जिम्मेदारी का जवाब जातिवाद से देना चाहती हैं मायावती
मायावती ने सत्ता में रहते हुए अपनी जिम्मेदारियों का उचित निर्वाह किया होता, तो अगले ही चुनाव में उन्हें बाहर का रास्ता न देखना पड़ता और न ही आज यह बताना पड़ता कि किस जाति के कितने प्रत्याशी उतार रही हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली पर बसपा प्रमुख मायावती टिप्पणी न करें, यह असंभव है। कई बार लगता है कि रैली शुरू होने से पहले ही उनका लिखित बयान तैयार हो जाता है। रैली समाप्त होने के बाद इसमें कुछ शब्द जोड़ दिए जाते है, फिर इसे जारी कर दिया जाता है। मोदी की पिछली कई रैलियों के बाद ऐसा ही दिखाई दिया। बसपा के बयान में कुछ बातें अनिवार्य रूप से शामिल होती हैं। जैसे रैली फ्लॉप रही। इसी के साथ यह भी जोड़ दिया जाता है कि इसमें भाड़े की भीड़ लायी गयी थी। इसके बाद मोदी पर निशाना लगाया जाता है। यह कि उन्होंने घिसी−पिटी बातें कीं। फिर ऐसा विषय आ जाता है, जिसकी चर्चा आमजन में सुनाई नहीं देती, न आमजन इसे लेकर कभी नाराजगी व्यक्त करता है, किन्तु कुछ नेता उसे दोहराना कभी नहीं भूलते। वह लोगों के खातों में पन्द्रह लाख रूपये न आने पर सवाल अवश्य पूछते हैं। खासतौर पर लालू यादव, राहुल गांधी, मायावती आदि को इस बात की बड़ी चिन्ता रहती है। दो−चार दिन के अन्तर पर ये यह सवाल न पूछें, ऐसा हो नहीं सकता। नरेन्द्र मोदी की लखनऊ रैली को फ्लाप व भाड़े की भीड़ संबंधी बयान तो तत्काल आ गया। शेष बातें उन्होंने अगले दिन लखनऊ में पत्रकारों से कहीं। फिर वही पन्द्रह लाख खातों में न आने की बात दुहराई। शायद ऐसे सवाल दागने वाले नेता यह भूल जाते हैं कि भारत का आम जन शासक की नेकनीयत पर अधिक विश्वास करता है। वह जानता है कि कौन प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ईमानदारी से अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर रहा है, किसके शासन में भ्रष्टाचारियों व घोटालेबाजों को संरक्षण मिलता। क्या यह कम उपलब्धि है कि घोटालों की भेंट चढ़ने वाला लाखों करोड़ रूपया मोदी सरकार आने के बाद सरकारी खजाने में जा रहा है। इससे आमजन के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएं शुरू की गयी हैं। राज्यों को पहले से अधिक आर्थिक सहायता दी जा रही है।
जहां तक मोदी की रैली में भीड़ का प्रश्न है, सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। यह सही है कि इस मामले में मायावती ने विशिष्ट छवि बनाई थी। खास तौर पर वह जब सत्ता में होती थीं, तब उनकी रैलियों में भारी भीड़ होती थी। यहां तक कि दूसरे राज्यों से भी विशेष ट्रेन, अन्य वाहन चलाए जाते थे। डेढ़ दशक से बसपा का इस मामले में रिकार्ड बेहतर रहा है लेकिन मायावती को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस प्रकार अनेक साधनों से उनकी रैली में लोग आते थे, वैसा ही अन्य पार्टियां भी करती हैं। इस मामले में किसी को दूसरे पर उंगली उठाने का अधिकार नहीं है। भाड़े की भीड़ कहना वस्तुतः रैली में आने वाले लोगो का अपमान करना है। वैसे यह मानना पड़ेगा कि भीड़ के मामले में मायावती का रिकार्ड यदि किसी ने तोड़ा है तो वह नरेन्द्र मोदी हैं। मायावती की इन रैलियों पर टिप्पणी उनकी कुंठा को भी उजागर करती है। वह मोदी की रैलियों में उमड़ने वाली भीड़ को सहजता से देखना नहीं चाहतीं। इसलिए खचा−खच भरे रमाबाई अंबेडकर मैदान व बाहर सड़कों तक फैले लाखों लोगों की भीड़ वाली रैली भी उन्हें फ्लाप लगती है।
