कविताओं के जरिये कल्पनाओं का भव्य संसार खड़ा करते थे मधुसूदन दत्त

Madhusudan Dutt was creating a grand world of fantasies through poems
विजय कुमार । Jan 25 2018 6:39PM

उन दिनों बंगाल के शिक्षित और सम्पन्न वर्ग में ईसाइयत का प्रभाव बढ़ रहा था। मधुसूदन भी एक ईसाई लड़की के प्रेम में पड़ गये और उससे विवाह कर ईसाई हो गये। अब उनका नाम माइकेल मधुसूदन दत्त हो गया।

भारतीय कविता के तेजस्वी नक्षत्र मधुसूदन दत्त का जन्म 25 जनवरी, 1824 को ग्राम सागरदारी (जिला जैसोर, बंगाल) में हुआ था। आजकल यह क्षेत्र बांग्लादेश में है। इनके पिता श्री राजनारायण दत्त एक प्रसिद्ध वकील तथा माता श्रीमती जावी देवी एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने की विदुषी महिला थीं।

कुशाग्र बुद्धि के धनी मधुसूदन ने घर पर संस्कृत एवं बंगला तथा शेखपुरा के मदरसे में फारसी पढ़ी। कविता के प्रति वे बचपन से ही आकृष्ट थे। 1837 में उन्होंने हिन्दू कॉलिज, कोलकाता में प्रवेश लिया, जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। कुछ समय में ही वहां भी उनकी प्रतिभा प्रकट होने लगी। यहां उन पर एक अध्यापक कैप्टेन डी.एल. रिचर्डसन का विशेष प्रभाव पड़ा।

उन दिनों बंगाल के शिक्षित और सम्पन्न वर्ग में ईसाइयत का प्रभाव बढ़ रहा था। मधुसूदन भी एक ईसाई लड़की के प्रेम में पड़ गये और उससे विवाह कर ईसाई हो गये। अब उनका नाम माइकेल मधुसूदन दत्त हो गया। उनकी जीवन शैली भी ईसाइयों जैसी हो गयी। इससे उनके घर के लोग बहुत नाराज हुए। अतः 1843 में उन्होंने हिन्दू कॉलिज छोड़कर बिशप कॉलिज में प्रवेश ले लिया। यहां उन्होंने कई फारसी कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया।

कोलकाता के खुले एवं शिक्षित वातावरण में उनकी काव्य कल्पनाएँ अनंत आकाश में उड़ने लगीं। अंग्रेजी के प्रख्यात कवि शेक्सपियर, मिल्टन और बॉयरान से प्रभावित होकर वे अंग्रेजी में कविताएं लिखने लगे। विद्यालय में अध्यापकों तथा काव्य गोष्ठियों में प्रबुद्ध जनों की प्रशंसा से उनका उत्साह बढ़ता रहा। 1848 में वे मद्रास गये और वहाँ एक विद्यालय में अध्यापन करने लगे। वहीं उन्होंने अपनी सबसे लम्बी कविता ‘दि कैप्टिव लेडी’ लिखी।

मधुसूदन दत्त काव्य की बनी-बनायी लीक पर चलने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने भारतीय काव्य में पहली बार मुक्तछन्द का प्रयोग किया। नया प्रयोग होने के कारण इसके लिए उन्हें आलोचना और प्रशंसा दोनों ही मिलीं। मद्रास में ही उन्होंने गीतिकाव्य, त्रिपदी, चतुष्पदी एवं पंच-चरण कविताओं जैसे कई प्रयोग किये। इन नये प्रयोगों के कारण इन्हें कविता का क्रान्तिकारी कहा जाता है।

इन्होंने परिवर्णी काव्य, सम्बोधि गीत, पत्रकाव्य, मुक्तछन्द, चित्रात्मक काव्य आदि में एक नयी शैली प्रस्तुत की। वे अपनी कविता में कल्पनाओं का ऐसा भव्य संसार खड़ा करते थे कि उसे पढ़कर लोग दंग रह जाते थे। पिताजी की मृत्यु के बाद 1856 में कोलकाता वापस आकर उन्होंने कई प्रसिद्ध अंग्रेजी कविताओं का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया।

कोलकाता में उन्होंने बंगला भाषा में कविताएँ लिखनी प्रारम्भ कीं। 1860 में लिखित ‘तिलोत्मा सम्भव’ इनकी पहली बंगला कविता थी। 1862 में वे कानून पढ़ने के लिए इंग्लैंड गये। 1866 में वहां से आकर वे कोलकाता के न्यायालय में नौकरी करने लगे। उन्होंने संस्कृत, बंगला, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं में भी प्रचुर काव्य साहित्य रचा है। यूरोपीय प्रभाव होने के बावजूद उनकी रचनाएं भारत और भारतीयता के रंग से परिपूर्ण हैं।

विदेश प्रवास के समय वे पेरिस में भी रहे। उन्होंने कानून के साथ फ्रेंच, जर्मन, हिब्रू आदि भाषाओं की काव्य कृतियों का भी अध्ययन किया। पहली पत्नी से तलाक के बाद उन्होंने एक फ्रेंच महिला से विवाह किया। कविता के साथ उन्होंने कई नाटक एवं काव्य नाटक भी लिखे। इनमें शर्मिष्ठा, पद्मावती, कृष्णा कुमारी, मेघनाद वध, व्रजांगना, वीरांगना, तीरांगना आदि प्रमुख हैं। सरल भाषा में होने के कारण इनके साहित्य को व्यापक लोकप्रियता मिली।

29 जून, 1873 को 49 वर्ष की आयु में कोलकाता में उनका देहांत हुआ। दुनिया छोड़ने से पूर्व वे भारतीय साहित्य के क्षेत्र में ऐसी समृद्ध परम्परा का निर्माण कर गये, जो लम्बे समय तक लेखकों का मार्गदर्शन करती रही।

-विजय कुमार

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