चुनाव आयोग ने मैदान में बुलाया तो भाग गये ''बयानवीर''
अपनी पराजय के लिये ईवीएम को जिम्मेदार मानने वाले नेताओं को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। लेकिन हकीकत सामने आ चुकी है। चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को ईवीएम में छेड़छाड़ की चुनौती दी थी।
अपनी पराजय के लिये ईवीएम को जिम्मेदार मानने वाले नेताओं को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। वह इसको छुपाने का प्रयास भले करें, लेकिन हकीकत सामने आ चुकी है। चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को ईवीएम में छेड़छाड़ की चुनौती दी थी। इसके लिये पर्याप्त समय भी दिया गया था। अधिकांश पार्टियां जानती थीं कि उन्होंने पराजय से झेंप हटाने के लिये यह मुद्दा उठाया था। जब परीक्षण का समय आया तो इनकी हिम्मत जवाब दे गयी। इन्होंने किसी न किसी बहाने से चुनाव आयोग की चुनौती से बच निकलने का इंतजाम कर लिया। सार्वजनिक फजीहत से अपने को अलग कर लिया। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने कुछ हिम्मत दिखाई। ये चुनौती स्थल तक पहुंचे। यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया जैसे इनकी लोकप्रियता का ग्राफ बहुत ऊंचा था लेकिन ईवीएम ने सब पर पानी फेर दिया। लेकिन मशीन को सामने देखते ही पानी के बुलबुले की भांति इनका आत्मविश्वास बैठ गया। अन्ततः अंगूर खट्टे की तर्ज पर चुनाव आयोग पर आरोप लगाया, फिर भाग खड़े हुए। कहा कि आयोग की कसरत आंखों में धूल झोंकने जैसी थी। जबकि इन्होंने वहां जो भी प्रश्न उठाये थे, आयोग की ओर से उनका समाधान भी किया गया था। लेकिन मशीन नहीं वरन् सियासत करना ही इनका मकसद था। वह पूरा हो चुका था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बंगाल में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र में तीसरे पायदान पर है। फिलहाल यही इनकी सच्चाई है। इसके लिये ईवीएम का मुद्दा उठाना बेमानी था।
न जाने क्यों ये पार्टियां अति उत्साह में चुनाव आयोग की चुनौती मंजूर करने जा पहुंचीं। जबकि अन्य पार्टियों ने समझदारी दिखाई। इसमें सर्वाधिक होशियारी बसपा ने दिखाई। सबसे पहले यह मुद्दा उन्होंने उठाया था। जब लोकसभा में खाता न खुले, राज्यसभा में पहुंचाने लायक विधायक न मिलें तो ईवीएम को जिम्मेदार बताना अपनी जवाबदेही के हिसाब से ठीक था। मयावती ने मुद्दा उठाया और किनारे हो गयीं। मयावती खामोशी से सब देख रही हैं। बसपा के करीब आने की कोशिश कर रही सपा ने भी ईवीएम को दोषी करार दिया। कांग्रेस का अपना क्या बचा। उसे क्षेत्रीय दलों के हिसाब से चलना था। उसने भी यही किया।
इन नेताओं को यह अनुमान नहीं रहा होगा कि चुनाव आयोग इनकी बात को गंभीरता से लेगा। चुनाव आयोग ने उचित फैसला किया। वस्तुतः जिस प्रकार पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद पराजित पार्टियों ने ईवीएम को गड़बड़ी का राग अलापा था, वह चुनाव आयोग पर ही हमला था। सपा, बसपा, एनसीपी, राजद आदि की बात अलग थी। इन्हें मात्र एक प्रदेश में राजनीति करनी है। कांग्रेस की स्थिति सर्वाधिक हास्यास्पद थी। उत्तर प्रदेश में वह कहीं की न रही, इसलिये यहां उसकी नजर में ईवीएम खराब थी। पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व में उसे भारी बहुमत मिला, इसलिये वो ईवीएम ठीक थी। गोवा व मणिपुर में वह सबसे बड़ी पार्टी बनी, तब तक ईवीएम ठीक थी। जब अन्य दलों ने भाजपा को समर्थन देकर सरकार बनवा दी, तो यहां ईवीएम खराब हो गयी।
