जब संयुक्त राष्ट्र में वाजपेयी थे भारतीय दल के कप्तान, पराजित हो गया पाकिस्तान

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[email protected] । Aug 17 2018 1:05PM

27 फरवरी 1994 को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में इस्लामी देशों समूह ओआईसी के जरिए प्रस्ताव रखा। उसने कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत की निंदा की।

नयी दिल्ली। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हमेशा ‘दल से बड़ा देश’ के सिद्धांत में विश्वास किया और यही कारण था कि उन्होंने विपक्ष में रहते हुए भी एक बार संयुक्त राष्ट्र में देश का प्रतिनिधित्व किया और कश्मीर पर पाकिस्तान के मंसूबे को नाकाम किया। यह वाकया 1994 का है, जब विपक्ष में होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने अटल बिहारी वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग भेजे गए प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व सौंपा। 

दरअसल, 27 फरवरी 1994 को पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में इस्लामी देशों समूह ओआईसी के जरिए प्रस्ताव रखा। उसने कश्मीर में हो रहे कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर भारत की निंदा की। संकट यह था कि अगर यह प्रस्ताव पास हो जाता तो भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के कड़े आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता। इन हालात में वाजपेयी ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल का बखूबी नेतृत्व किया और पाकिस्तान को विफलता हाथ लगी। उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री सलमान खुर्शीद ने उस वाकये के जरिए वाजपेयी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला।

खुर्शीद ने कहा, ‘‘ हम लोग सरकार में थे और वह नेता प्रतिपक्ष थे। लेकिन हमारा जो प्रतिनिधिमंडल गया था उसकी अध्यक्षता वो कर रहे थे। ऐसा कम होता है, खासकर, भारत की राजनीति में नहीं होता। लेकिन देश का मामला था और हम लोग देश के लिए वहां (जिनीवा) गए थे। देश के बारे में कुछ बातें की जा रही थीं और हम वहां देश की बात करने गए थे।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं और फारूक अब्दुल्ला प्रतिनिधिमंडल में थे। हमारे बीच किसी भी बात लेकर असहमति नहीं थी। अगर हम एक ही पार्टी के होते तो भी शायद भी इतनी सहमति नहीं होती।’’

वाजपेयी के साथ उस वक्त काम करने के अपने अनुभव को साझा करते हुए खुर्शीद ने कहा, ‘‘उनके साथ काम करके ऐसा नहीं लगा कि वह वरिष्ठ हैं। हम एक टीम तरह खेले थे। वह हमारे कप्तान थे। उन्होंने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि वह हम सबसे वरिष्ठ हैं।’’ गौरतलब है कि नरसिंह राव सरकार और वाजपेयी के प्रयासों का नतीजा रहा कि प्रस्ताव पर मतदान वाले दिन जिन देशों के पाकिस्तान के समर्थन में रहने की उम्मीद थी उन्होंने अपने हाथ पीछे खींच लिए। बाद में पाकिस्तान ने प्रस्ताव वापस ले लिया और भारत की जीत हुई। 

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