आतंकियों व पत्थरबाजों से निबटने का सेना का तरीका सही

आखिर सैनिक घुसपैठियों से देश की रक्षा करें या देश में ही देश का नमक खाकर गद्दारी कर रहे पथभ्रष्ट युवाओं से संघर्ष करें। जब सेना सख्ती करती है तो देश के सारे प्रतिक्रियावादियों को मानवाधिकार और ना जाने क्या क्या याद आ जाता है।

सोशल मीडिया पर इन दिनों कश्मीर में सेना को लेकर वायरल हो रहे दो वीडियों और उन पर प्रतिक्रियाएं गंभीर चिंता का विषय है। एक वायरल वीडियो में चुनाव कराकर आ रहे सैनिक के साथ कश्मीरी युवाओं द्वारा जिस तरह से अभद्रता की जा रही है और उसके बाद भी सैनिक द्वारा संयम बरतना अपने आप में भारतीय सैनिकों की सहनशीलता का परिचायक है तो दूसरे वायरल वीडियो में सैनिकों द्वारा सेना के वाहन पर एक पत्थरबाज को बोनट पर बांधकर सुरक्षा कवच की तरह उपयोग करते हुए दिखाया गया है। इस वीडियो के मुद्दे को संसद में भी उठाया गया है और फारुक अब्दुल्ला−उमर अब्दुल्ला सहित अनेक नेताओं ने इस पर आपत्ति व्यक्त की है। भले ही वीडियो की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाए जा रहे हों पर सोशल मीडिया पर दोनों ही वीडियो प्रमुखता से देखे जा रहे हैं और इन वीडियो पर आ रही मुखर प्रतिक्रियाएं जनभावनाओं को समझने और तथाकथित मानवाधिकारवादियों की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त हैं।

प्रश्न यह उठता है कि देश की सरहदों की रक्षा करते हुए जान न्यौछावर करने वाले सैनिकों का बलिदान क्या इन प्रतिक्रियावादी नेताओं को दिखाई नहीं देता। ना ही तथाकथित मानवाधिकारवादियों को सैनिकों के साथ बदसलूकी या आए दिन हो रही पत्थरबाजी दिखाई दे रही है। संभवतः हमारा देश ही दुनिया का एकमात्र ऐसा देश होगा जहां जिम्मेदार लोग गैरजिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हैं। कश्मीर की समस्या आज की समस्या नहीं है। यह भी सही है कि जो भी सरकार आई उसने अलगाववादियों को गोद में बैठाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास किया। अलगाववादियों को देश की राजधानी में जगह दी गई और इतना सब कुछ होने के बावजूद यही अलगाववादी देश की अस्मिता को खुली चुनौती दे रहे हैं। यह अलगाववादी जहां एक और अपने और अपने परिवार के लिए देश की सारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं वहीं देश विरोधियों के साथ खड़े होकर देश का माहौल भी बिगाड़ रहे हैं। आखिर यह सब हो क्या रहा है। सवाल यह उठता है कि अलगाववादियों और इनके रहनुमाओं की यह मनमानी कब तक चलेगी। आखिर इसका कोई अंत तो होगा।

सवाल यह उठता है कि कश्मीरी युवाओं को बरगलाने वाली देश विरोधी ताकतों की मंशा और जो कुछ कश्मीर में हो रहा है उसको अधिकांश राजनीतिक दल क्यों नहीं समझना चाहते? प्रश्न यह भी है कि क्या देश की अस्मिता कोई मायने नहीं रखती? क्या देशविरोधी ताकतों को हवा देना राष्ट्र विरोधी गतिविधि नहीं मानी जा सकती? कितने दुर्भाग्य की बात है कि कश्मीर में आये दिन आतंकवादी गतिविधियां बढ़ रही हैं। सरहदों की रक्षा के लिए तैनात सैनिकों को जहां एक ओर इन पाकिस्तानी घुसपैठियों को पकड़ने, मार गिराने व आम नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने का गुरुतर दायित्व निभाना होता है और अपनी जान हथेली पर रखकर घुसपैठियों के ठिकानों पर कार्यवाही करनी होती है वहीं कश्मीर के ही बरगलाए हुए युवा घुसपैठियों की गोलियों से जूझ रहे देश के सैनिकों के खिलाफ दूसरा मोर्चा खोल देते हैं और आगे−पीछे, दाएं−बाएं से पत्थरों की बौछार शुरु कर देते हैं। आखिर सैनिक घुसपैठियों से देश की रक्षा करें या देश में ही देश का नमक खाकर गद्दारी कर रहे पथभ्रष्ट युवाओं से संघर्ष करें। हद तो तब होती है जब सेना इन पत्थरबाजों पर पैलेट गन या दूसरी किसी तरह से सख्ती करती है तो देश के सारे प्रतिक्रियावादियों को मानवाधिकार और ना जाने क्या क्या याद आ जाता है। सारा देश सैनिकों पर ही नजर आने लगता है। पिछले दिनों सेना प्रमुख के सख्त संदेश पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं कुछ राजनीतिक दलों और कथित मानवाधिकारवादियों ने दीं वह निराशाजनक है। आखिर सैनिकों का भी घर परिवार है। कभी इन प्रतिक्रियावादियों ने यह भी सोचा होता कि देश की रक्षा करते हुए इन फिदायिनों या आतंकवादियों या अलगाववादियों या पत्थरबाजों के कारण जब किसी सैनिक को शहीद होना पड़ता है तो शहीद की शहादत पूरे देश के लिए होती है। कभी सोचा है कि वह शहीद भी किसी मां का लाल है, पिता का दुलारा है, पत्नी का जीवन है, बच्चों को प्यार, दुलार और पालनहार है। आखिर यह सब कब तक चलेगा?

