कम बड़ी उपलब्धि नहीं है भारत की ''एमटीसीआर'' में एंट्री
एमटीसीआर के अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने और तीन अन्य निर्यात नियंत्रण व्यवस्था- ऑस्ट्रेलिया समूह, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह और वासेनार समझौते में भारत की सदस्यता का समर्थन किया है।
अगर थोड़ी ईमानदारी से कहूं तो न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप (NSG) में भारत की एंट्री को लेकर भारतीय मीडिया में जिस तरह का होहल्ला हुआ, वह एक गैर-जरूरी हाइप थी। आखिर विदेश नीति में इस तरह के तमाम उतार-चढ़ाव आते हैं और अगर उन सभी मुद्दों को हम इसी तरह गैर-जरूरी चर्चा में उलझाते रहे तो मामला बनने की बजाय और बिगड़ेगा ही। एनएसजी में मेम्बरशिप के लिए हमारे प्रधानमंत्री आखिरी समय तक चीन को मनाने में लगे रहे, किन्तु अंततः चीन भारत का रास्ता रोकने के लिए 9 और देशों को समझाने में सफल रहा। हालाँकि, इस बीच चीन को भी मामले की गम्भीरता का अहसास हो गया था और उसके सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने इस पूरे मामले पर सफाई देने की कोशिश की।
चीन को लेकर हमारा देश बेहद संवेदनशील रहा है और कहीं न कहीं यह बात हमारी प्रगति की राह में रूकावट भी बन जाती है। मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं है कि हमारी सरकार और जनता की इसी संवेदनशीलता का चीन, पाकिस्तान और यहाँ तक की अमेरिका द्वारा फायदा उठा लिया जाता है। एनएसजी मामले में ही अगर देखें तो वैश्विक समुदाय में यह सन्देश गलत ढंग से प्रेषित हुआ कि हम अमेरिका के सहारे एनएसजी में घुसने की कोशिश कर रहे हैं! ज़रा ध्यान से सोचिये कि ऐसी चर्चाओं से हमारी स्वाय्यत्ता पर आने वाले समय में क्या असर पड़ेगा। मैं ऐसा कहने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ कि हम अमेरिका की सहायता न लें, किन्तु इस बीच यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उसके हाथों खेलने से हमें अवश्य ही बचना चाहिए। क्या वाकई कूटनीति अब मीडिया के सहारे होने लगी है? या फिर अमेरिका ऐसा चाहता है कि वैश्विक समुदाय में इस बात का मेसेज जाए कि अब भारत अमेरिका के पूरी तरह साथ है। चूंकि, भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे बेहद संभल-संभल कर खुद को मजबूत करने की राह में आगे बढ़ना पड़ेगा, अन्यथा 'खाया पीया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बारह आना' वाली बात चरितार्थ हो जाएगी। साफ़ है कि अमेरिकी उकसावे में आकर भारत को अपनी अंतर्राष्ट्रीय संतुलन की नीति को तिलांजलि नहीं देनी चाहिए। सरकार भी इस बात को बखूबी समझ रही है और इसीलिए वह चीन की अग्रेसिव और भारत-विरोधी नीतियों के बावजूद फूंक-फूंक कर कदम रख रही है।
सरकार ने एनएसजी में शामिल नहीं होने को बेहद सामान्य ढंग से लिया और चीन को समझाने की बात कही तो पत्रकारों के एमटीसीआर में एंट्री रोककर 'चीन से बदला' लेने के सवाल पर विदेश मंत्रालय के विकास स्वरूप ने साफ़ कहा कि भारत इस तरह की 'डील-मेकिंग' में विश्वास नहीं रखता है। खैर, एनएसजी में रोके जाने के बावजूद भारत की एमटीसीआर में एंट्री कम बड़ी उपलब्धि नहीं है और यह उपलब्धि इसलिए भी ख़ास हो जाती है, क्योंकि इसमें खुद चीन को भी कई कोशिशों के बावजूद एंट्री नहीं मिल सकी है। यदि आप कुछ बड़ा करने की सोच रहे हो और वह बड़ी चीज न मिलकर कुछ और मिल जाये तो निराश नहीं होकर उसको ख़ुशी-ख़ुशी अपनाना ही समझदार व्यक्तियों की निशानी है, जबकि उस पुराने 'लक्ष्य' को पाने की कोशिश भी जारी रखनी चाहिए। कहा भी गया है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। बेशक भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) में सदस्यता नहीं मिली, लेकिन एक-एक करके शंघाई कॉरपोरेशन आर्गेनाईजेशन (एससीओ) और मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (एमटीसीआर) में निर्विरोध सदस्यता हासिल हुई जो भारत को न्यूकलियर सप्लायर्स ग्रुप के और करीब लाने में मददगार होगा।