वैसे समय के साथ ईवीएम विरोधियों के स्वर शांत होने लगे थे। ये धीरे−धीरे दल सच्चाई को स्वीकार करने लगे थे। मन ही मन इन्होंने मान लिया था कि मायावती के मुद्दे के पीछे दौड़ना गलत था। ऐसा ही इन्होंने नोटबंदी पर किया था। तब सबसे पहले मायावती ने ही नोटबंदी पर हमला बोला था। कहा था कि तैयारी करने का मौका नहीं मिला। सपा चार दिन तक तय नहीं कर सकी थी, कि क्या करें। इसके बाद वह मायावती के पीछे चल पड़ी थी। तब विरोध में अखिलेश यादव बुआ जी से आगे निकलना चाहते थे। इसके बाद राहुल भी रुपया बदलवाने पहुंचे थे। यही नजारा ईवीएम पर दिखाई दिया। धीरे−धीरे सबकुछ सामान्य होने लगा था। चुनाव आयोग की चुनौती मंजूर न करने का यह भी एक बड़ा कारण था।
जिस समय चुनाव आयोग ने ईवीएम परीक्षण का इंतजाम किया था, उसी समय अखिलेश यादव का एक बयान आया। अखिलेश का कहना था उत्तर प्रदेश में भाजपा ने चुनाव जीतने के लिये वादे किये थे। वह वादे पूरे करने में विफल है। इसके पहले उन्होंने कहा था कि भाजपा ने झूठ बोलकर चुनाव जीता। एक अन्य अवसर पर यह भी कहा था कि मतदाता को भाजपा ने बरगलाया है।
अखिलेश यादव के इन सभी बयानों का मतलब एक था। वह यह कि मतदान सही था, ईवीएम सही थी। भाजपा के वादों से मतदाता प्रभावित हो गये। अखिलेश यह बताना नहीं चाहेंगे, कि क्या उनकी सरकार ने दो−तीन महीने में ही सभी वादे पूरे कर लिये थे। यदि ऐसा होता तो पांच वर्ष में न जाने क्या हो जाता। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। सच्चाई सबके सामने है। कई रहस्यों से पर्दा भी उठ रहा है। अखिलेश ने बसपा नेताओं के खिलाफ कार्यवाई नहीं की, वरना रहस्य उस समय भी ऐसे ही खुले थे। यही सब दोनों सरकारों के पतन का कारण था। ईवीएम को दोष देना बहुत गलत था। इससे संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा धूमिल करने का प्रयास हुआ। इसी के साथ यह मतदाताओं का भी अपमान था। अखिलेश को बताना चाहिये कि उनकी सरकार ने प्रारंभिक दो वर्षों मे क्या किया था।
जो पार्टियां चुनाव आयोग के बुलावे पर नहीं पहुंचीं, वह अघोषित रूप से प्रायश्चित ही कर रहीं थी। उनके बयान भले ही इसे छिपाने वाले थे। कितना हास्यास्पद है कि आम आदमी पार्टी अपनी ईवीएम का झुनझुना बजा रही है। जबकि आयोग कह चुका है कि उसके नियंत्रण से बाहर वाली मशीनों से उसका कोई लेना देना नहीं है। कई नेताओं को शिकायत है कि विदेशों में ईवीएम का प्रयोग नहीं होता, तो हमारे यहां ऐसा क्यों हो रहा है। ईवीएम के विरोध का यह तर्क बेमानी है। प्रजातांत्रिक देशों की जनसंख्या से हमारा कोई मुकाबला नहीं। चीन प्रजातंत्र नहीं है। अगर हम अपनी परिस्थितियों के अनुसार नयी प्रणाली अपनाते हैं, तो उसका स्वागत होना चाहिये।
इसका भी जवाब देना चाहिये कि इन नेताओं की परेशानी भाजपा के जीत के बाद क्यों शुरू हुई। लोकसभा चुनाव से पहले दस वर्षों का समय भाजपा के लिये गर्दिश का था। लोकसभा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, असम, राजस्थान में उसे निराशा का सामना करना पड़ रहा था। तब ईवीएम में गड़बड़ी नहीं थी, तब बैलेट पेपर से चुनाव की मांग नहीं उठी, तब विदेशों का उदाहरण नहीं दिया गया। सारी गड़बड़ी तीन−चार वर्षों में हो गयी। ऐसी बात करने वालों नेताओं को अपना गिरेबां देखना चाहिये। मतदाताओं ने नाराजगी के कारण उनको इस मुकाम पर पहुंचाया है। वह मतदाताओं व चुनाव आयोग के अपमान से बचे, यही बेहतर होगा। अन्यथा ईवीएम मसले जैसी शर्मिंदगी भविष्य में भी झेलनी होगी। चुनाव आयोग की सराहना करनी होगी। ईवीएम को मात्र छूने ही नहीं, खोलने तक का अवसर दिया। चैलेंज के लिये लायी गयी मशीनें सील कवर में थीं। उसे खोलकर बैटरी व मेमोरी नंबर लेना संभव नहीं था। चुनाव आयोग ने सभी तथ्यों व पारदर्शिता का ध्यान रखा।
- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
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