'हाथी' की सुस्त चाल का यूपी में किसे मिलेगा फायदा, किस तरफ जाएंगे 21 फीसदी दलित वोट?

bsp
अभिनय आकाश । Jan 18 2022 6:45PM

वैसे तो बसपा कई राज्यों में चुनाव लड़ती है लेकिन उत्तर प्रदेश उसके लिए खासा मायने रखता है। जिसके पीछे की वजह है उसका अपना काडर जो दशकों से उसका कोर वोटर रहा है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच आम धारणा है कि मायावती की 'अरुचि' बसपा के कोर वोटरों का एक वर्ग कहीं और शिफ्ट हो सकता है।

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है। सभी दल प्रत्याशियों की सूची तैयार करने में जुटे हैं और अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। इस बीच, एक आम वोटर से लेकर सियासी पंडितों तक की जुबान पर एक ही सवाल है कि मायावती कहां हैं? चुनावी विश्लेषक हो या उनके विरोधी भी ये समझ नहीं पा रहे हैं कि पिछले 3 दशकों में 4 बार यूपी को मुख्यमंत्री देने वाली बीएसपी इस बार के चुनाव में है कहां हैं। कभी यूपी में बीजेपी को 51 सीटों पर सिमेट देने वाली बीएसपी आज खुद सूबे की सियासत से गायब दिख रही है। जिसने राजनीतिक पंडितों से लेकर प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों को भी हैरान कर दिया है। ऐसे में एक बड़ा सवाल जो प्रखर रुप से सामने आ रहा है कि आखिर दलित वोट किस ओर रुख करेगा?

वैसे तो बसपा कई राज्यों में चुनाव लड़ती है लेकिन उत्तर प्रदेश उसके लिए खासा मायने रखता है। जिसके पीछे की वजह है उसका अपना काडर जो दशकों से उसका कोर वोटर रहा है। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच आम धारणा है कि मायावती की 'अरुचि' बसपा के कोर वोटरों का एक वर्ग कहीं और शिफ्ट हो सकता है। वैसे भी अन्य दावेदार यूपी में 21% मतदान आबादी वाले समुदाय को लुभाने के लिए पूरी कोशिश में लगे हैं। वैसे अगर पिछले तीन दशकों की राजनीति पर गौर करें तो दलितों ने पारंपरिक रूप से बसपा का समर्थन किया है। ऐसे दौर में जब बीजेपी के छिटकर कई ओबीसी नेता सपा की ओर रुख कर रहे हैं। गैर-यादव पिछड़ी जाति के मतदाताओं को साथ करने की कवायद परवान पर है। समुदाय के महत्व को भी अहमियत दी जा रही है। 

इसे भी पढ़ें: मायावती ने चला अखिलेश वाला दांव, विधानसभा चुनाव के लिए 10 छोटे दलों के साथ किया गठबंधन, जानें कौन-कौन से दल हैं शामिल

भाजपा केंद्र और राज्य में योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा शुरू की गई विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से इसे हिंदुत्व की व्यापक छतरी के नीचे लाकर समुदाय को मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है। विश्लेषकों का कहना है कि मायावती जाटव उप-जाति की एकजुटता पर बहुत अधिक निर्भर हैं, जो कुल दलित आबादी का लगभग 55% हिस्सा है। विशेषज्ञों का कहना है कि 1990 के दशक की शुरुआत में बसपा अपने संस्थापक कांशीराम के नेतृत्व में एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने से पहले तक दलित कांग्रेस के समर्थक हुआ करते थे। 2007 में जब मायावती पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आईं, तो पार्टी ने एक बदलाव किया, जिसमें सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले को लागू किया गया, जिसमें ब्राह्मणों को दलितों के साथ मिला दिया गया। हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा विष्णु महेश है जैसे नारे अस्तित्व में आए। दलित नेता ने एक बार फिर अपने आजमाए और परखे हुए फॉर्मूले का सहारा लिया है। हालांकि, दलितों पर मायावती के दबदबे को भाजपा ने लगातार चुनौती दी है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव से ही बीजेपी ने दलित समुदाय को जातिगत नजरिये से अलग कर कल्याणकारी योजनाओं और विकास के आधार पर वोट मांगे।

बीजेपी ने लगाया सेंध

दलित वोटबैंक पर मायावती के एकछत्र प्रभाव को भाजपा ने चुनौती दी। 2014 के लोकसभा चुनाव से ही भाजपा ने दलित समुदाय को । यूपी भाजपा एससी/एसटी मोर्चा के अध्यक्ष राम चंद्र कनौजिया कहते हैं, 'पार्टी के स्लोगन - सबका साथ, सबका विकास के पीछे छिपे हुए संदेश को समझने की जरूरत है। हम ऊंची जाति और दलितों के बीच की खाई को भरना चाहते हैं जो सदियों से चली आ रही है।' उन्होंने कहा कि महामारी के दौरान राशन और जन औषधि योजना जैसे कदमों ने सामाजिक-आर्थिक रूप से उत्पीड़ित वर्ग को काफी राहत पहुंचाई। यूपी बीजेपी एससी/एसटी मोर्चा के अध्यक्ष राम चंद्र कन्नौजिया ने कहा, 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे के पीछे छिपे संदेश को समझने की जरूरत है। हम सवर्ण और दलित के बीच की खाई को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। यह युगों तक कायम रहा है, ”उन्होंने जोर देकर कहा कि महामारी और जन औषधि योजना के दौरान दोहरे राशन जैसे कदमों की सामाजिक-आर्थिक रूप से उत्पीड़ित वर्गों के बीच भारी प्रतिध्वनि है

इसे भी पढ़ें: राम मंदिर, शिक्षा, किसान, रोजगार... इन विकास कार्यों को मुद्दा बनाकर चुनावी मैदान में उतर रही योगी सरकार

सभी भी कोशिश में लगी

एसपी ने, फिर भी, यूपी के तीन पूर्व मंत्रियों - स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धरम सिंह सैनी सहित गैर-यादव पिछड़े नेताओं को अपने पाले में कर बीजेपी को बराबर टक्कर देने की कोशिश में लगी है। जानकारों का कहना है कि अखिलेश ने अपनी पार्टी की यादवों और मुसलमानों की पार्टी की पुरानी छवि को बदलने की कोशिश की है। पार्टी में यह धारणा है कि अधिक/सबसे पिछड़े वर्गों के नेताओं को शामिल करने से दलितों को सपा के करीब लाया जा सकता है।

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़