंद्र प्रसाद और टंडन को भी नहीं चाहते थे नेहरू
पटेल पहले पीएम होते तो... से शुरू होने वाले बेशुमार वाक्य और कपोरकल्पनाओं के जरिए कई दावे गूगल पर आपको मिल जाएंगे। कहने की बात ये कि कई बड़े तबके के लोग नेहरू और पटेल को ऐसी तलवारे मानता है जो एक मयान में समा नहीं सकती थी।
सरदार को लेकर भाजपा और कांग्रेस में लगातार संग्राम होता रहा है। इसके पीछे की वजह इतिहास के पन्ने भी हैं। जहां एक पार्टी में रहते हुए भी जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल कई मुद्दों पर अलग-अलग राय रखते थे। लगभग छह दशक पहले दुनिया को अलविदा कह चुके लौह पुरूष को विरासत के दावेदार उन्हें अपने खेमों का सरदार बताते हैं। सरदार वल्लभ भाई पटेल एक ऐसा किरदार जिनके जिक्र के बिना न तो भारतीय इतिहास की आजादी की कहानी पूरी होती है और न ही आधुनिक भारत के मौजूदा ढांचे की परिकल्पना। महान सम्राटों से लेकर विदेशी आतातायियों तक, विस्तारवाद से लेकर साम्राज्यवाद तक इस देश ने सबकुछ देखा और झेला। लेकिन एक सरदार ने कुछ महीनों में वो कर दिखाया, जो शताब्दियों में नहीं हो पाया। आजादी के बाद जिस भारत का सपना देखा जा रहा था, वो इतने टुकड़ों में बंटा हुआ था जिसे एक कर पाना बेहद मुश्किल था। लेकिन सरदार के लौह इरादों ने खंड-खंड भारत को अखंड कर दिखाया। सरदार पटेल के कद को समझ पाना शायद ही संभव हो लेकिन इस कृतज्ञ राष्ट्र ने उनकी दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा बनाकर अपनी श्रद्धांजलि दी है। सरदार पटेल ने अपनी व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं को दरकिनार कर देश को हमेशा प्राथमिकता दी। उन्होंने अपनी पार्टी को एक रखा, देश की एकता से कभी समझौता नहीं किया। ये कहानी उन चार वर्षों की है जब देश के दो कर्णधार सरदार वल्लभ भाई पटेल और नेहरू अपने-अपने तरीके से देश का भविष्य तय करने में लगे थे।
नेहरू बनाम पटेल
पटेल पहले पीएम होते तो... से शुरू होने वाले बेशुमार वाक्य और कपोरकल्पनाओं के जरिए कई दावे गूगल पर आपको मिल जाएंगे। कहने की बात ये कि कई बड़े तबके के लोग नेहरू और पटेल को ऐसी तलवारे मानता है जो एक मयान में समा नहीं सकती थी।
एक किताब आई है वीपी मेनन की बायोग्राफी जो उनकी पड़पोती नारायणी बासु ने लिखी है। किताब का नाम है वीपी मेनन द अनसंग आर्किटेक्ट ऑफ मॉडर्न इंडिया। जिसे लेकर नेहरू औऱ पटेल को एक बार फिर आमने-सामने खड़ा कर दिया है। सबसे पहले आपको चार लाइनों में बता देते हैं कि
वीपी मेनन थे कौंन?
वीपी मेनन का पूरा नाम वाप्पला पंगुन्नि मेनन था। वीपी मेनन अंग्रेजों के जमाने के प्रशासनिक अधिकारी रहे थे। उन्होंने कई वाॅयसराय के नेतृत्व में काम किया। बंटवारे के वक्त और खासतौर से रियासतों के भारत में विलय के वक्त उनकी भूमिका काफी अहम रही थी। मेनन ने ही जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और माउन्ट बैटन को मुहम्मद अली जिन्ना की मांग के हिसाब से बंटवारे का प्रस्ताव रखा। स्वतंत्रता के बाद मेनन सरदार पटेल के अधीन राज्य मंत्रालय के सचिव बनाए गए थे। उन्होंने सरदार पटेल के साथ काफी अरसे तक काम किया और उसी साथ बिताए वक्त में से कुछ किस्से का जिक्र उनकी पड़पोती नारायणी बासु ने अपनी किताब में किया है, जिस पर बवाल मचा है।
मामला क्या है?
