बसपा के ‘एकला चलो’ से यूपी में होगा त्रिकोणीय मुकाबला! मुसलमानों के साथ आने की उम्मीद में ‘हाथी’ मदमस्त

अगले वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश की सियासत अंगड़ाई लेने लगी है। भारतीय जनता पार्टी हो या फिर समाजवादी पार्टी अथवा बसपा-कांग्रेस सब रणनीति बनाने में लगे हैं,लेकिन एक बाद साफ हो गई है कि 2024 के आम चुनाव के लिए बसपा ने एकला चलो का ऐलान करके यह तय कर दिया है कि यूपी की 80 लोकसभा सीटों पर चुनाव त्रिकोणीय तो होगा ही, इसके अलावा कांग्रेस के वर्चस्व वाली कुछ सीटों जैसे रायबरेली, अमेठी में मुकाबला चौतरफा भी हो सकता है। 2007 से लगातार कमजोर हो रही बसपा को 2024 के आम चुनाव से काफी उम्मीद है। उसे 2019 के मुकाबले बढ़त की उम्मीद है।बसपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर लड़ा था और दस सीटों पर जीत हासिल की थी। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमों मायावती को 2024 में ज्यादा बेहतर करने की उम्मीद इस लिए है क्योंकि पिछले कुछ उप-चुनावों में बसपा के प्रदर्शन में काफी सुधार आया है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि मुसलमान वोटरों ने बसपा प्रत्याशी के समर्थन में खूब वोटिंग की थी। सपा से छिटक कर मुस्लिम वोटरों का रूझान बसपा की तरफ बढ़ा है। खासकर आजमगढ़ लोकसभा उप-चुनाव में जिस तरह से बसपा प्रत्याशी गुड्डू जमाली ने भाजपा-सपा को टक्कर दी,उससे बसपा के हौसलों को कुछ ज्यादा ही उड़ान मिल गई हैं, तो यूपी की राजनीति के कई बड़े मुस्लिम चेहरों ने भी बसपा का दामन थाम लिया है।
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बाद के एकला चलो ने यानी 2014 के चुनाव में बसपा का वोट बैंक सिकुड़ा और पार्टी राज्य की सत्ता वर्ष 2012 में गंवाने के बाद लोकसभा से साफ हो गई। मायावती ने इस चुनाव में पूरा जोर लगाया। लेकिन, भाजपा के ब्रांड मोदी के आगे न मायावती टिकीं और न ही सत्ताधारी समाजवादी पार्टी। इस चुनाव में भाजपा गठबंधन यानी एनडीए ने 73 सीटों पर जीत दर्ज की। 5 सीटें सपा और 2 सीटें बसपा के पाले में गई। पार्टी चुनाव में 19.60 फीसदी वोट ही मिले। 22 से 25 फीसदी वोट बैंक की राजनीति करने वाली मायावती का आधार वोट खिसका। इसके बाद से बसपा संभल नहीं पाई है।
स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं ने भाजपा का दामन थामा तो ओबीसी वोट बैंक मजबूती के साथ भाजपा से जुड़ गया। भाजपा में गए तो दलित और अति पिछड़े वर्ग के वोटरों को एक नया ठिकाना दिखा। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में इसका असर दिखा। बसपा को 22.24 फीसदी वोट तो मिले, लेकिन पार्टी सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद एक बार फिर 26 साल बाद सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। यूपी की राजनीति में कल्याण सिंह और राम मंदिर मुद्दे की हवा निकालने वाली मुलायम सिंह यादव और काशीराम की जोड़ी की दोनों पार्टियां एक घुरी पर आईं।
2019 के चुनाव में इसका असर दिखा। 2014 के लोकसभा चुनाव में 71 सीट जीतने वाली भाजपा 62 सीटों पर आई। एनडीए ने कुल 64 सीटें जीतीं। यानी, 5 साल में 9 सीटों का नुकसान। फायदे में मायावती की बसपा रही। पार्टी ने सपा से गठबंधन का फायदा उठाते हुए 10 सीटों पर जीत दर्ज की। वहीं, सपा 5 सीटों पर ही जीत दर्ज कर पाई। कांग्रेस घटकर एक सीट पर पहुंच गई। वर्ष 2019 के चुनाव में बसपा का वोट शेयर सपा से गठबंधन के बाद भी 19.3 फीसदी रहा। सपा 18 फीसदी वोट शेयर के साथ तीसरे स्थान पर रही। कांग्रेस 6.31 फीसदी वोट शेयर ही हासिल कर पाई। भाजपा ने 49.6 फीसदी वोट शेयर के साथ प्रदेश की राजनीति पर अपना दबदबा दिखाया।
यूपी चुनाव 2022 भी कांग्रेस और बसपा के लिए मुश्किलों भरा रहा है। उत्तर प्रदेश में चार बार सरकार बनाने वाली बसपा केवल 12.88 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई। पार्टी को केवल एक सीट पर जीत मिली। विधानसभा में विलुप्त होने से तो पार्टी बच गई, लेकिन आधार वोट ही खो दिया। भाजपा ने एक बार फिर सभी दलों को पछाड़ा। पार्टी ने 41.76 फीसदी वोट शेयर हासिल किया। वहीं, सपा 32.02 फीसदी वोट शेयर के साथ दूसरे स्थान पर रही। वहीं, कांग्रेस 2.4 फीसदी वोट शेयर हासिल कर पाई। कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में 2 सीटों पर जीत मिली।
बहुजन समाज पार्टी लोकसभा चुनाव 2024 में पांच साल पहले के रिजल्ट को सुधारने की कोशिश करती दिख रही है। इसके लिए मायावती लगातार जिला स्तर के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक कर रही हैं। एक बार फिर दलित, ओबीसी, मुस्लिम समीकरण को साधने की कोशिश है। बसपा का मास्टरप्लान रेडी है। मायावती की हरी झंडी मिल चुकी है। इमरान मसूद जैसे पश्चिमी यूपी के कद्दावर नेताओं को पार्टी ने जोड़कर अपनी रणनीति साफ कर दी है। हालांकि, मायावती को एक ऐसे साथी की जरूरत है, जो वोट बैंक को उनकी तरफ ट्रांसफर कराए। कांग्रेस यूपी में ब्राह्मण, ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक पर अपनी पकड़ रखती थी। इनके सहारे सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की कोशिश करती थी। मायावती ने बहुजन वोट बैंक पर फोकस किया है। ऐसे में वह कांग्रेस के सहारे सवर्ण वोट बैंक को साधने की कोशिश कर सकती है। इन वोटों को गठबंधन के सहारे एक-दूसरे को ट्रांसफर कराने का प्रयास होगा।
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बसपा सांसद की राहुल गांधी की यात्रा में शामिल होने के बाद जिस प्रकार के कयास लग रहे हैं, उससे साफ है कि यूपी की राजनीति में दोनों राजनीतिक अकेले प्रभाव खो रहे हैं। विपक्ष की राजनीति का चेहरा अभी समाजवादी पार्टी बन गई है। उस मोमेंटम को यूपी निकाय चुनाव से बदलने की कोशिश है। अगर इस प्रकार की चर्चाओं का निकाय चुनाव के परिणाम पर असर दिखता है, तो निश्चित तौर पर सपा इसे अगले लोकसभा चुनाव के मैदान में आजमा सकती है।
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