बिहार की राजनीति के असली सिकंदर 'क्षेत्रीय दल', राष्ट्रीय पार्टियों को होना पड़ता है बेबस

Bihar politics
अंकित सिंह । Sep 21 2020 8:42PM

दोनों ही गठबंधनों में छोटे दल लगातार बड़े दलों पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे है। ऐसे में अब देखना होगा कि किस तरीके से बिहार विधानसभा चुनाव से पहले दोनों गठबंधन सीट बंटवारे की गुत्थी को सुलझा पाते है।

बिहार में 1990 के आसपास कांग्रेस के शासन खत्म होने के बाद से यहां की सियासी कुंजी क्षेत्रीय दलों के ही पास रही है। सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, दोनों ही जगह यहां के क्षेत्रीय दलों का दबदबा है। वर्तमान परिस्थिति में देखें तो चाह कर भी राष्ट्रीय दल बिहार में अपनी पैठ नहीं बना सकते। उन्हें चुनाव में हर हाल में किसी क्षेत्रीय दल के साथ ही जाना पड़ता है। बिहार में 1990 से पहले लगातार शासन में रहने वाली कांग्रेस पिछले कई सालों से आरजेडी और लालू प्रसाद यादव के सहारे ही बिहार में चुनाव लड़ती आ रही है। वहीं, विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक दल के रूप में खुद को स्थापित कर चुकी भारतीय जनता पार्टी भी नीतीश कुमार के सहारे ही बिहार में15 सालों से सत्ता में साक्षीदार है। हालंकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के केंद्रीय नेतृत्व में आने के बाद भाजपा ने बिहार में खुद को मजबूत किया है।

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2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा ने बिहार में अपनी स्थिति को मजबूत किया है। 2014 में भाजपा बिहार में 23 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। हालांकि, तब भी उसे रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे क्षेत्रीय नेताओं की जरूरत पड़ी थी। लेकिन ठीक एक साल बाद ही विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी। भाजपा रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा तथा जीतन राम मांझी को एकजुट कर नीतीश और लालू के खिलाफ चुनावी मैदान में उतरी थी पर कामयाबी नहीं मिल पाई। खुद भाजपा जदयू और आरजेडी की तुलना में कम सीटें जीत पाई। यही कारण है कि भाजपा को ना चाह कर भी नीतीश कुमार के नेतृत्व को स्वीकार करना पड़ता है और चिराग पासवान जैसे क्षेत्रीय दलों के अध्यक्षों के दबाव में आना पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है कि अगर बिहार में भाजपा अपने दम पर चुनाव में जाती है तो उसके ऊपर सवर्णों की पार्टी होने का तबका लग जाता है।

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बिहार का जातीय समीकरण कुछ इस तरह है कि यहां राष्ट्रीय पार्टियों के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं बचा है। लालू यादव की पार्टी आरजेडी एमवाई समीकरण वाले 28 फ़ीसदी वोटों पर पकड़ रखती है। यह वोट मुस्लिम और यादव के हैं। 20 फ़ीसदी महादलित और ओबीसी में गैर यादव वोटों पर नीतीश कुमार की अच्छी पकड़ है। इसके अलावा महिला वोटों पर भी नीतीश कुमार अपनी पकड़ अच्छी बनाए हुए हैं। 8 फ़ीसदी पासवान वोट पर राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी की अच्छी पकड़ है। वही दलित राजनीति के दम पर जीता राम मांझी भी राष्ट्रीय पार्टी पर दबाव बनाने में कामयाब रहते हैं। इन सबके अलावा उपेंद्र कुशवाहा कुशवाहा वोट पर अपनी पकड़ रखते हैं। वही मल्लाह वोट के लिए ही मुकेश साहनी ने अपनी पार्टी बनाई है। यह सभी दल अपने दम पर कुछ खास हासिल तो नहीं कर सकती लेकिन राष्ट्रीय पार्टियों का खेल जरूर बिगाड़ सकती हैं।

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बिहार विधानसभा चुनाव में सीधा मुकाबला दो गठबंधनों के बीच में है। एक ओर नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन है जिसमें भाजपा राष्ट्रीय दल के रूप में शामिल है। एनडीए में भाजपा के अलावा लोजपा और जीतन राम मांझी की हम पार्टी शामिल है। वहीं, महागठबंधन का नेतृत्व आरजेडी के पास है। इसमें राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस शामिल है। कांग्रेस के अलावा कुछ वामदल, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी की पार्टी महागठबंधन का हिस्सा हैं। बिहार के क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय दलों पर इतना दबाव बनाया है कि सीट बंटवारे में भी इसका असर साफ तौर पर देखने को मिल सकता है। इसी दबाव का यह नतीजा है कि अब तक दोनों ही गठबंधन खुलकर सीट बंटवारे को लेकर कोई बातचीत नहीं कर रही हैं। दोनों ही गठबंधनों में छोटे दल लगातार बड़े दलों पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे है। ऐसे में अब देखना होगा कि किस तरीके से बिहार विधानसभा चुनाव से पहले दोनों गठबंधन सीट बंटवारे की गुत्थी को सुलझा पाते है।

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