नादिया मुराद : जुल्म के खिलाफ उठी इराकी आवाज

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[email protected] । Dec 16 2018 11:54AM

हम बात कर रहे हैं नादिया मुराद की, जिन्हें हाल ही में नोबेल का शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें यह पुरस्कार कांगो के एक स्त्री रोग विशेषज्ञ डेनिस मुकवेगे के साथ संयुक्त रूप से दिया गया।

 नयी दिल्ली। उत्तरी इराक में अपना बचपन गुजारने वाली यह लड़की आज 25 बरस की है। उसके जहन में उसकी जिंदगी के अब तक गुजरे तकरीबन 8125 दिनों की अच्छी बुरी यादें होनी चाहिएं, लेकिन उसे याद है तो सिर्फ वह तीन महीने, जो उसने इस्लामिक स्टेट के चरमपंथियों की कैद में गुजारे। वह उन 90 दिनों की यातनाओं को याद करके सिहर उठती है और रूंधे गले से दुनिया से अपील करती है कि उसके जैसी बाकी लड़कियों के प्रति इस तरह बेपरवाह न रहें। 

हम बात कर रहे हैं नादिया मुराद की, जिन्हें हाल ही में नोबेल का शांति पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें यह पुरस्कार कांगो के एक स्त्री रोग विशेषज्ञ डेनिस मुकवेगे के साथ संयुक्त रूप से दिया गया। युद्धों अथवा सशस्त्र अभियानों के दौरान यौन हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल करने का पुरजोर विरोध करने वाली नादिया यजीदी समुदाय की हैं जो दुनिया के सबसे पुराने मजहबों में से एक माना जाता है।

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उत्तरी इराक में सीरिया की सीमा से सटे शिंजा इलाके के पास कोचू गांव में अपने छह भाइयों और भरे पूरे परिवार के साथ रहने वाली नादिया मुराद ने बलात्कार के खिलाफ जागरूकता फैलाने का काम किया, लेकिन उससे पहले उन्होंने इस घिनौने लफ्ज की जलालत को पूरे तीन महीने तक अपने शरीर पर झेला। उन्हें शिकायत है कि वह तेल का जखीरा या हथियारों की खेप नहीं थीं, इसलिए अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने उन्हें चरमपंथियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। 

आईएस के लड़ाके अगस्त 2014 में नादिया के गांव में घुस आए और तमाम पुरूषों और बूढ़ी महिलाओं को मौत के घाट उतारने के बाद नादिया और उनके जैसी बहुत सी लड़कियों को बंधक बना लिया। उन्हें मोसुल ले जाया गया। नादिया को यह तक याद नहीं कि तीन महीने की कैद के दौरान उनके साथ कितने लोगों ने कितनी बार बलात्कार किया।

तीन महीने तक नरक से भी बदतर हालात में रहने के बाद एक दिन मौका मिलने पर अपनी जान हथेली पर लेकर चरमपंथियों के चंगुल से बदहवास भागी नादिया ने मोसुल की गलियों में एक मुस्लिम परिवार का दरवाज़ा खटखटाया और मदद की गुहार लगाई। उन्होंने नादिया की मदद की और उन्हें इराक के स्वायत्त क्षेत्र कुर्दिस्तान तक पहुंचा दिया। यहां वह शरणार्थी शिविर में रहीं और वहां से निकलने के लिए प्रयास करती रहीं। इसी दौरान जर्मन सरकार की पहल पर वह कुछ और लोगों के साथ जर्मनी पहुंचने में कामयाब रहीं।


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इसके बाद उन्होंने आईएस के खिलाफ अपने स्तर पर जेहाद छेड़ा और उनकी कैद में रहने वाली महिलाओं और बच्चों के मानवाधिकार के लिए हर मंच पर आवाज उठाई। बेशक नादिरा ने एक भयावह दौर देखा, लेकिन अपनी उस जिंदगी से विचलित हुए बगैर वो दिनरात उन महिलाओं के लिए काम में जुटी हुई हैं, जो आज भी यौन दासता का नरक भुगत रही हैं। नादिया ने 'द लास्ट गर्ल : माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी एंड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट' में रूह कंपा देने वाले जुल्मों की दास्तान लिखी है। 

नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते हुए नादिया ने इस बात की शिकायत की कि उन्हें और उनके जैसी लड़कियों को जेहादियों से मुक्त कराने के लिए अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने कोई प्रयास नहीं किया। वह रूंधे गले से कहती हैं कि उनका वजूद तेल और हथियारों जैसे वाणिज्यिक हितों से कमतर रहा। वह चाहती हैं कि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय के बेपरवाह रवैए के खिलाफ अभियान चलाया जाए ताकि इस दुनिया को रहने की एक बेहतर जगह बनाया जा सके।

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