विदेशमंत्री एस जयशंकर ने नारायणी बसु द्वारा लिखी गई वीपी मेनन की जीवनी के विमोचन के बाद एक के बाद एक कई ट्वीट किए। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा कि वीपी मेनन की जीवनी से उन्होंने जाना कि 1947 में जवाहरलाल नेहरु सरदार पटेल को अपने कैबिनेट में जगह नहीं देना चाहते थे। साथ ही उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, 'नारायणी बसु की ओर से लिखी गई वीपी मेनन की जीवनी में पटेल के मेनन और नेहरू के मेनन में काफी विरोधाभास देखने को मिला। बहुत ही लंबे समय के बाद एक ऐतिहासिक पुरुष के साथ न्याय हुआ है।
Learnt from the book that Nehru did not want Patel in the Cabinet in 1947 and omitted him from the initial Cabinet list. Clearly, a subject for much debate. Noted that the author stood her ground on this revelation. pic.twitter.com/FelAMUZxFL
— Dr. S. Jaishankar (@DrSJaishankar) February 12, 2020
एस जयशंकर ने कहा कि उन्होंने किताब से जाना कि नेहरु नहीं चाहते थे कि पटेल उनके कैबिनेट का हिस्सा हों और नेहरु ने अपनी पहली लिस्ट से उनका नाम भी हटा दिया था। हालांकि लेखक का यह रहस्योद्घाटन एक बड़े विवाद का विषय है। साथ ही उन्होंने कहा कि राजनीति के इतिहास को लिखने के लिए हमें पूरी ईमानदारी की जरूरत होती है।
लेकिन, नेहरू और पटेल को लेकर लिखी यह बात इतिहासकार रामचंद्र गुहा को नागवार गुजरी। ट्वीट का जवाब ट्वीट से देते हुए गुहा ने जयशंकर के दावे को सरासर गलत बताया साथ में द प्रिंट की एक स्टोरी का लिंक भी लगाया। रामचंद्र गुहा ने ट्वीट किया, 'ये एक मिथक है जिसे द प्रिंट में प्रोफेसर श्रीनाथ राघवन ने विस्तार पूर्वक ध्वस्त किया है। इसके अलावा, फ़र्जी ख़बरों और आधुनिक भारत के निर्माताओं के बीच झूठी दुश्मनी की बात को बढ़ावा देना विदेश मंत्री का काम नहीं है। ये काम बीजेपी के आईटी सेल पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने 'द प्रिंट' की स्टोरी को ट्वीट करते हुए लिखा कि 1 अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल से कहा था, 'आप मंत्रिमंडल के सबसे मजबूत स्तंभ हैं।' इसके जवाब में पटेल ने लिखा था, 'आपको मेरी ओर से निर्विवाद निष्ठा और समर्पण मिलेगा. भारत में किसी भी व्यक्ति ने आपके जितना त्याग नहीं किया है।
This is a myth, that has been comprehensively demolished by Professor Srinath Raghavan in The Print.
