सामाजिक तनाव बढ़ाने वाली असहमति सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं: नायडू

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[email protected] । Oct 1 2018 2:51PM

उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने वैचारिक असहमति के नाम पर आतंकवाद और कट्टरता के सहारे सामाजिक तनाव फैलाने की बढ़ती प्रवृति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘विघटनकारी असहमति’ किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती।

नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने वैचारिक असहमति के नाम पर आतंकवाद और कट्टरता के सहारे सामाजिक तनाव फैलाने की बढ़ती प्रवृति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘विघटनकारी असहमति’ किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती। नायडू ने सोमवार को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन में अपने सम्बोधन में कहा कि असहमति के लोकतांत्रिक अधिकार को ढाल बनाकर आतंकवाद और कट्टरता को बढ़ावा देने वाली ताक़तें वैश्विक शांति के लिए ख़तरा बन गई हैं। शांति की पहल करने वाले भारत सहित अन्य देश इस ख़तरे से जूझ रहे हैं। इसलिए समय आ गया है जब विश्व समुदाय इस मुद्दे पर एकजुट होकर गम्भीरता से सोचे।

नायडू ने कहा कि आयोग की स्थापना की रजत जयंती के अवसर पर आयोजित यह सम्मेलन इस दिशा में विचार मंथन का महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है। उन्होंने सम्मेलन में हिस्सा ले रहे, विभिन्न देशों के क़ानूनविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से इस समस्या के समाधान की ठोस कार्ययोजना पर मंथन करने का आह्वान किया। नायडू ने कहा कि सभी के सुख और कल्याण का दुनिया को संदेश देने वाले देश भारत ने मानवाधिकारों की पेरिस उद्घोषणा 1992 के अनुरूप महिलाओं, बच्चों, बुज़ुर्गों, उपेक्षित और अल्पसंख्यकों सहित समाज के सभी वर्गों के नागरिक अधिकारों के संरक्षण हेतु सार्थक प्रयास किए हैं। इनकी आज साफ़ झलक पंचायती स्तर पर महिला आरक्षण और विधायिकाओं में हर वर्ग के उचित प्रतिनिधित्व के रूप में दिखती है।

हालाँकि उपराष्ट्रपति ने मानवाधिकारों की बहाली प्रक्रिया में सम्यक निगरानी और संतुलन की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा कि आतंकवाद और कट्टरपंथी हिंसा प्रभावित सीमावर्ती एवं अन्य राज्यों में मानवाधिकारों के दुरुपयोग पर निगरानी ज़रूरी है। नायडू ने कहा कि कुछ लोगों को लगता है कि वैचारिक असहमति के नाम पर निर्दोष लोगों को मारने और सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट करने का उन्हें अधिकार है। लोकतंत्र में विरोधी मत होना ज़रूरी है लेकिन इसके नाम पर किसी को मारने का हक़ किसी को नहीं होता। उन्होंने कहा कि  कट्टरपंथी निर्दोष मासूमों को मारते हैं और फिर इनके विरुद्ध करवाई करने पर अगले दिन मानवाधिकार का दावा किया जाता है।

नायडू ने इस मामले मे एक ख़ास वर्ग की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए कहा कि मानवाधिकार देश के विरुद्ध बोलने की आज़ादी नहीं देता। उन्होंने कहा कि भारत ने अपने दो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, कई सांसद और विधायकों को कट्टरपंथी हिंसा में खोया है। अब समय आ गया है कि अधिकारों के दुरुपयोग को रोकने पर चर्चा हो। इस मौक़े पर नायडू ने आर्थिक भ्रष्टाचार को भी मानवाधिकार के हनन से जोड़ते हुए कहा कि आर्थिक विषमता नागरिक अधिकारों के हनन का कारण बनती है। भारत ने नोटबंदी जैसे कारगर क़दम उठाकर ग़रीबी, सामाजिक अन्याय और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ निर्णायक युद्ध नवंबर 2016 में छेड़ दिया था।

नोटबंदी को सही क़दम बताते हुए नायडू ने कहा कि ग़रीबों के बैंक खाते खुलवाने का महत्व उन्हें नोटबंदी के बाद समझ आया था, जब अर्थव्यवस्था से असंबद्ध धन बैकों में आकर अर्थतंत्र का हिस्सा बना। उन्होंने कालेधन को भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचार को मानवाधिकार हनन की अहम वजह बताते हुए कहा कि विश्व समुदाय को कालाधन उजागर करने के लिए वैश्विक संधि की पहल करना चाहिए। इसे विश्व शांति और विकास के लिये ज़रूरी बताते हुए नायडू ने कहा कि अगर सीमा पर तनाव होगा तो देश में विकास प्रभावित होगा।

इस अवसर पर आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एच एल दत्तू ने कहा कि मानवाधिकार संरक्षण के मामले में भारत के बेहतर प्रदर्शन से दुनिया वाक़िफ़ है। उन्होंने कहा कि आयोग मानवाधिकार हनन की 98 प्रतिशत शिकायतों का निपटारा करने में सक्षम है और इसमें सरकारों एवं प्रशासन द्वारा आयोग के दिशानिर्देशों का उचित पालन करने की अहम भूमिका है। इससे पहले केंद्रीय गृह सचिव राजीव गौबा ने भी मानवाधिकारों के तार्किक अनुपालन की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा कि इसके दुरुपयोग को रोकना एक चुनौती है और सरकार इस दिशा में उचित क़दम उठा रही है।

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