कवि से लेकर जननेता तक अटलजी की कविताओं का सफर

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कवि से लेकर जननेता तक अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व किसी से छिपा नहीं है। पत्रकारिता को छोड़ने के बाद अटलजी ने राजनीति में कदम रखा फिर उन्होंने कभी भी पत्रकारिता की तरफ मुड़ कर नहीं देखा।

नयी दिल्ली। कवि से लेकर जननेता तक अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व किसी से छिपा नहीं है। पत्रकारिता को छोड़ने के बाद अटलजी ने राजनीति में कदम रखा फिर उन्होंने कभी भी पत्रकारिता की तरफ मुड़ कर नहीं देखा लेकिन लिखने की उनकी चाहत किसी से छिपी भी नहीं। शायद, यही कारण है कि अक्सर उनके भाषणों में कविताएं सुनने को मिल ही जाती थी। उन्हीं कविताओं की कुछ पंक्तियां...

दुनिया का इतिहास पूछता

दुनिया का इतिहास पूछता,

रोम कहाँ, यूनान कहाँ?

घर-घर में शुभ अग्नि जलाता।

वह उन्नत ईरान कहाँ है?

दीप बुझे पश्चिमी गगन के,

व्याप्त हुआ बर्बर अंधियारा,

किन्तु चीर कर तम की छाती,

चमका हिन्दुस्तान हमारा।

शत-शत आघातों को सहकर,

जीवित हिन्दुस्तान हमारा।

जग के मस्तक पर रोली सा,

शोभित हिन्दुस्तान हमारा।

 

क्षमा याचना

 

क्षमा करो बापू! तुम हमको,

बचन भंग के हम अपराधी,

राजघाट को किया अपावन,

मंज़िल भूले, यात्रा आधी।

जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,

टूटे सपनों को जोड़ेंगे।

चिताभस्म की चिंगारी से,

अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।

 

पड़ोसी से

 

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, 

पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।

अगणित बलिदानो से अर्जित यह स्वतन्त्रता, 

अश्रु स्वेद शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता। 

त्याग तेज तपबल से रक्षित यह स्वतन्त्रता, 

दु:खी मनुजता के हित अर्पित यह स्वतन्त्रता...

 

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं

 

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,

जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।

हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,

पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।

पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।

कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।

यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,

यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।

इसका कंकर-कंकर शंकर है,

इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।

हम जियेंगे तो इसके लिये

मरेंगे तो इसके लिये।

 

राह कौन सी जाऊँ मैं

 

चौराहे पर लुटता चीर

प्यादे से पिट गया वजीर

चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ?

राह कौन सी जाऊँ मैं?

सपना जन्मा और मर गया

मधु ऋतु में ही बाग झर गया

तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?

राह कौन सी जाऊँ मैं?

दो दिन मिले उधार में

घाटों के व्यापार में

क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?

राह कौन सी जाऊँ मैं ?

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