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) February 13, 2020
Besides, promoting fake news about, and false rivalries between, the builders of modern India is not the job of the Foreign Minister. He should leave this to the BJP’s IT Cell. https://t.co/krAVzmaFkL
अब आपको बताते हैं कि क्या लिखा था श्रीनाथ राघवन ने अपने स्टोरी में
दरअसल, 12 फरवरी 2020 को अशोका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर श्रीनाथ राघवन ने ‘द प्रिंट’ में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने दावा किया है कि नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल के गठन में पटेल की सलाह ली थी। नेहरू पटेल के संपर्क में बने रहे, उनसे पूछा कि किसे इसमें शामिल किया जाए। इसके बाद नेहरू ने पटेल से यह भी अनुरोध किया कि वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी और आर. के. शनुमखम शेट्टी से भी बात करें। ये दोनों ही कांग्रेस से जुड़े हुए नहीं थे। नेहरू ने पटेल से यह भी आग्रह किया कि वह राजगोपालचारी को पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनने के लिए राजी करें।
राजेंद्र प्रसाद को भी नहीं चाहते थे नेहरू
कई तथ्य हैं जो बताते हैं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू अपने समकालीनों के प्रति असुरक्षा की भावना से ग्रस्त थे। केवल पटेल ही नहीं राजेंद्र प्रसाद को भी नेहरू उनकी जगह नहीं देखना चाहते थे। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति थे और संविधान सभा के अध्यक्ष भी थे। लेकिन, नेहरू नहीं चाहते थे कि वे राष्ट्रपति बनें। हालांकि नेहरू के विरोध के बावजूद वो 1950, 1952 और 1957 में लगातार तीन बार देश के राष्ट्रपति चुने गए। नेहरू का विचार था कि राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति होना चाहिए। पूर्व इंटेलिजेंस अफसर रहे आरएनपी सिंह ने अपनी किताब “नेहरू ए ट्रबल्ड लेगेसी” में पुराने वाक्ये का जिक्र करते हुए लिखा कि नेहरू राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने के लिए इतने उतावले थे कि इसके लिए उन्होंने झूठ बोलने से गुरेज नहीं किया। 10 सितम्बर, 1949 को नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद को एक खत लिखा जिसमें प्रसाद को अवगत कराया कि उन्होंने (नेहरू) सरदार पटेल से नए राष्ट्रपति के बारे में बात की और इस बातचीत में ये तय हुआ कि राजाजी को ही राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। राजेंद्र प्रसाद को सरदार पटेल का ये विचार हजम नहीं हुआ और उन्होंने इस बारे में पता करने की कोशिश की। अगले दिन उन्होंने नेहरू को जवाबी खत लिखा। उन्होंने साफ़ कहा कि पार्टी में उनकी हैसियत का खयाल रखते हुए उनके साथ बेहतर बर्ताव किया जाना चाहिए। उन्होंने इस खत की एक कॉपी सरदार पटेल को भी भेज दी। जब ये खत नेहरू की टेबल पर आया तो मामला फंसता देख नेहरू ने सफाई के तौर पर जवाबी खत लिखा। नेहरू ने लिखा कि 'जो भी मैंने लिखा था, उससे वल्लभभाई का कोई लेना-देना नहीं है। मैंने अपने अनुमान के आधार पर वो बात लिखी थी, वल्लभभाई को इस बारे में कुछ भी पता नहीं है।
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इतिहास को खंगालने पर आपको कई ऐसे तथ्य मिल जाएंगे। बीआर अंबेडकर और मोहम्मद अली जिन्ना की प्रतियोगिता महात्मा गाँधी से थी और वो उनकी आलोचना खुले तौर पर कई बार करते भी थे। लेकिन जवाहर लाल नेहरू का कांग्रेस में ही कई लोगों से कई मामलों में मतभेद था। यह मतभेद वैचारिक, नीतिगत और असुरक्षा के अंतर्गत था। सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे नेताओं का नज़रिया नेहरू से अलग था। कई अवसरों पर ये मतभेद सतह पर भी आए। पटेल और राजेंद्र प्रसाद का जिक्र हमने पहले किया। अब आपको इतिहास के एक और किरदार के बारे में बताते हैं जिसका कांग्रेस का अध्यक्ष बनना नेहरू को रास न आया और उन्हें त्यागना पड़ा था अपना पद।
