कर्नाटक में विपक्ष का जमावड़ा, मूषक-बिलाव की दोस्ती

Consolidation of Opposition in Karnataka, Friendship of Tomcat
राकेश सैन । May 26 2018 4:41PM

कर्नाटक में जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) के नेता एचडी कुमारस्वामी की मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी के दौरान विपक्ष के जमावड़े को देख उस मूषक और बिलाव की मित्रता की कहानी स्मृति पटल पर तैर गई।

कर्नाटक में जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) के नेता एचडी कुमारस्वामी की मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी के दौरान विपक्ष के जमावड़े को देख उस मूषक और बिलाव की मित्रता की कहानी स्मृति पटल पर तैर गई। बहेलिए के जाल में चूहा और बिल्ला एक साथ फंस गए। जाल के बाहर नेवला भी गश्त पर था। चूहा जाल कुतर कर तुरंत निकल तो सकता था परंतु बिलाव से दूर जाता तो नेवला उसे आहार बना लेता। बिलाव को जाल से मुक्ति के लिए चूहे की ही जरूरत थी। परिस्थितिवश दोनों अपनी जन्मजात शत्रुता भुला कर एकता की युगलबंदी करने लगे। कहानी का अंत यह है कि यह दोस्ती केवल टाईमपास थी।

बेंगलुरु के जमावड़े में सोनिया गांधी के साथ नजर आए आम आदमी पार्टी के प्रमुख और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल, सीपीआई नेता सीताराम येचुरी के साथ दिखीं तृणमूल कांग्रेस अध्यक्षा ममता बैनर्जी और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने बसपा सुप्रीमो मायावती के साथ मंच साझा किया, तेलगु देशम पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू कांग्रेसी नेताओं से गलबहियां डालते दिखे तो देवेगौड़ा परिवार के राजनीतिक शत्रु कहे जाने वाले डीके शिवकुमार उसी परिवार के युवराज के ताजपोशी समारोह में छतर पकड़े दिखे। माना कि राजनीतिक शत्रुता या मित्रता की तुलना मूषक-बिलाव संबंधों से नहीं की जा सकती परंतु दोनों के समक्ष मजबूरी एक सी है और वो है कि किसी न किसी तरह अपनी जान बचाओ। विरोधी दलों के बीच गठजोड़ की बातें केवल मीडिया जनित कल्पना और जमावड़े को गठजोड़ बताना अति उत्साह कही जा सकती है परंतु यदि भविष्य में भानुमती का कुनबा जुट भी जाता है तो भी सवाल वहीं का वहीं है कि यह सफल होगा कि नहीं? क्या नरेंद्र मोदी या भाजपा विरोध के नाम पर जनता इन्हें दिल्ली दरबार की चाबीयां सौंप देगी?

केंद्र में मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ सरकार (NDA) के गठन को मई महीने के अंतिम सप्ताह में चार साल पूरे हो गए। समय सरकार के कामकाज के आकलन का है तो विपक्ष के बही खाते जांचना भी तो बनता ही है। आखिर वर्तमान में विपक्ष के पास कौन सा मुद्दा है जिसको लेकर वह जनता के बीच जाने वाला है? याद करें आज से चार साल पहले का वातावरण जब देश भ्रष्टाचार व नितीगत विकलांगता के चलते दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ था। चाहे वर्तमान में भी विपक्ष सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप तो लगाता है, पंजाब नैशनल बैंक घोटाला, नीरव मोदी, विजय माल्या, माहुल चौकसी जैसे बड़े बैंक डिफाल्टरों के देश से भागने के उदाहरण भी देता है परंतु वस्तुस्थिति यह है कि जनता की नजरों में आज सरकार भ्रष्टाचार से लड़ती दिख रही है। मोदी सरकार ने जिस तेजी से बैंकिंग क्षेत्र में सुधार किए, बैंक डिफाल्टरों पर शिकंजा कसा, रिकवरी पर ध्यान दिया, दिवालिया कानून में सुधार, रियल एस्टेट को नियमित करने का काम किया उसका असर दिखने लगा है। विपक्ष की लाख तोमहतों के बावजूद हर बार के चुनाव परिणाम बताते हैं कि जनता जीएसटी व नोटबंदी को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई के कदमों के रूप में ले रही है। स्वच्छता अभियान, उज्जवला योजना के तहत हर गांव और सौभाग्य योजना के तहत घर-घर बिजली पहुंचाने के काम से लोगों में सरकार के प्रति सकारात्मक संदेश गया है। देश में ढांचागत विकास, 31 करोड़ गरीब परिवारों के बैंक खाता खुलवाने, सरकारी सहायात सीधे रूप से उनके खाते में जाने, 3 करोड़ महिलाओं को रसोई गैस सिलेंडर उपलब्ध करवाने आदि अनेक तरह की योजनाएं पिछले चार सालों में सफल हुई हैं।