यदि सच्चाई स्वीकार करना संभव न हो तो संबंधित विषय पर मौन रहना ही बेहतर होता है। अन्यथा बात सच या प्रमाणित नहीं लगती। ऐसा भी नहीं कि मोदी की लखनऊ रैली में ही इतनी भीड़ थी। वह देश के किसी भी हिस्से में जाते हैं, वहां भीड़ का रिकार्ड बन जाता है। इस मामले में नकारात्मक या पूर्वाग्रह की टिप्पणी से काम नहीं चलेगा। राजनीति में ऐसा जनसमर्थन मिलना सामान्य बात नहीं है। मोदी को यह मुकाम आसानी से नहीं मिला है। इसके लिए उन्होंने देश−समाज के लिए त्यागपूर्ण यात्रा तय की है। इसके चलते उन्हें लगातार तीन बार भारी बहुमत से गुजरात में सरकार बनाने का अवसर मिला था। लोकसभा चुनाव में उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर जो समर्थन मिला, उस विषय में बताने की जरूरत नहीं, इसे मायावती भी बखूबी समझती हैं।
विरोधी मोदी पर टिप्पणी करें, और नोटबन्दी का मुद्दा न उठायें यह भी संभव नहीं। मायावती ने यह सिलसिला जारी रखा। उन्होंने जो कहा उसे पहले दिन से दोहरा रही हैं। इसमें उन्हें कुछ भी घिसा−पिटा नहीं लगता। इस प्रकार मायावती ने मोदी की रैली पर अपने चिर परिचित अंदाज में निशाना लगाया। यह पटकथा तो रैली समाप्त होने के पहले भी यथावत रहती है। लखनऊ रैली के बाद दो बातें खासतौर पर जोड़ी गयीं। मायावती ने मोदी द्वारा कहे गए इन शब्दों पर बहुत जोर दिया। ये शब्द थे जिम्मेदारी व हार जीत। मोदी ने अपने भाषण में कहा था कि चुनाव में हार−जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। भाजपा के लिए यह प्राथमिकता है। प्रत्येक नेता व कार्यकर्त्ता को अपनी जिम्मेदारी की बेहतर समझ होनी चाहिए। तभी राजनीति, शासन और उत्तर प्रदेश का कल्याण हो सकता है।
मायावती ने मोदी द्वारा कहे गए जिम्मेदारी व हार−जीत शब्द का मजाक उड़ाया। अपने ढंग से उसका अर्थ निकाला, जबकि ये दोनों शब्द खासतौर पर सभी पार्टी के नेताओं के लिए आत्मचिंतन का विषय होना चाहिए। मायावती ने सत्ता में रहते हुए अपनी जिम्मेदारियों का उचित निर्वाह किया होता, तो अगले ही चुनाव में उन्हें बाहर का रास्ता न देखना पड़ता और न ही आज यह बताना पड़ता कि किस जाति के कितने प्रत्याशी उतार रही हैं। मतलब साफ है मायावती जिम्मेदारी का जवाब जातिवाद से देना चाहती हैं। उत्तर प्रदेश के विकास का कोई विजन नहीं, भविष्य की किसी रूपरेखा या संबंधी योजना का उल्लेख वह नहीं करतीं, न अपने पांच वर्षीय शासन की उपलब्धियों पर चर्चा चाहती हैं, न भ्रष्टाचार, कालाधन रोकने का कोई कार्यक्रम उनके जेहन में है।
यदि मायावती ने जिम्मेदारी से शासन चलाया होता तो टिकट वितरण के जातीय व मजहबी आंकड़े सार्वजनिक न करने पड़ते। इन आंकड़ों का संबंधित जाति मजहब से ज्यादा कुछ लेना−देना भी नहीं है। बसपा से जीतने वाले प्रत्याशी केवल संख्या की दृष्टि से महत्व रखते हैं। उन्हें कितना बोलने या अधिकारियों, पुलिस से उचित सिफारिश करने का भी कितना अधिकार होता है यह बताने की जरूरत नहीं। मायावती का शासन इसका गवाह है। चुनिंदा लोगों के अलावा किसी की सुनवाई ही नहीं होती। राजनेताओं को हार−जीत संबंधी कथन का निहितार्थ समझना होगा। मोदी के इस कथन से मायावती ने यह अर्थ निकाला कि उन्होंने हार मान ली है, जबकि वास्तविकता यह है कि राजनीतिक पार्टियों को हार जीत को ही सब कुछ नहीं मान लेना चाहिए। जीत को ही सब कुछ मान लेना उचित नहीं होता। मायावती ने ही जीत के लिए पिछले विधान सभा चुनाव में ब्राह्मणों को सर्वाधिक तरजीह दी। अब मुसलमान उनके एजेंडे में सबसे ऊपर आ गए। जाति मजहब एक सच्चाई है, लेकिन विकास को किनारे रख कर इसी के भरोसे रहना गलत है जबकि मायावती इसी के बल पर मोदी का मुकाबला करना चाहती हैं।
- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
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