ज्ञातव्य हो कि भारत की इस बड़ी सफलता के पीछे भारत का 'हेग आचार संहिता' को अपनाना है। बैलिस्टिक प्रक्षेपास्त्र प्रसार के खिलाफ भारत ने ‘द हेग आचार संहिता’ को अपनाया है। 'हेग आचार संहिता’ (HCOC) की शुरुआत विनाशक हथियारों को ले जाने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइलों के प्रसार को नियंत्रित करने के उद्देश्य से 25 नवंबर, 2002 को नीदरलैंड्स के हेग में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन करके किया गया और आज इसमें करीब करीब 138 देश शामिल हैं। एमटीसीआर के अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने और तीन अन्य निर्यात नियंत्रण व्यवस्था- ऑस्ट्रेलिया समूह, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह और वासेनार समझौते में भारत की सदस्यता का समर्थन किया है। भारत के लिए यह ख़ुशी की बात है कि एमटीसीआर में भारत के शामिल होने से मानवरहित अमेरिकी ड्रोन विमान के साथ उच्च प्रौद्योगिकी वाले प्रक्षेपास्त्रों को भी आसानी से ख़रीदा जा सकेगा। रूस के साथ इसके संयुक्त उपक्रम (Brahmos) का मित्र देशों के साथ निर्यात को भी बढ़ावा मिलेगा।
गौरतलब है कि एमटीसीआर में शामिल होने का प्रयास में इटली की थोड़ी ना-नुकर थी, लेकिन केरल तट के पास दो मछुआरों की हत्या के आरोपी दो इतालवी मरीनों पर समझौता होने के बाद इटली ने अपना विरोध करना बंद कर लिया। थोड़ा विस्तार से बात करें तो, अप्रैल 1987 में स्थापित एमटीसीआर का उद्देश्य मिसाइलों, पूर्ण रॉकेट तंत्रों, मानवरहित वायुयानों के प्रसार को रोकना है, जिनका इस्तेमाल रासायनिक, जैविक और परमाणु हमलों के लिए किया जा सकता है। एमटीसीआर अपने सदस्यों से अपील करता है कि 500 किलोग्राम के पेलोड को कम से कम 300 किलोमीटर तक ले जा सकने वाली मिसाइलों और संबंधित प्रौद्योगिकियों को और सामूहिक तबाही वाले किसी भी हथियार की आपूर्ति बंद करें। इसके साथ ही इसका उद्देश्य सामूहिक जनसंहार के हथियारों की आपूर्ति के लिए बनी प्रणालियों को रोकना भी है।
इस संगठन के अधिकतर सदस्य देश प्रमुख मिसाइल निर्माता हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि एमटीसीआर और एससीओ में जगह बनने के बाद एनएसजी में शामिल होने का रास्ता साफ होता चला जा रहा है। इसके साथ-साथ एमटीसीआर की सदस्यता के साथ ही भारत के लिए अमेरिका से ड्रोन तकनीक लेना सरल हो जाएगा। असल में भारत के कदम अब रूकने वाले नहीं दिखते हैं और एमटीसीआर के बाद एनएसजी के लिए इसके प्रयास तो जारी रहेंगे ही, लेकिन भारत का असल लक्ष्य यूएन सुरक्षा परिषद की स्थाई सीट पर दावेदारी पक्की करना है। महत्वपूर्ण यह है कि अगर आप वैश्विक स्तर पर बड़े खिलाड़ी बनना चाहते हैं तो 'शह और मात' का खेल तो चलता ही रहेगा, और इसके लिए होहल्ला करने की बजाय चुपके से सबको अपना काम करते रहना होगा। बेशक वह सरकार हो, मीडिया हो अथवा भारत की इकॉनमी को मजबूत करने में लगने वाले इंडस्ट्रियलिस्ट हों या फिर आम टैक्सपेयर।
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