राज्य नहीं हो सकती दिल्ली, LG के पास स्वतंत्र अधिकार नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Delhi can not be a state, says supreme court
[email protected] । Jul 4 2018 6:47PM

उच्चतम न्यायालय ने आज अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वसम्मति से कहा कि दिल्ली को राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है।

नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने आज अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वसम्मति से कहा कि दिल्ली को राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। साथ ही न्यायालय ने उपराज्यपाल के अधिकार यह कहते हुये कम कर दिये कि उन्हें फैसले करने का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है तथा उन्हें निर्वाचित सरकार की मदद और सलाह से ही काम करना होगा।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने राष्टूीय राजधानी के शासन के लिये व्यापक पैमाना निर्धारित कर दिया है। दिल्ली में 2014 में आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर तीखी जंग छिड़ी हुई थी। इस दौरान दो उपराज्यपाल-अनिल बैजल और उनसे पहले नजीब जंग के साथ मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का टकराव होता रहा। केजरीवाल दोनों पर ही केनद्र के इशारे पर उनकी सरकार के काम में बाधा डालने के आरोप लगाते रहे हैं।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने अपनी तथा न्यायमूर्ति ए के सिकरी और न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर की ओर से लिखे 237 पेज के फैसले में कहा कि यह पूरी तरह साफ है कि किसी कल्पना में भी राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली को संविधान की मौजूदा व्यवस्था के अंतर्गत राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। फैसले में कहा गया है, ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का एक विशिष्ट दर्जा है और दिल्ली के उपराज्यपाल का पद राज्य के राज्यपाल जैसा नहीं है , बल्कि वह एक सीमित तात्पर्य में एक प्रशासक ही हैं और उपराज्यपाल के पद के साथ काम करते हैं।’

फैसले में संविधान को रचनात्मक बताते हुये यह भी स्पष्ट किया गया है कि इसमें निरंकुशता के लिये कोई जगह नहीं है। इसमें अराजकतावाद के लिये भी कोई स्थान नहीं है। संविधान पीठ के फैसले में दिल्ली के अधिकारों और उसके दर्जे से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 239 एए की व्याख्या से संबंधित पेचीदा सवालों का भी जवाब दिया गया जिन्हें लेकर दिल्ली सरकार और केन्द्र के बीच जंग छिड़ी थी और जिन पर अब दो तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ विचार करेगी।

पीठ ने उन सांविधानिक प्रावधानों पर अपनी राय दी जिन्हें छोटी पीठ ने उसके पास भेजा था। संविधान पीठ ने कहा कि अब दिल्ली उच्च न्यायालय के छह अगस्त, 2016 के फैसले के खिलाफ दायर तमाम अपीलें नियमित उचित पीठ के समक्ष सुनवाई के लिये सूचीबद्ध होंगी। उच्च न्यायालय ने कहा था कि उपराज्यपाल दिल्ली के प्रशासनिक मुखिया हैं। संविधान पीठ ने कहा कि यद्यपि उपराज्यपाल नाम मात्र के मुखिया नहीं हैं, उनके व्यवहार से ऐसा नहीं प्रतीत होना चाहिए कि मंत्रिपरिषद के प्रति उनका एक विरोधी जैसा रवैया है, बल्कि उनका रवैया सुविधा मुहैया कराने का होना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि उपराज्यपाल को निर्णय करने का कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं दिया गया है। उन्हें या तो मंत्रिपरिषद की मदद और सलाह से काम करना होगा या फिर वे राष्ट्रपति के पास उनके द्वारा भेजे गये मामले में लिये गये निर्णय को लागू करने के लिये बाध्य हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि उपराज्यपाल को यांत्रिक तरीके से काम नहीं करना चाहिए। उपराज्यपाल और मंत्रिपरिषद को किसी भी विषय पर मतभेदों को बातचीत के जरिये सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।

न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के अलावा अन्य सभी विषयों पर कानून बनाने और शासन का अधिकार दिल्ली विधान सभा के पास है। न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने मुख्य फैसले से सहमति व्यक्त करते हुये अपने 175 पेज के निर्णय में कहा कि उपराज्यपाल को ध्यान रखना चाहिए कि यह मंत्रिपरिषद ही है जो निर्णय लेती है।

उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 239 एए के प्रावधानों को इस तरह से लागू करना चाहिए जिससे वे सुविधा प्रदान करें और दिल्ली में शासन में बाधा नहीं डाले। न्यायमूर्ति अशोक भूषण ने भी अपने अलग 123 पेज के फैसले में कहा कि दिल्ली विधान सभा निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रतिनिधित्व करती है और राष्ट्रपति के पास मामला भेजने के उपराज्यपाल के फैसले के इतर अन्य सभी मामलों में उसकी राय और फैसलों का सम्मान होना चाहिए।

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़