आर्थिक नीतियों में निरंतरता अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण
अभी जीडीपी को आधार वर्ष बदलकर इसे ज्यादा दिखाया जा रहा है। यह ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए जरा भी ठीक नहीं है, जहां रोजगार के लिए तैयार युवाओँ की बड़ी आबादी है जिन्हें विनिर्माण क्षेत्र में आसानी से खपाया जा सकता है।
जिस तेजी से हमारी अर्थव्यवस्था ने करवट ली है उसमें सबसे ज्यादा नुकसान कृषि क्षेत्र को ही हुआ है। आज देश में आर्थिक विकास तेजी से नहीं हो पा रहा है तो इसका कारण है कृषि क्षेत्र का कमजोर होना। दरअसल आज भी कृषि मॉनसून का जुआ है। और देश में हर दो साल बाद सूखा हो जाता है। देश के कुछ इलाकों में खड़ी फसल सूखे की मार से पनप नहीं पाई तो वहीं दूसरी ओर बाढ़ के चलते भी कई इलाकों में फसल का नुकसान होता रहा है। ऐसा नहीं है कि यह सब केवल एक दो सालों में हो रहा है। 2000-01 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उस समय भी कृषि क्षेत्र की वृद्धि एक फीसदी से भी कम रही, जिसने जीडीपी की वृद्धि को भी चार दशमलव तीन फीसदी पर सीमित कर दिया। हम 2016 तक पहुंच गए हैं पर आज भी वही दशा है।
देश में कृषि ही नहीं विनिर्माण और खनन क्षेत्र में अपेक्षित विकास न होना भी जीडीपी के नीचे आने का कारण रहा है। अभी जीडीपी को आधार वर्ष बदलकर इसे ज्यादा दिखाया जा रहा है। यह ऐसी अर्थव्यवस्था के लिए जरा भी ठीक नहीं है, जहां रोजगार के लिए तैयार युवाओँ की बड़ी आबादी है जिन्हें विनिर्माण क्षेत्र में आसानी से खपाया जा सकता है। विनिर्माण क्षेत्र में पर्याप्त रोजगार सृजन नहीं हो पा रहा है। वर्ष 2009-10 तक पांच वर्षों के दौरान रोजगार सृजन में कमी देखी गई। विशेषज्ञों को विनिर्माण क्षेत्र में खासी तादाद में रोजगार मिलने की उम्मीद थी लेकिन वहां भी छंटनी का चाबुक चलता दिखा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसी कारण से अपने बजट में विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने पर जोर दिया है। लेकिन वे इसमें कितना सफल होंगे इसे देखने में अभी वक्त लगेगा।
जरा पंचवर्षीय योजना पर नजर डालें तो 2000-01 से 2004-05 के दौरान विनिर्माण क्षेत्र ने जहां 1.2 करोड़ लोगों को रोजगार दिया तो वहीं वर्ष 2005-06 से 2009-10 की अवधि में इसमें पचाल लाख नौकरियां घटीं। योजना दस्तावेज भी मानता है कि इस रुझान को बदलना होगा क्योंकि अगले पंद्रह साल में करीब 18.53 करोड़ लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था करनी होगी। हालांकि कोई भी आंकड़ा पेश करना आसान है लेकिन कितना इसे लागू करना उतना ही कठिन है। 1991-92 के बाद विनिर्माण क्षेत्र में काफी बदलाव आया था और तेजी से इसमें रोजगार सृजन हुए थे लेकिन पहली बार इसमें गिरावट आ गयी है। अगर देश को मंदी की चपेट से निकालना हो तो सबसे पहले विनिर्माण क्षेत्र को ही आगे बढ़ाना होता है तभी रोजगार का सृजन होता है और लोग स्वरोजगार भी बढ़ाते हैं।
दरअसल पिछले कुछ समय से अर्थव्यवस्था में खास निवेश की भारी कमी आई, यह कमी कमजोर मांग के कारण पैदा हुई। लगातार दो साल निवेश में एक फीसदी से भी कम की वृद्धि हुई है। 2008-09 में वैश्विक वित्तीय संकट आने के बाद 2011-12 में उद्योग में निवेश की कमी देखी गई। इसमें देश के अंदर चल रहे कई तरह के आंदोलन और सरकार के रुख को कारण माना गया। सरकार कोई भी निर्णय लेने के पहले कई पेंचों में फंसती जा रही थी। कोलगेट जैसे मसले पर लगातार सरकार फंसती जा रही थी जिसकी वजह से आगे कोई भी निर्णय नहीं लिया जा रहा था। कह सकते हैं कि आर्थिक माहौल बिगड़ता जा रहा था जिसके चलते दिग्गज उद्योगपति देश में निवेश करने में हिचकने लगे थे। लगातार सकल पूंजी निर्माण गिर रहा था वहीं आरबीआई की सख्त मौद्रिक नीति से ब्याज दरें ऊंची हो गई, इससे भी उदयमियों का हौसला पस्त हुआ। जब ब्याज दरें ऊंची होती हैं और क्षमता अधिशेष होती है तो निवेश नहीं हो पाता क्योंकि पहले से ही उत्पादित वस्तुओं की खपत होनी होती है।
जब आंकड़े अर्थव्यवस्था की खराब तस्वीर पेश करते हैं तो ऐसे में कारोबारी निवेश करने में कतराते हैं। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसा नहीं है कि विनिर्माण क्षेत्र में निवेश नहीं हुआ। दरअसल इसमें उत्पादन परिलक्षित नहीं हुआ जिसके चलते आपको यह तस्वीर दिख रही है। अब अगर यूपीए-2 के पूरे कार्यकाल पर नजर डालें तो इस समय आर्थिक वृद्धि वैसी नहीं रही जैसा पहले थी। लेकिन यूपीए-1 का नजारा दूसरा था। यूपीए-1 में आर्थिक वृद्धि दर शानदार रही। यह सुनहरा दौर 2004-05 से लेकर 2008-2009 तक चला। इस बीच आर्थिक मंदी का भी दौर रहा लेकिन सरकार की दरियादिली ने आर्थिक वृद्धि कम नहीं होने दी। सरकार ने उस समय उत्पाद शुल्क में छह फीसदी और सेवा कर में दो फीसदी की कटौती कर दी, जिससे उद्योगों और अर्थव्यवस्था को खासी राहत मिली। सार्वजनिक व्यय में बढ़ोत्तरी का ऐलान भी संजीवनी की तरह काम कर गया। लेकिन उसके बाद यूरोक्षेत्र के संकट और तथाकथित नीतिगत जड़ता ने भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार दिया और तब से अर्थव्यवस्था की हालत पस्त है।
बहरहाल अब जिस प्रकार से सरकार ने टेक्सटाइल में पैकेज की घोषणा की है, जहां रोजगार सबसे ज्यादा मिलता है तो इससे कितना फायदा अर्थव्यवस्था को मिलेगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन यह तय है कि अभी भी हम संकट से नहीं उबरे हैं। अभी देश में आर्थिक नीतियों में निरंतरता ज्यादा महत्वपूर्ण है जो केंद्र की स्थिर सरकार दे सकती है लेकिन अभी इनको अपने कामों पर खरा उतरना बाकी है।
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