उत्तर प्रदेश चुनावों के लिए कांग्रेस ने पूरी तरह कमर कसी

कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव में पूरा जोर लगाए हुए है। उसने पहले राज्य के लिए पार्टी प्रभारी को बदला, फिर नये प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति की और अब मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित का नाम आगे कर दिया।

उत्तर प्रदेश के चुनावी घमासान के लिये अभी से मोहरे सजाये जाने लगे हैं, चालें चली जाने लगी हैं। कांग्रेस पूरी तरीके से कमर कस चुकी है। शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित करने के बाद कई तरह की अटकलें लगाई जाने लगी हैं। अब तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि पिछली बार की तरह ही सभी खिलाड़ी अपने-अपने बूते ही चुनाव मैदान में हाथ आजमाएंगे। आखिर कैसा है सूबे का सियासी माहौल और किस ओर सरकती नजर आ रही हैं संभावनाएं? ऐसे तमाम सवालों की टोह लेती और प्रदेश की सियासी हलचलों को पढ़ने-समझने की कोशिश करते हैं।

भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गई हैं। सियासी दलों की हलचल इस कदर तेज हो चली है कि देश का ध्यान भी उत्तर प्रदेश की सियासत की ओर आकृष्ट हो गया सा लगता है। वैसे भी कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता हिंदुस्तान के इसी सूबे से होकर गुजरता है। जाहिर है कि ऐसे में यहां की सियासत का भी खासा महत्व है। और कोई भी इस अहम चुनाव को हल्के में नहीं लेना चाहता। तभी तो 2017 में होने वाले चुनाव की हलचल अभी से तेज हो गई है। खासकर बिहार विधानसभा चुनाव के बाद सभी पार्टियां इस सूबे में अपनी संभावनाओं को खंगालने, बनाने में जुट गई हैं। चाहे वह विकास के अपने दावों और उत्साह से लबरेज सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी हो या फिर खुद को सत्ता की स्वाभाविक दावेदार समझ रही मायावती की बहुजन समाज पार्टी। भाजपा भी इस प्रदेश को लेकर खासी गंभीर है। आखिर लोकसभा चुनाव में 80 में से 71 सीटें जीतने वाली पार्टी के लिए ऐसा मंसूबा पालने का औचित्य भी है। वहीं बिहार के चुनावी नतीजों से बेहद उत्साहित कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश में अपनी वापसी के लिए मौजूदा वक्त को अपने अनुकूल पाकर कड़ी मशक्कत में जुटी है।

इनके अलावा भी कई छोटी-छोटी पार्टियों ने आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर उत्तर प्रदेश पर अपनी नजरें गड़ा रखी हैं। जाहिर है कि उन्हें इसी चुनाव से अपनी प्रासंगिकता बनाने रखने और दिखाने की उम्मीद है। कहने का तात्पर्य कि बिहार के बाद उत्तर प्रदेश ही वह सूबा है, जहां की सियासत इस वक्त छोटी-बड़ी सभी पार्टियों के रडार पर है। देश की नजरें भी अभी से यहां की सियासी गतिविधियों पर गड़ चुकी हैं। वजह साफ है कि इसका भी कहीं न कहीं 2019 के आम चुनाव पर गहरा असर पड़ने की संभावना जताई जा रही है। कांग्रेस इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव में पूरा जोर लगाए हुए है। उसने पहले राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद को प्रदेश का प्रभारी बनाया। उसके बाद सबको चौंकाते हुए कांग्रेस ने प्रदेश अध्यक्ष का बदलाव बहुत सोच समझकर किया और कमान फिल्म अभिनेता और तीन बार लोकसभा में उत्तर प्रदेश के आगरा और फिरोजाबाद संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले और अभी उत्तराखंड से राज्यसभा सांसद राज बब्बर को कमान दी है। इसके बाद उसने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को प्रदेश का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर नई चाल चल दी है।

शीला दीक्षित तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रही हैं और उत्तर प्रदेश से सांसद भी रह चुकी हैं। शीला दीक्षित ने दिल्ली में काफी काम किया है और विकास की प्रतीक भी बनी हैं। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि उन पर कई तरह के आरोप भी लगे हैं। टैंकर घोटाला से लेकर राष्ट्रमंडल खेल घोटाला तक। शीला दीक्षित को आगे करके कांग्रेस ने ब्राह्मण वोट को अपने ओर खींचने की कवायद की है। वैसे कांग्रेस का ब्राह्मण और मुस्लिम वोट को फिर से अपने साथ जोड़ने का लक्ष्य आसान नहीं है। जिस प्रकार से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया गया है उससे तो यही लग रहा है कि अब कांग्रेस प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ेगी या प्रदेश में छोटे दल जनता दल यू से गठबंधन कर सकती है।

