सवर्णों को खुश करने की तैयारी, शिवराज को नहीं मिलेगा नेता प्रतिपक्ष का पद

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यदि मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण सवर्ण समाज की नाराजगी ही नजर आता है क्योंकि दोनों दलों को मिले मतों का अंतर बहुत कम है।

मध्य प्रदेश में भाजपा की सत्ता जाने के साथ ही पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने मोर्चा संभाल लिया है। हार के कारणों की समीक्षा में जो चीजें उभर कर आई हैं उनमें पार्टी नेताओं में एकजुटता की कमी, किसानों की नाराजगी, टिकटों को लेकर हुए आंतरिक संघर्ष, नेताओं और मंत्रियों का जनता से कट जाना, सरकार के कार्यों को सही ढंग से जनता तक नहीं पहुँचा पाना और सवर्णों की सरकार से नाराजगी को प्रमुख माना जा रहा है। 2019 में होने वाले लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटे संघ परिवार की ओर से पार्टी के नेताओं को सख्त संदेश दे दिये गये हैं कि समय रहते एकजुट होना होगा नहीं तो इसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं।

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सवर्ण भाजपा के परम्परागत वोट बैंक रहे हैं और एससी-एसटी एक्ट मामले में मोदी सरकार ने उच्चतम न्यायालय का जो फैसला पलटा था, उससे बेहद नाराज हैं और इसीलिए नोटा पर बटन दबाने का अभियान चलाया गया और साथ ही सवर्ण समाज ने सपाक्स नाम से एक दल बनाकर अपने उम्मीदवार भी उतारे। यदि मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण सवर्ण समाज की नाराजगी ही नजर आता है क्योंकि दोनों दलों को मिले मतों का अंतर बहुत कम है।

मध्य प्रदेश की नयी विधानसभा में सत्ता पक्ष की कुर्सियों पर कौन बैठेगा यह तो जनता ने तय कर दिया है और मुख्यमंत्री, मंत्रियों के नाम कांग्रेस ने तय कर दिये हैं। लेकिन विधानसभा में विपक्ष का नेता कौन बनेगा अब सबकी निगाह इस पर है। यदि संघ सूत्रों की मानें तो संघ परिवार नेता प्रतिपक्ष का पद शिवराज सिंह चौहान की बजाय किसी सवर्ण को देना चाहता है ताकि उनकी नाराजगी को दूर किया जा सके। इसीलिए इस पद के लिए नरोत्तम मिश्रा और गोपाल भार्गव का नाम दौड़ में सबसे आगे माना जा रहा है। नरोत्तम मिश्रा तो मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद दिल्ली आकर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात भी कर चुके हैं।

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संघ यह भी चाहता है कि शिवराज सिंह चौहान की ही तरह छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की प्रशासनिक क्षमताओं का इस्तेमाल केंद्र में किया जाये। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि अभी इन तीनों राज्यों में चुनाव 5 साल बाद होंगे ऐसे में इन नेताओं की काम की बदौलत इनकी राजनीतिक सक्रियता का लाभ इन प्रदेशों में लिया जा सकेगा। संघ सूत्र यह बताने से भी गुरेज नहीं करते कि भले यह तीनों नेता अपने अपने राज्यों में सत्ता नहीं बचा पाये हों लेकिन मुख्यमंत्री रहते यह लोग ऐसी कई नीतियां लेकर आये जिनकी अन्य प्रदेशों में भी वाहवाही होती है।

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