केवल सत्ता सुख या विरोध के लिए विरोध करने के लिए यह लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाते हैं। पिछले दिनों ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में आईएसआईएस के खिलाफ कार्यवाही करते हुए बहुत बड़ा बम गिराया तो क्या किसी अमेरिकी ने इसका विरोध किया? अमेरिका ही क्या वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा को अलग कर दिया जाए तो दुनिया के किसी देश ने इसका खुलकर विरोध नहीं किया। क्या इस बम विस्फोट में केवल और केवल मात्र आईएसआईएस के लोग ही मारे गए हैं? पर इस पर किसी ने प्रश्न नहीं उठाया क्योंकि यह कार्यवाही आतंकवादी संगठन के खिलाफ है और इस कार्यवाही से दूसरे लोग भी प्रभावित हो सकते हैं पर ध्येय आतंकवादियों को सबक सिखाना है। हमारे यहां तो पत्थरबाजों के खिलाफ कार्यवाही की सुगबुगाहट मात्र से विरोधियों के तेवर गरम हो जाते हैं।

सवाल यह है कि पैलेट गन पर आवाज उठाने वालों ने कभी सैनिकों पर पत्थर फेंकने वालों पर प्रश्न उठाया है, कभी उन्हें कठघरे में खड़ा किया है, कभी यह कहा है कि जिस तरह से पेलट गन से पत्थरबाजों को शारीरिक हानि व मौत तक की संभावना होती है उसी तरह से पत्थरबाजों की काली करतूत से सैनिकों को भी चोट लगती है। कभी सोचा है सैनिक अपनी जान जोखिम में डालकर एक ओर घुसपैठियों की गोलीबारी से लड़ रहा है तो दूसरी ओर पत्थरबाजों का शिकार हो रहा है। ऐसे में पत्थरबाजों के खिलाफ उन्हीं की भाषा में बात की जाती है तो उसका विरोध क्यों? देश की धड़कन को सोशल मीडिया पर आ रही प्रतिक्रियाओं से समझा जा सकता है। सेना के वाहन के आगे कश्मीरी युवक को बांधकर पेट्रोलिंग करते सैनिकों के इस वीडियो पर पहली और महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया यही आ रही है कि सेना के वाहन के पीछे वाले हिस्से पर भी इसी तरह से पत्थरबाजों को बांधकर सेना के जवान कश्मीर में गश्त व कार्यवाही करें तभी इन पर काबू पाया जा सकता है। बल्कि देश की आवाज तो यह भी कहती है कि देशविरोधी प्रतिक्रिया देने वाले पत्थरबाजों का पक्ष लेने वालों के खिलाफ भी कार्यवाही हो तो शायद कोई सबक मिल सके। सेनाध्यक्ष और सेना की कार्यवाही के खिलाफ आवाज उठाने वालों को समझना होगा कि अब देश यह सब ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेगा। देखा जाए तो सरकार के सख्त कदमों को पांच प्रदेशों के चुनाव परिणाम से भी जोड़कर देखा जा सकता है। इसी तरह से जिस तरह से फारुक अब्दुल्ला वीडियो पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने और केवल 7−8 प्रतिशत मतदान पर जीत का जश्न मना रहे हैं उन्हें खुद सोचना और समझना होगा कि उन्हें वोट देने के लिए भी 9 प्रतिशत से ज्यादा लोग मतदान करने नहीं आए हैं। ऐसे में किस जीत पर खुशी मना रहे हैं, यह विचारणीय है। बात साफ है, देश की आवाज स्पष्ट है, सेना और सरकार पत्थरबाजों के खिलाफ जिस तरह से सबक सिखाने की पहल कर रहे हैं देश की आम जनता का पूरा समर्थन है।

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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