कांग्रेस की गंभीरता से भाजपा के कान खड़े होना लाजिमी है। हालांकि लोकसभा चुनाव के दौरान उसे यहां जात-पात से उठकर लोगों के वोट मिले थे लेकिन तब वक्त कुछ और था। आज परिस्थितियां बहुत बदली हैं। भाजपा ने भी अपनी प्रदेश की कमान केशव मौर्य को देकर अन्य पिछड़ वर्ग के वोट को अपनी ओर खिंचने की कवायद में है। लेकिन अभी तक कार्यकारिणी की पूरी टीम बनाने में मौर्य के पसीने छूट रहे हैं। दरअसल पार्टी यहाँ कई खेमों में बँटी है और अंदरखाने चल रही पार्टी नेताओं में धींगामुश्ती भी गाहे-बगाहे सतह पर नजर आ जाती है। बिहार चुनाव के बाद उसके रणनीतिकार सदमे में अवश्य हैं लेकिन जिस प्रकार से असम में जीत मिली है भाजपा में इससे उत्साह लौटा है। भाजपा का मानना है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के पक्ष में अंडर करंट चल रहा है और वह पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब होगी लेकिन अंडर करंट भाजपा के अलावा किसी को नहीं दिख रहा। हकीकत यह है कि उसके सामने चुनौतियां हैं और कड़ी चुनौतियां हैं। शायद यही वजह है कि इन दिनों राम मंदिर जैसे पुराने शस्त्र भी चलाये जाने शुरू हो गये हैं। इसके लिए विश्व हिंदू परिषद द्वारा लगातार जन जागरण कार्यक्रम चलाया जा रहा है और जिस प्रकार से संघ ने कानपुर में अपनी रणनीति का खुलासा किया है इससे तो यही लग रहा है कि इस बार फिर से राममंदिर का मुद्दा गरमाएगा। हैरत की बात तो यह है कि भाजपा कार्यालय में ही दबे स्वर में सपा या बसपा के साथ गठबंधन की जरूरत की बात भी की जाने लगी है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस के बसपा के साथ गठबंधन की सूरत में भाजपा और सपा को हाथ मिलाना चाहिए या फिर सपा-कांग्रेस गठबंधन के मुकाबले भाजपा-बसपा गठबंधन जमीन पर उतरे।

खैर ये सब फिलहाल अटकलों के स्वरूप में ही है लेकिन सियासत का सिरा कब कहां पहुंच जाए, कहना कठिन होता है। हो सकता है कि बदले हालात में उत्तर प्रदेश में भी गठबंधन की सियासत को स्वीकार करना दलों को जरूरी लगे या फिर वे अकेले ही समर में उतरें, लेकिन फिर भी इस चुनाव की महत्ता कम न होगी। हां, अलग-अलग लड़ने की सूरत में मुकाबला त्रिकोणीय होने का खतरा है जबकि गठबंधन एक के मुकाबले दूसरे को एज दे सकता है। गठबंधन की शक्ल में रालोद, पीस पार्टी, अपना दल, आप जैसी दूसरी पार्टियों की भूमिका देखना भी दिलचस्प होगा। गौरतलब है कि इस बार आप, जदयू, राजद, शिवसेना, एआईएमईएम जैसी पार्टियों ने भी खुद को उत्तर प्रदेश के चुनाव में झोंकने का ऐलान किया है। यह भी देखना है कि क्या पिछले विधानसभा चुनाव की तरह कौमी एकता मंच सरीखा भी कोई प्रयोग परवान चढ़ेगा या फिर गठबंधन का सिरा थामकर सफर तय करने का उपक्रम होगा। फिलहाल सब भविष्य की कोख में है। और सियासी पार्टियां-राजनीतिक टीकाकार-मतदाता उस गर्भ की हलचल को समझने-बूझने में व्यस्त हैं। बहरहाल यह तो तय है कि जिस प्रकार से कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में कमर कसी है इससे कार्यकर्ताओं में उत्साह आएगा। इसका पूरा दारोमदार राज बब्बर पर होगा क्योंकि यहां कांग्रेस लगभग पांच वर्षों से सुप्त अवस्था में है। राजनीति में कोई भी दल जमीनी कार्य कर शीर्ष पर पहुंच सकता है जिसके लिए कांग्रेस तैयार हो रही है।

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