आदिवासियों के बीच भगवान के तौर पर पूजे जाते हैं बिरसा मुंडा

[email protected] । Jun 8 2017 12:56PM

अपने समुदाय के लोगों के उत्पीड़न और उनकी जमीन पर ''बाहरी'' लोगों का कब्जा सहित विभिन्न मुद्दों को लेकर उन्होंने लोगों को जागरूक किया और उनके आंदोलन ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया था।

आदिवासियों को एकत्र कर अंग्रेजी शासकों के दमनकारी एवं कठोर कानून के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाने वाले बिरसा मुंडा आज अपने अनुयायियों के बीच भगवान के तौर पर पूजे जाते हैं और देश भर में उन्हें आदिवासियों का प्रेरणाप्रद नेता माना जाता है। अपने समुदाय के लोगों के उत्पीड़न और उनकी जमीन पर 'बाहरी' लोगों का कब्जा सहित विभिन्न मुद्दों को लेकर उन्होंने लोगों को जागरूक किया और उनके आंदोलन ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया। उनका मकसद था कि आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर जागरूक हों और वे किसी दबाव में नहीं आएं। उनका विरोध अंग्रेजों के अलावा स्थानीय साहूकारों व महाजनों और जमींदारों के खिलाफ भी था। उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें मिथक मान लिया गया था। रांची के पास उलिहातू में 15 नवंबर 1875 को पैदा हुए बिरसा मुंडा के अनुयायी उन्हें भगवान मानते हैं। उनका आंदोलन ऐसे दौर में शुरू हुआ था जब ब्रिटिश शासन का आतंक था। लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और छोटी सी जिंदगी में ही इतना कुछ हासिल कर लिया जितना कई लंबी उम्र के बावजूद नहीं हासिल कर पाते।

उल्लेखनीय है कि उनका निधन सिर्फ 25 साल की उम्र में ही जेल में हो गया था। रांची विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति रामदयाल मुंडा के अनुसार बिरसा का आंदोलन ''जन, जंगल और जमीन'' को लेकर था। हालांकि उनके पहले भी दो आंदोलन कोल विद्रोह और संथाल विद्रोह हो चुके थे। उन्होंने स्थिति को समझा और बड़े पैमाने पर लोगों को संगठित किया। वह समझते थे कि शारीरिक रूप से अंग्रेजों से नहीं जीता जा सकता। ब्रिटिश साम्राज्य काफी शक्तिशाली था और उससे पार पाना आसान नहीं था।

राम दयाल मुंडा के अनुसार ब्रिटिश शासन को रेलवे के लिए संथाल क्षेत्र चाहिए था। इसके अलावा उन्हें राजस्व का भी लोभ था। जंगलों को साफ कर खेत बनाने पर जोर दिया जा रहा था। ऐसा करने के लिए प्रोत्साहन भी दिया जा रहा था। आदिवासियों के लिए पहाड़ी क्षेत्र में जो भी भूमि थी, फल फूल थे, वे उसी के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। राम दयाल मुंडा का मानना है कि मैदानी भारत एक तरह से समर्पण करता गया वहीं पहाड़ों में विरोध होता रहा। अंग्रेज आमने सामने की लड़ाई में भले ही शक्तिशाली थे मगर गुरिल्ला युद्ध के लिए वे तैयार नहीं थे और न ही उनकी सेना में ऐसे युद्ध के लिए कोई इकाई थी। बहरहाल वे किसी प्रकार आंदोलन को कुचलने में सफल रहे। राम दयाल मुंडा के अनुसार बिरसा के देहांत के बाद काफी असर हुआ और रैयतों के हित में कानून बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। बाद में छोटानागपुर टेनेंसी कानून बना। झारखंड में काफी बड़ी संख्या में लोगों का बिरसा के साथ भावनात्मक लगाव है और उनके जन्मदिवस 15 नवंबर के मौके पर झारखंड राज्य का गठन हुआ। उनके अनुसार बिरसा ने जिन मुद्दों को लेकर संघर्ष किया, उसकी प्रासंगिकता अब भी बरकरार है।

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