तीन तलाक: मुस्लिम महिलाओं को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी उम्मीदें

[email protected] । May 10 2017 2:55PM

उच्चतम न्यायालय बहुविवाह और ‘निकाह हलाला’ की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर गुरुवार को सुनवाई करेगी। मुस्लिम महिलाएं न्याय के लिए शीर्ष न्यायालय की ओर देख रही हैं।

उच्चतम न्यायालय बहुविवाह और ‘निकाह हलाला’ की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर गुरुवार को सुनवाई करेगी। ऐसे में पुरूषों द्वारा तीन तलाक कहने के कारण तलाकशुदा जीवन जीने को मजबूर मुस्लिम महिलाएं न्याय के लिए शीर्ष न्यायालय की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही हैं। गाजियाबाद के रहने वाले बढ़ई सबीर की बेटी भी उन महिलाओं में से एक है जिन्हें उनके पतियों ने तीन तलाक कह कर वैवाहिक संबंध समाप्त करने का फरमान सुना दिया है। सबीर का कहना है कि उसकी बेटी को दहेज के लिए प्रताड़ित किए जाने के बाद तलाक दे दिया गया। सबीर ने इस सप्ताह अपने स्थानीय विधायक से इस संबंध में मदद के लिए गुहार लगाने का निर्णय लिया।

विधायक अतुल गर्ग की सलाह पर सबीर के दामाद के खिलाफ एक प्राथमिकी दर्ज की गई। गर्ग ने सबीर को बताया कि यदि उनकी बेटी अदालत का दरवाजा खटखटाती है तो सुरक्षा भी मुहैया कराई जा सकती है लेकिन इसके अलावा और किसी प्रकार का हस्तक्षेप संभव नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री गर्ग ने कहा कि अंतत: तीन तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत भारत में वैध है और सरकार कानून में बदलाव होने तक कुछ नहीं कर सकती। सबीर की बेटी का दो वर्ष का बेटा भी है।

सबीर और उनकी बेटी की तरह देशभर में हजारों मुस्लिम परिवारों का जीवन केवल इसलिए बुरी तरह प्रभावित हुआ है क्योंकि पुरूषों ने तीन बार तलाक शब्द कह कर अपनी पत्नियों को छोड़ दिया। ऐसे में सबीर की बेटी समेत कई महिलाएं नयी दिल्ली स्थित उच्चतम न्यायालय में गुरुवार से शुरू होने वाली उन याचिकाओं की सुनवाई का इंतजार कर रही हैं जो समुदाय में रूढ़ीवादी एवं सुधारवादियों के बीच तनातनी का केंद्र हैं। रूढ़ीवादी लोग शरियत के तहत इसकी वैधता को सही ठहरा रहे हैं जबकि सुधारवादियों का कहना है कि यह दमनकारी, महिला विरोधी है और इसका इस्लाम में कोई स्थान नहीं है।

तीन तलाक का समर्थन करने वालों में अखिल भारतीय मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड और जमात ए इस्लामी हिंद प्रमुख हैं। रविवार को एक बैठक में जमात ने सवाल किया था: जब पैगम्बर मोहम्मद को शरियत में बदलाव करने का स्वयं कोई अधिकार नहीं है, तो मुसलमान सरकार या अदालतों को ऐसा करने का अधिकार कैसे दे सकते हैं?’’ इन प्रथा को केवल उन महिलाओं ने ही चुनौती नहीं दी है जो उनके शादीशुदा जीवन को मनमाने ढ़ंग से समाप्त करने के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार हैं बल्कि विद्वान एवं अन्य मुस्लिम वर्ग भी इसे चुनौती दे रहे हैं।

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