पद छोड़ने के बाद भी नेताओं को सरकारी बंगला ही लगे न्यारा

Even after leaving the post, the leaders took the government bungalow
रमेश ठाकुर । May 9 2018 12:56PM

पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी स्वेच्छता से सरकारी संपत्तियों का त्याग कर देना चाहिए। लेकिन राजनेता अपनी ढीठता दिखाने से बाज नहीं आते। बंगलों पर कब्जा जमाए बैठे लोगों पर सुप्रीम कोर्ट ने कई तल्ख टिप्पणियां कीं। मामले की सुनवाई 13 मई को होनी है।

क्योंकि फैसले तो पहले भी कई मर्तबा आए। लेकिन हुआ कुछ भी नहीं। फिर भी सुप्रीम कोर्ट का मौजूदा आदेश नजीर साबित हो इसकी दरकार है। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव ने अपने कार्यकाल में आज से करीब दो−ढाई वर्ष पहले सूबे के सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को ताउम्र सरकारी बंगलों में रहने को लेकर एक कानून बनाया था जिसमें व्याख्या दी गई थी, कि सभी पूर्व मुख्यमंत्री जिंदगी भर आवंटित बंगलों में रह सकेंगे। इसमें सभी पार्टियों के पूर्व मुख्यमंत्री शामिल थे। वर्तमान के गृहमंत्री राजनाथ सिंह व राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह से लेकर बसपा प्रमुख मायावती भी। अखिलेश के फैसले पर उस वक्त किसी ने ज्यादा विरोध नहीं किया था। विरोध इसलिए भी नहीं किया था क्योंकि उसमें सभी का हित शामिल था। लेकिन अखिलेश यादव के बनाए उस कानून को जब एक एनजीओ की तरह से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई तो मामला पूरी तरह से पलट गया। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयंभू कानून को अवैध घोषित कर दिया है। कोर्ट ने साफ कहा है कि जिस तरह सरकारी कमर्चारी अपनी सेवा खत्म करने के बाद आवंटित सरकारी घर और सुविधाएं छोड़ देते हैं उसी तरह पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी स्वेच्छता से सरकारी संपत्तियों का त्याग कर देना चाहिए। लेकिन राजनेता अपनी ढीठता दिखाने से बाज नहीं आते। बंगलों पर कब्जा जमाए बैठे लोगों पर सुप्रीम कोर्ट ने कई तल्ख टिप्पणियां कीं। मामले की सुनवाई 13 मई को होनी है। 

दरअसल सरकार का हिस्सा बन जाने के बाद हमारे राजनेता हर एक सरकारी संपत्ति को अपनी जागीर समझने लगते हैं। उनको सत्ता−सुख की ऐसी आदत पड़ जाती है जिससे वह बाहर नहीं निकल पाते। सत्ता में रहें या न रहें, उनको वही ठाठ चाहिए। बड़ा बंगला हो, चारों तरफ नौकर−चाकर हों। कुल मिलाकर तमाम सुख भोगने वाली सुविधाएं उनको ताउम्र मिलती रहें बस! दरअसल जनता अब जितनी शिक्षित और समझदार होती जा रही है उतनी ही नेताओं के लिए समस्याएं खड़ी हो रही हैं। राजनेता अब ठीक तरह से भांप चुके हैं कि जनता अब आसानी से मूर्ख नहीं बन सकती। खैर, बंगलों से बेदखली के आदेश ने कब्जा जमाए बैठे पूर्व सफेदपोशों में खलबली तो मचा ही दी है। वह अलग बात है कि इतनी आसानी ने कब्जा नहीं छोड़ेंगे। कुछ न कुछ तोड़ जरूर निकालेंगे। ताजा उदाहरण हमारे समक्ष है। कुछ माह पहले कोर्ट ने दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सरकारी बंगले में स्थित कार्यालय को तुरंत हटाने का आदेश दिया था। लेकिन उसका भी कानूनविदों ने तोड़ खोज कर मामले को लटका दिया।

अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने तल्ख लफजों में कहा कि उत्तर प्रदेश के पूर्व सभी छह मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले खाली करने होंगे। कोर्ट ने यूपी सरकार के कानून को रद्द करके संविधान के खिलाफ बताया है। सवाल उठता है कि ऐसा गुनाह क्यों किया गया। गुनाह करने वालों पर भी सख्त और जरूरत के मुताबिक कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। दरअसल हमारे यहां राजनेता खुलेआम कानून और अधिकारों की धज्जियां उड़ाते हैं। कानून समानता के मौलिक अधिकार के खिलाफ मनमाना रवैया अपनाते हैं। कोई करे तो करे क्या? दरअसल उन्होंने व्यवस्थाएं ही ऐसी बना रखीं हैं जिससे उनका कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता। हमें बधाई देनी चाहिए उस एनजीओ की जिसने सरकारी बंगला मुद्दे पर अपनी आवाज बुलंद की। बेशक इस नियम के कुछ बेहतरीन अपवाद भी रहे हैं, मगर ऐसे अपवादों की संख्या भी अब अपवाद बन गई है। आम जनप्रतिनिधि मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को ही अपने रोल मॉडल के रूप में देखते हैं। जब मुख्यमंत्री ही ऐसा आचरण प्रस्तुत करेंगे तो वे सादगी का पाठ किनसे सीखेंगे!

उच्च न्यायालय का यह फरमान भले ही यूपी के पूर्व मुख्यमंत्रियों के संदर्भ में दिया गया हो, पर जिन सिद्धांतों और मान्यताओं को इस फैसले का आधार बनाया गया है वह व्यापक हैं और अन्य राज्यों तथा केंद्र पर भी लागू होते हैं। दूसरे राज्यों में भी वहां के पूर्व मुख्यमंत्री कब्जा किए हुए हैं। उन पर भी तलवार लटकी है। देखना होगा कि हमारी राजनीति सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से आंखें मूंदे बैठी रहती है या इसे शब्दों व भावनाओं के अनुरूप हर स्तर पर लागू करने की पहल करती है। बंगला मुद्दे पर पहले भी हंगामा हुआ है। पहले भी आदेश नामंजूर किए गये हैं। मुख्यमंत्रियों को ताउम्र सरकारी बंगला दिए जाने के प्रावधान को अगस्त, 2015 में भी सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया था। तब भी दो महीने के भीतर पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास खाली करने को कहा गया था। यही नहीं पिछले आदेश में यूपी सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री आवास आवंटन नियम, 1997 को कानून गलत बताते हुए उन सभी से किराया भी वसूलने के आदेश दिया था।

आदेश से बचने के लिए तभी तत्कालीन यूपी सरकार ने एक नया कानून बना दिया। कानून के मुताबिक राज्य सरकार ने अपने सरकारी प्रावधान के अनुसार कुछ संशोधन और नये कानून की आड़ में पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए ताउम्र सरकारी निवास देने का निर्णय कर लिया था। लेकिन पूरे मामले को लेकर एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली। एनजीओ की याचिका में कहा गया कि राज्य सरकार ने कानून लाकर शीर्ष अदालत के फैसले को विफल करने की कोशिश की है। जिसे कोर्ट ने गंभीरता से लिया।

आरटीआई के जमाने में राजनेताओं के पाप बेपर्दा होने लगे हैं। उनको मजबूरी में अपनी हर चीजों का खुलासा करना पड़ता है। वैसे तो कोई कुछ भी बताने को राजी नहीं था। बंगला मुद्दे को जनमानस में लाने के लिए लोक प्रहरी संस्था ने सबसे पहले आरटीआई से जवाब एकत्र किया। कौन कब से किन−किन बंगलों में अवैध कब्जा किया हुआ है सबकी जानकारी हासिल की। उसके बाद उन्होंने कोर्ट का रूख किया। देखिए, ये एक बात अब सबको पता है कि हाल के दिनों में हमारे जनप्रतिनिधियों में अपने लिए अधिक से अधिक फायदा बटोरने की भावना बहुत तेज हुई है। अपने लिए बंगला पाने और वेतन−भत्ता बढ़वाने के लिए जाने कहां−कहां से तर्क उठा लाते हैं। यह देखने की जहमत नहीं मोल लेते कि जिनका प्रतिनिधि होने के नाते वे तमाम सुविधाएं मांग रहे हैं, वे लोग किन हालात में रहते हैं। करोड़ों लोग आज भी बेघर हैं बिना छत के जीवन जी रहे हैं। उनकी तरफ देखने वाला कोई नहीं है। एक जनप्रतिनिधि को चार−चार बंगले चाहिए, लेकिन गरीब इंसान को अपना सिर छिपाने के लिए एक अद्द छत भी नसीब नहीं हो रही। ये असमानता कैसे हटे, इसकी जरूरत कोई नहीं समझता।

-रमेश ठाकुर

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