किसान आंदोलन के जरिए बदलेगी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासी धारा, भाजपा के लिए बढ़ सकती हैं चुनौतियां

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अंकित सिंह । Sep 13 2021 10:10PM

केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानून के खिलाफ पांच सितंबर को मुजफ्फरनगर में महापंचायत बुलाई गई थी। किसान नेताओं ने प्रदेश के अन्य जिलों में भी इस तरह के आयोजन करने के संकेत दिए हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश सियासी धारा किस ओर जाएगी।

2013 के बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति बेहद दिलचस्प होती चली गई। 2014 की राजनीति में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के पक्ष में जमकर मतदान किया था। उस वक्त मुजफ्फरनगर दंगों का दर्द स्थानीय लोगों में था और यही कारण था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के खिलाफ वोट पड़े और भाजपा यहां अपना झंडा बुलंद करने में कामयाब हो पाई। एक बार फिर से मुजफ्फरनगर राजनीति के केंद्र में आ चुका है। लेकिन इस बार मामला भाजपा के विरोध में है। केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानून के खिलाफ पांच सितंबर को मुजफ्फरनगर में महापंचायत बुलाई गई थी। किसान नेताओं ने प्रदेश के अन्य जिलों में भी इस तरह के आयोजन करने के संकेत दिए हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश सियासी धारा किस ओर जाएगी। क्या किसान आंदोलन के जरिए इसे नया मोड़ मिल पाएगा?

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वर्तमान में देखें तो भाजपा के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चनौतियां लगातार बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। जबकि विपक्ष यहां से अपने लिए उम्मीदों की तलाश कर रहा है। नए कृषि कानूनों के खिलाफ नवंबर में शुरू हुए किसान आंदोलन का लगातार उत्तर प्रदेश में विस्तार होता चला गया। राकेश टिकैत के आंसुओं ने इस आंदोलन को और धार दिया। साथ ही साथ यह आंदोलन जाट बनाम भाजपा भी बनता चला गया। आपको यह भी बता दे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की संख्या अच्छी खासी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ लगातार माहौल बिगड़ता चला गया जबकि विपक्षी दलों में समर्थन देने की होड़ मच गई। मुजफ्फरनगर के किसान महापंचायत से इस बात का संकेत तो निकल कर सामने आ चुका है कि अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तथाकथित किसान नेताओं का एकमात्र उद्देश्य भाजपा को हराना है। अब किसान आंदोलन सियासी आंदोलन का रूप ले चुका है।

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पश्चिम उत्तर प्रदेश बेहद अहम

लखनऊ में सत्ता में काबिज होने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बढ़त काफी महत्वपूर्ण है। भले ही सूरज पूरब से निकलता है लेकिन उत्तर प्रदेश में सत्ता के दरवाजे पश्चिम से ही खुलते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो भाजपा ने यहां 136 सीटों में से 102 सीटों पर जीत हासिल की थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही पहले और दूसरे चरण में चुनाव हुए थे और यहीं से भाजपा को मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल होने लगी थी। राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान हमेशा राजनीति कि केंद्र में रहते हैं। हालांकि इस बार किसान आंदोलन को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 3-4 जिलों को छोड़ दिया जाए तो बाकी हिस्सों में इतनी हलचल नहीं है।

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ध्रुवीकरण को धार दे पाएगी भाजपा

उत्तर प्रदेश के लगभग 50 विधानसभा सीटों पर 30% से अधिक मुस्लिम वोटर है। यहां करीब एक दर्जन जिलों में जाटों की आबादी 20% तक है। ऐसे में देखा जाए तो भाजपा के लिए समीकरण बिल्कुल ही फिट नहीं बैठ रहा है। साफ तौर पर गणना करें तो 25 से अधिक विधानसभाओं में मुस्लिम-जाट वोटरों की संख्या सीधे 50% से अधिक हो जा रही है। वर्तमान में देखें तो किसान आंदोलन की आड़ में जाट मुस्लिम एकता भी के भी प्रयास होते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में भाजपा कहीं ना कहीं ध्रुवीकरण की राजनीति को तेज जरूर करेगी। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चुनावों के दौरान  पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदू-मुसलमान आसानी से होता है। बस थोड़ा खाद-पानी देने की जरूरत होती है। यही कारण है कि भाजपा यहां राम मंदिर के साथ-साथ तालिबान और मथुरा जैसे धार्मिक मसलों को उछाल कर हिंदू वोटरों को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर सकती है।

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