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राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन- एक ऐसा नाम जिसने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की जड़ें मजबूत करने में अपनी ज़िंदगी लगा दी। यूपी के गांव-गांव में घूम कर निःस्वार्थ भाव से जिस तरह उन्होंने पार्टी की सेवा की थी, उनका लोकतान्त्रिक तरीके से कांग्रेस अध्यक्ष बनना शायद ही किसी को अखरता। लेकिन, कांग्रेस पार्टी का शायद यह दुर्भाग्य ही था कि राजर्षि का अध्यक्ष बनना ‘किसी’ को रास नहीं आया और उन ‘किसी’ का नाम था- जवाहरलाल नेहरू। राजर्षि टंडन के विचारों में भारतीयता और राष्ट्रवाद कूट-कूट कर भरा था, लेकिन वे पंडित जवाहर लाल नेहरू की पसंद नहीं थे। महेश चंद्र शर्मा की पुस्तक 'दीन दयाल उपाध्याय: कर्तव्य और विचार' में लिखा है कि अक्तूबर 1949 में जब नेहरू विदेश यात्रा पर थे तब सरदार पटेल ने अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए कांग्रेस की समिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों को सदस्य बनाने का प्रस्ताव पारित करा दिया। तब राजर्षि टंडन ने उस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा था, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीतिक संस्था नहीं है। उसके लोग कभी चुनावी झंझटों में पड़े नहीं हैं। वास्तव में जमीयते-उल-उलेमा जैसी सांप्रदायिक संस्था के लोग कांग्रेस में घुसे हुए हैं, उनको रोकना चाहिए। संघ का सांस्कृतिक दृष्टिकोण शास्त्रशुद्ध है।’ इस प्रस्ताव ने कांग्रेस में मतभेद पैदा किया और विदेश से वापस आते ही पंडित नेहरू ने इस प्रस्ताव को वापस ले लिया। प्रस्ताव वापस लिए जाने और पार्टी पर वर्चस्व को लेकर कांग्रेस का मतभेद तीव्र हो गया था। दरअसल 1950 में हुए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में पटेल समर्थित उम्मीदवार थे पुरुषोत्तम दास टंडन जबकि नेहरू ने आचार्य कृपलानी को समर्थन दिया था। कृपलानी की हार हुई और राजर्षि टंडन विजयी हुए। यह नेहरू की करारी हार थी। नेहरू इससे इतने क्षुब्ध थे कि वे कार्यसमिति तक में जाने से मना कर दिए थे। 1950 में पटेल अस्वस्थ हो रहे थे, दूसरी तरफ नेहरू के गुट ने कांग्रेस पर कब्जा करने जैसी स्थिति बना ली थी। आखिरकार राजर्षि टंडन ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। बता दें कि भारत रत्न से सम्मानित राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन का हिंदी को भारत की राषट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करवाने में महत्त्वपूर्ण योगदान था।
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जहां तक बात सरदार पटेल, नेहरू के बीच के संबंधों की है तो इसे लेकर भी जिक्र अकसर हो जाता है और इतिहास के हवाले से कई संदर्भ पेश किए जाते हैं। इन्हीं संदर्भों में एक वक्त ऐसा भी आया जब देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री में चिट्ठियों से बात होने लगी। फिर एक दिन प्रधानमंत्री के नाम ऐसी चिट्ठी आई जिसमें गृह मंत्री पटेल ने लिखा कि हम साथ-साथ काम नहीं कर सकते। नेहरू की डिप्लोमेसी पटेल को पसंद नहीं थी। यहां तक कि वो जवाहर लाल नेहरू की राय से इत्तेफाक न रखने पर अपनी नाखुशी साफ जाहिर कर देते थे। पटेल और नेहरू के रिश्ते उस वक्त भी मेलजोल भरे नहीं रहते थे, जब गांधी जी जिंदा थे। 6 जनवरी 1948 को गांधी जी के नाम नेहरू ने एक खत में लिखा था कि ये सच है कि सरदार पटेल और मेरे बीच न सिर्फ व्यावहारिक मतभेद हैं, बल्कि आर्थिक और संवैधानिक विषयों को भी देखने में भी हम भिन्न हैं। तब जवाब में पटेल ने भी गांधी को ही 16 जनवरी 1948 को एक पत्र लिखा था। ‘पूज्य बापू, जवाहर लाल का भार तो मुझसे भी ज्यादा है और वे अपने दुख अपने अंदर ही लेकर बैठे हैं। शायद अपने बुढ़ापे के कारण मैं उनके लिए ज्यादा काम का नहीं रह गया। ऐसी परिस्थिति में आप मुझे मेरी जिम्मेदारी से मुक्त कर दें तो ये देश और मेरे लिए लाभदायक होगा’। अब न नेहरू हैं न पटेल लेकिन उनके रिश्ते सियासत में हमेशा चर्चा में रहते हैं।
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