चुनावी वादों की भी होनी चाहिए लक्ष्मण रेखा
पेड न्यूज और चुनाव घोषणापत्रों में सीधे सीधे प्रलोभन देने वाले वादों का समावेश कर चुनावों को प्रभावित किया जाने लगा है। आज चुनाव जीतने के लिए पार्टियां किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं।
पांच राज्यों में चुनावों के पहले चरण के नामांकनों के साथ ही करीब−करीब सभी प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए अपने चुनाव घोषणापत्र भी जारी कर दिए गए हैं। प्रश्न यह उठता है कि चुनाव घोषणापत्र जारी करने के मायने क्या हैं? एक और हम स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों का दावा करते हैं, वहीं सीधे−सीधे मतदाताओं को प्रभावित करने वाले वादों खासतौर से मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाले वादों की भरमार कर दी जाती है। एक समय यह बीमारी दक्षिणी राज्यों खासतौर से तमिलनाडू आदि में होती थी वहीं गए चुनावों में दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने चुनावी घोषणा पत्र में अति ही कर दी थी। अबकी बार वही बात पंजाब, उत्तर प्रदेश, गोआ, उत्तराखंड के चुनावों में साफ दिखाई दे रही है।
पहले चुनावों में भुजबल और धनबल का जोर रहता था, इसी तरह से चुनाव के समय दारू, पैसा, कंबल−साड़ी आदि वितरित कर मतदाताओं को प्रभावित किया जाता रहा है। अब उसके साथ पेड न्यूज और चुनाव घोषणापत्रों में सीधे सीधे प्रलोभन देने वाले वादों का समावेश कर चुनावों को प्रभावित किया जाने लगा है। आज चुनाव जीतने के लिए पार्टियां किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। यहां तक की कोई मुफ्त में कुकर, गैस कनेक्शन, सिलाई मशीन, सस्ता घी, चीनी, राशन सामग्री आदि देने का वादा कर रही है तो कोई स्मार्टफोन, पानी बिजली की दरों में राहत, लेपटॉप आदि के वादे कर रही है। आखिर यह प्रलोभनकारी घोषणाएं किसके बलबूते की जाती हैं। क्या राजनीतिक दलों के पास इन प्रलोभनकारी घोषणाओं को पूरा करने के लिए अलग से कोई बजट होता है। हालांकि यह भी सही है कि इनमें से अधिकांश मुफ्तखोरी की घोषणाओं का क्रियान्वयन आंशिक ही होता है और आम मतदाता अपने आप को ठगा हुआ महसूस करता है।
यक्ष प्रश्न यह है कि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा चुनाव के समय जो मेनिफेस्टो जारी किया जाता है उसकी कोई लक्ष्मण रेखा तो होनी ही चाहिए। मेनिफेस्टो में प्रदेश में शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, लोक परिवहन, समग्र विकास, रोजगारपरक कार्यों और सीधे आम आदमी से जुड़े विकास कार्यों का रोडमैप हो तो समझ में आता है, पर राजनीतिक दलों के इलेक्शन मेनिफेस्टो में इन विषयों पर तो सतही घोषणाएं होती हैं जबकि मुफ्तखोरी या लोकलुभावन कार्यों की भरमार होती है। ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि चुनाव केवल मतदाताओं को भ्रमित कर ऐन केन प्रकारेण वोट वटोरने के लिए ही होते हैं क्या? पहले ही चुनाव आयोग के लाख प्रयासों के बावजूद शतप्रतिशत मतदान की बात तो बेमानी होकर ही रह जाती है।
चुनाव आयोग निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनाव की बात करता है। काफी हद तक इस स्थिति में सुधार भी आया है। पर कहीं ना कहीं चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों द्वारा घोषित किए जाने वाले चुनाव घोषणापत्रों की भी लक्ष्मण रेखा तय करनी होगी। चुनाव घोषणापत्रों के लिए भी एक अलग से आदर्श आचार संहिता बनानी होगी। सरकार का दायित्व बिना किसी भेदभाव के समग्र विकास का होना चाहिए, ठीक इसी तरह से इस बात से किसी को परहेज नहीं होगा कि गरीबों का जीवन स्तर समुन्नत हो। होना यह चाहिए कि चुनाव घोषणापत्रों में सड़क, बिजली पानी, स्वास्थ्य−शिक्षा, लोक परिवहन, कृषि विकास, खाद्यान्नों का मूल्य संवर्धन, औद्योगिक विकास, महिलाओं−युवाओं को विकास की मुख्य धारा में लाने, युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने, प्रशासनिक सुधार, कानून व्यवस्था आदि और इसी तरह के मुख्य मुख्य बिन्दुओं पर राजनीतिक दलों का अपना पक्ष और उस पक्ष को अमली जामा पहनाने की योजना या यों कहें कि सरकार के कार्यकाल के अनुसार रोडमैप हो तो समन्वित विकास की बात की जा सकती है। पर ऐसा होता नहीं है। होता यह है कि किसी प्रकार से यानि की साम, दाम, दण्ड, भेद आदि से चुनाव जीतना ही ध्येय बन कर रहा जाता है। इसके लिए चुनाव प्रचार के दौरान लाख प्रयासों के बावजूद किसी ना किसी तरह से माहौल को गर्माने का प्रयास किया जाता है। अब एक परंपरा और चली है कि चुनाव जीतने के बाद सत्ताधारी दल अपने चुनाव घोषणापत्र को सरकार बनते ही प्रशासनिक अमले को सौंप देते हैं और उसके बाद अधिकांश लोकलुभावन घोषणाएं तो सरकारी लालफीताशाही की भेंट चढ़ कर आधी अधूरी ही लागू हो पाती हैं।
प्रश्न यह उठता है कि सरकार का पैसा जनता की कड़ी मेहनत का पैसा होता है और जनता से करों के रूप में राजस्व प्राप्त किया जाता है। ऐसे में सरकार बनने से पहले ही उस पैसे को लुटाने का अधिकार किसी भी दल को कैसे मिल सकता है? जनता के पैसे को केवल जनादेश प्राप्त करने के लिए प्रलोभन के रूप में कैसे काम में लिया जा सकता हैं। ठीक है एक सीमा तक सरकार को लोककल्याणकारी अनुदानित योजनाओं का संचालन करना चाहिए पर आप पूरे प्रदेश और समाज को ही मुफ्तखोरी की और ले जाने का निर्णय कैसे ले सकते हैं? आपकी सरकार बन जाती है तो उसके बाद आपके पास जो वित्तीय संसाधन हैं उनसे इस तरह का रोडमैप तैयार कीजिए जिससे प्रदेश का समग्र विकास हो सके। जनता से प्रत्यक्ष−अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त कर की राशि देश के विकास के लिए है ना कि लुटाने के लिए। ऐसे में देरसबेर चुनाव आयोग व केन्द्र सरकार को चुनाव सुधारों की दिशा में आगे बढ़ते हुए राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणापत्रों के लिए भी आदर्श आचार संहिता बनानी होगी, जिसमें यह भी प्रावधान होना चाहिए कि खासतौर से सत्ताधारी दल द्वारा गत चुनावों में जनता से चुनाव घोषणापत्र के माध्यम से क्या क्या वादे किए गए थे और वे सत्ता में आने तक उन्हें किस हद तक पूरा कर सके।
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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