बहुमत होने के बाद भी विपक्ष की सरकारों को हटा देती थी कांग्रेस

congress removes opposition majority government

इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को स्मरण कीजिए, यहां संविधान ही नहीं, पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपहरण किया गया। इसके अलावा बहुमत होने के बाद भी देश की कई राज्य सरकारों को अपदस्थ किया।

सरकार बनाने के लिए उठे राजनीतिक तूफान के बीच आखिरकार कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के नेता बी.एस. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली। लेकिन सरकार बनने के बाद यह तूफान थम गया हो, ऐसा अभी नहीं लग रहा। कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर बहुमत के आंकड़ों के साथ अभी भी अपनी दावेदारी पर अड़े हुए हैं। कर्नाटक में जहां एक तरफ येदियुरप्पा मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, वहीं कांग्रेस के विधायक बंगलुरु में गांधी प्रतिमा के समक्ष शक्ति प्रदर्शन कर रहे थे। इस शक्ति प्रदर्शन में तीसरे नंबर पर रहने वाली जनता दल सेक्युलर के नेता भी पहुंचे थे। कांग्रेस के प्रदर्शन से एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि वह केवल अपनी जिद को ही पूरा करना चाहती है। कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने पर कांग्रेस ने आरोप लगाया कि भाजपा ने लोकतंत्र की हत्या की है, इस आरोप का भाजपा ने भी उसी के अंदाज में जवाब दिया है।

सन् 1982 में हरियाणा में सरकार बनने की घटना को याद करें तो कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ जाता है। हुआ कुछ यूं कि चौधरी देवीलाल बहुमत का समर्थन पत्र लेकर राजभवन में राज्यपाल के बुलावे का इंतजार कर रहे थे, देवीलाल के पास बहुमत की संख्या होने के बाद भी 35 सदस्यों वाली कांग्रेस के भजनलाल को राजभवन के एक कमरे में मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी। अब कांग्रेस लोकतंत्र की हत्या की बात कर रहे हैं, तो यह क्या था। वास्तव में कांग्रेस ने जैसा बोया है, वैसा ही काट रही है।

बुधवार की रात्रि में जैसे ही राज्यपाल ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, वैसे ही कांग्रेस सरकार बनाने की जंग जीतने के लिए उतावली होती हुई दिखाई दी। उसने रात्रि में ही सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, उसके बाद सुबह तक यह सबके सामने आ गया कि शपथ ग्रहण पर किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई जा सकती। कांग्रेस के नेताओं को यह अच्छी तरह से मालूम है कि राज्यपाल के विवेकाधिकार को किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती, राज्यपाल को यह संविधान सम्मत अधिकार है। हां यह जरूर है कि पहले राज्यपाल को सबसे बड़े दल को ही सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए, बाद में वह बहुमत सिद्ध नहीं कर पाती तब अन्य विकल्पों के बारे में सोचना चाहिए। ऐसे में कांग्रेस ने यह कैसे सोच लिया कि यह लोकतंत्र की हत्या है। अगर कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर के पास बहुमत लायक विधायकों की संख्या है तो निश्चित ही भाजपा बहुमत सिद्ध नहीं कर पाएगी और फिर राज्यपाल को इस गठबंधन को अवसर देना ही पड़ेगा। ऐसे में कांग्रेस के पास अब भी विकल्प की गुंजाइश है, इसलिए अब कांग्रेस को प्रतीक्षा करनी ही चाहिए, क्योंकि राज्यपाल ने सबसे बड़े दल के रूप में जीतकर आई भाजपा को सरकार बनाने का अवसर दिया है। जो एक प्रकार से ठीक कदम ही है।

वैसे यहां यह कहना समीचीन ही होगा कि कांग्रेस सरकार बनाने के लिए जिद कर रही है। अगर राज्यपाल ने सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया है और येदियुरप्पा को शपथ दिला दी है तो यह उनका संवैधानिक अधिकार है। इस मामले में किंतु परंतु का सवाल ही नहीं है और न ही इस मामले को गोवा और बिहार से जोड़कर देखा जा सकता है। कांग्रेस इस मामले में बिलकुल वैसा ही करती हुई दिखाई दे रही है, जैसे रजत और कांस्य पदक पाने वाले खिलाड़ी पहले स्थान पर रहने वाले का स्वर्ण पदक छीनकर यह प्रयास करें कि इस पर उनका अधिकार है। कौन नहीं जानता कि कांग्रेस कर्नाटक में तीसरे नंबर पर रहने वाली पार्टी के नेता कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रयास कर रही है। तीसरे नंबर पर रहने का मतलब करारी हार। यह बात भी सही है कि तीसरे नंबर पर रहने वाली पार्टी जनता की पहली पसंद कभी नहीं बन सकती, लेकिन कांग्रेस उसे पहली पसंद बनाने की जिद कर रही है। क्या इसे लोकतंत्र कहा जा सकता है। यह बात भी सही है कि आज कांग्रेस जिन सिद्धांतों की बात कर रही है, कभी उन सिद्धांतों को कांग्रेस ने चकनाचूर किया है।

इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को स्मरण कीजिए, यहां संविधान ही नहीं, पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपहरण किया गया। इसके अलावा बहुमत होने के बाद भी देश की कई राज्य सरकारों को अपदस्थ किया। आज कांग्रेस के समक्ष जैसे को तैसा मिला वाली स्थिति बन रही है, ऐसे में अब उन्हें लोकतंत्र याद आ रहा है। जबकि उस समय देश के विरोधी दलों ने कांग्रेस के इस अनैतिक कार्य का जबरदस्त विरोध किया था, लेकिन कांग्रेस ने किसी की भी नहीं सुनी। सरकार का विरोध करने वालों को जेल की यातनाएं भी सहनी पड़ीं। हालांकि देश की राजनीति में ऐसा भी हुआ है कि दो राजनीतिक दलों की संख्या बहुमत का आंकड़ा प्राप्त कर लेती है तो उसे भी सरकार बनाने का अवसर मिल सकता है, लेकिन यह राज्यपाल का विवेकाधिकार है कि वह किसको सरकार बनाने के लिए बुलाते हैं।

कर्नाटक को लेकर ऐसा लगता है कि कांग्रेस के मन में भावी संकल्पनाओं के प्रति एक भय पैदा हुआ है, वह यह कि जिस प्रकार से राहुल गांधी के पार्टी प्रमुख रहते हुए कांग्रेस पार्टी देश से विलोपित होती जा रही है, कहीं वैसा ही तमगा कर्नाटक में भी न लग जाए। क्योंकि कांग्रेस के पास यही एक बड़ा राज्य था, जिसमें उसकी सत्ता थी। शेष तो सभी छोटे राज्य ही थे। कर्नाटक में कांग्रेस की नाकामी को छुपाने के प्रयास में ही इतना बड़ा नाटक कर रही है। यह बात सही है कि जब कर्नाटक विधानसभा के परिणाम आए थे, तब सोशल मीडिया पर कांग्रेस को करारी हार में प्रचारित किया गया था। अपनी करारी हार को मीठी हार में बदलने के लिए ही जनता दल सेक्युलर से कांग्रेस ने हाथ मिलाया है। वास्तविकता यही है कि जनता दल सेक्युलर के नेता कांग्रेस को कतई पसंद नहीं करते। कांग्रेस ने देवेगौड़ा के साथ क्या किया, इस बात को सभी जानते हैं। दूसरी सबसे प्रमुख बात यह भी है कि कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया लम्बे समय तक कांग्रेस के विरोध की राजनीति करते रहे, इसलिए प्रदेश के जमीनी कांग्रेस नेता सिद्धारमैया को मन से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे स्वर कांग्रेस में भी कई बार उठे हैं, और अंदरुनी तौर पर अभी भी उठ रहे हैं। भले ही खुलकर कोई नहीं बोल रहा, लेकिन सत्यता यही है कि जनता दल सेक्युलर को जिस प्रकार से समर्थन दिया है, उससे कांग्रेस के बड़े नेता भी खफा हैं।

अब आगे कांग्रेस क्या करेगी, अपने विधायकों को टूटने से बचाएगी या फिर ऐसे ही लोकतंत्र की हत्या करने की बात करती रहेगी। कांग्रेस सर्वोच्च न्यायालय में तो चली गई है, लेकिन अगर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय कांग्रेस के विरोध में आएगा तो क्या कांग्रेस इसे स्वीकार करेगी। हालांकि कांग्रेस के चरित्र को देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि वह अपने विरोध में निर्णय आने पर मान जाएगी, क्योंकि अब तो वह न्यायिक संस्थाओं पर भी खुलकर सवाल उठा रही है। ऐसे में लगता है कि कांग्रेस को देश में अब किसी पर भी विश्वास नहीं रहा। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय में गुरुवार को इस पर सुनवाई होगी। अब देखना यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में क्या कहता है।

-सुरेश हिन्दुस्थानी

(लेखक वरिष्ठ स्तंभ लेखक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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