अटलजी की हर बात ही निराली है, फाकाकशी के दिनों में मस्त रहते थे

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विजय कुमार । Aug 20 2018 1:40PM

यह बात अटल जी के राजनीति में आने से पहले की है। उन दिनों लखनऊ से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य, दैनिक स्वदेश और सांयकालीन तरुण भारत भी निकलते थे।

यह बात अटल जी के राजनीति में आने से पहले की है। उन दिनों लखनऊ से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य, दैनिक स्वदेश और सांयकालीन तरुण भारत भी निकलते थे। अब पांचजन्य दिल्ली से, स्वदेश मध्यप्रदेश से तथा तरुण भारत महाराष्ट्र में कई स्थानों से निकलता है। यद्यपि इन सबमें और लोग भी थे; पर मुख्य जिम्मेदारी अटल जी की ही थी। अतः वे दिन भर इसी में डूबे रहते थे। 

कई बार वे दोपहर भोजन के लिए नहीं पहुंचते थे, तो प्रांत प्रचारक भाऊराव उन्हें बुलाने आ जाते थे। उनके आग्रह पर अटल जी कागजों से जूझते हुए कहते थे, ‘‘भोजन करने गया, तो अखबार नहीं निकलेगा।’’ भाऊराव एक-दो बार फिर आग्रह करते थे। लेकिन फिर वही उत्तर। अतः उस दिन अटल जी और भाऊराव दोनों ही भूखे रह जाते थे।

उन दिनों संघ की तथा इन पत्र-पत्रिकाओं की आर्थिक दशा ठीक नहीं थी। दरी पर रखे कुछ लोहे के ट्रंकों में सब सामग्री रहती थी। उन पर कागज रखकर ही सम्पादकी, प्रूफ रीडिंग आदि होती थी। प्रचारक होने के नाते अटल जी बिना किसी वेतन के काम करते थे। राष्ट्रधर्म के कोषाध्यक्ष से उन्होंने एक बार कहा, ‘‘पांच रुपये दीजिए। नयी चप्पल लेनी है।’’ स्वभाव से अति कठोर कोषाध्यक्ष जी उस दिन अच्छे मूड में थे। उन्होंने पैसे दे दिये।

अटल जी ने वचनेश जी के साथ बाजार में पहले दो भुट्टे खाये और फिर लस्सी पी। इसमें काफी पैसा खर्च हो गया। वचनेश जी ने पूछा, ‘‘अब चप्पल कैसे लोगे ?’’ अटल जी ने मस्ती में जवाब दिया, ‘‘अभी इतनी खराब नहीं हुई है। मोची से ठीक करा लेते हैं, तो कुछ दिन और चल जाएगी।’’ अर्थात फाकाकशी के दौर में भी मस्ती का अभाव नहीं था। इसी के बल पर संघ और बाकी सब काम खड़े हुए। 

1989 में नारायण दत्त तिवारी उ.प्र. में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री थे। प्रदेश के एक वयोवृद्ध साहित्यकार श्रीनारायण चतुर्वेदी (भैया साहब) को उ.प्र. हिन्दी संस्थान ने एक लाख रु. वाला अपना सर्वोच्च ‘भारत-भारती’ सम्मान देने की घोषणा की। 14 सितम्बर ‘हिन्दी दिवस’ पर कार्यक्रम होना था; पर उससे एक दिन पूर्व 13 सितम्बर को मुख्यमंत्री ने उर्दू को द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया। राज्य के हिन्दी प्रेमियों में आक्रोश की लहर दौड़ गयी। लखनऊ निवासी भैया साहब प्रखर हिन्दी सेवी थे। उन्होंने इसके लिए अंग्रेजों की नौकरी ठुकरा दी थी। वृद्धावस्था के कारण इन दिनों वे बिस्तर पर थे। उन्होंने इस निर्णय के विरोध में भारत भारती सम्मान ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि मैंने अपने जीवन में एक लाख रु. कभी एक साथ नहीं देखे; पर देश विभाजक उर्दू को द्वितीय राजभाषा बनाना मुझे स्वीकार नहीं है। पूरे राज्य में हड़कम्प मच गया। 

भैया जी राष्ट्रधर्म और पांचजन्य के नियमित लेखक रहे थे। अतः अटल जी उनका बड़ा आदर करते थे। उन्होंने घोषणा कर दी कि हम जनता की ओर से भैया साहब को सम्मानित करेंगे। उनके आह्वान पर एक लाख रु. से भी अधिक धन एकत्र हो गया। फिर अटल जी ने सार्वजनिक सभा में भैया जी के पुत्र को वह राशि भेंट की तथा घर जाकर भैया जी को ‘जनता भारत भारती’ सम्मान प्रदान किया।

यह घटना 10 मई, 2003 की है। दिल्ली में पांचजन्य की ओर से संसद के बालयोगी सभागार में नचिकेता सम्मान का कार्यक्रम था। राष्ट्रधर्म में सहायक संपादक के नाते मैं भी वहां उपस्थित था। मंच पर प्रधानमंत्री अटल जी भी थे। कुछ दिन पूर्व ही कुछ पत्रकारों ने षड्यंत्रपूर्वक भा.ज.पा. के अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को जाल में फंसाया था। अटल जी ने पहला वाक्य कहा, ‘‘मैं आजकल पुरस्कार बांट रहा हूं और तिरस्कार बटोर रहा हूं।’’ पूरे सभागार में सन्नाटा छा गया। अटल जी का चेहरा बता रहा था कि उन्हें इस घटना से कितना दुख पहुंचा है। 

रात में प्रधानमंत्री निवास पर भोजन करते हुए मैंने बताया कि मैं पांचजन्य में छह लाइनों का छोटा-सा कॉलम लिखता हूं। अटल जी ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘हां, मैं उसे पढ़ता हूं।’’ मेरे जैसे छोटे लेखक को इतनी तारीफ ही काफी थी। मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। 

-विजय कुमार

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