संभावित संगठित विपक्ष अगर भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाता भी है तो क्या देश की जनता मायावती पर विश्वास करेगी जिन पर कई तरह के भ्रष्टाचार के केस विचाराधीन हैं। क्या इस मुद्दे पर कांग्रेस विशेषकर सोनिया गांधी या राहुल गांधी जनता का ध्यान आकर्षित कर पाएंगे जो नैशनल हेराल्ड भ्रष्टाचार के आरोप में जमानत पर बाहर हैं। अरविंद केजरीवाल जो देश की राजनीति में हास्य विनोद की वस्तु बन कर रह गए हैं क्या मोदी के विरुद्ध कोई प्रभावशाली मुद्दा पेश कर पाएंगे? जातिवादी नेता मायावती और लालू प्रसाद यादव किस तरह जनता को समझा पाएंगे कि उनकी सहभागिता वाली सरकार देश में जातीय तनाव कम कर सकेगी। अखिलेश, ममता बैनर्जी जैसे धुर अल्पसंख्यकवादी राजनीति करने वाले नेता कैसे विश्वास दिलवा पाएंगे कि उनकी सरकार सबको साथ लेकर सबका विकास करेगी। भारतीय समाज 1990 के दशक वाला नहीं रहा जब धर्मनिरपेक्षता या सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे भुनाए जाते रहे। सूचना क्रांति के युग में जन्मी पीढ़ी विकास चाहती है जो कि विपक्ष के इस संभावित गठजोड़ के एजेंडे में दिखाई नहीं दिया है। पिछले चार सालों में कांग्रेस सहित सभी दलों की विपक्ष दल के रूप में कारगुजारी देखी जाए तो बहुत कम ऐसे क्षण आए जब विपक्ष अपना संवैधानिक दायित्व निभाता दिखा। संसद व विधानसभाओं में चर्चा से भागते हुए केवल और केवल शोरशराबा करना, कार्रवाई रोकना या विधानसभा चुनावों के प्रचार अभियानों में सरकार को घेरना ही विपक्ष का दायित्व नहीं है। पिछले चार सालों में विपक्ष व इसके नेताओं ने देश की जनता से जुडऩे का कोई काम नहीं किया यह एक कड़वी सच्चाई है।

बेंगलुरु में एकत्रित हुए मोदी विरोधी दल न केवल लोकप्रियता के धरातल पर उतार-चढ़ाव का सामना कर रहे हैं बल्कि अपने-अपने प्रदेशों में परस्पर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी हैं। पंजाब और दिल्ली में आप की प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस है, बंगाल में वामदलों व तृणमूल, आंध्र प्रदेश में टीडीपी और कांग्रेस, खुद कर्नाटक में जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) और कांग्रेस, यूपी में सपा और बसपा व महाराष्ट्र में कांग्रेस व शरद पवार की नैशनल कांग्रेस का अस्तित्व एक दूसरे के विरोध पर खड़ा है। क्या ये सभी दल अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में एक दूसरे को शक्ति बढ़ाने का मौका देंगे यह कहना अभी कठिन है। हास्यस्पद बात यह है कि कुमारस्वामी सरकार गठन का जो विज्ञापन दिया गया उसमें इंदिरा गांधी व जयप्रकाश नारायण को एक साथ दिखाया गया। वही जेपी जिन्होंने अपना सारा जीवन गांधी परिवार की तानाशाही के खिलाफ लड़ते बिता दिया और जिनकी पहचान ही इंदिरा गांधी की एमरजेंसी के खिलाफ संघर्षशील नेता के रूप में है। इस तरह के गठजोड़ की कल्पना करने वालों को जनमानस समझना चाहिए जिसका आजकल बेहतर जरिया सोशल मीडिया है। बेंगलुरु में हुए इस बेमेल राजनीतिक कुंभ को लेकर लोग तरह-तरह के चटकारे लगाते दिख रहे हैं। देश में कोई राजनीतिक गठजोड़ होता है तो उसका स्वागत किया ही जाना चाहिए परंतु जनता के बीच इसकी सार्थकता भी दिखनी चाहिए। केवल अस्तित्व बचाने के एजेंडे पर कोई गठजोड़ उज्जवल राजनीतिक भविष्य की कल्पना भी नहीं कर सकता।

- राकेश सैन

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