2019 में वादों पर सवाल न उठें इसलिए मोदी 2022 की बात करते हैं

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विजय शर्मा । Jul 30 2018 3:07PM

कोई भी सरकार पांच वर्ष के लिए चुनी जाती है और पांच वर्षों के अनुरूप ही अपना लक्ष्य निर्धारित करती है लेकिन यह पहली सरकार है जिसने अपने सभी लक्ष्य 2022 के लिए निर्धारित किये हैं ताकि 2019 के लोकसभा चुनावों में कोई सवाल ही नहीं उठाए।

सरकार की मजदूर व दलित विरोधी बनती छवि भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनावों में चित्त कर सकती है। पहले कई औद्यौगिक क्षेत्रों में ठेका प्रथा कानूनन प्रतिबंधित थी। लेकिन मोदी सरकार में 2017 में श्रम कानूनों में संशोधन करके ठेकेदारी प्रथा को चुपके से सभी क्षेत्रों के लिए खोल दिया है ताकि मजदूर तथा श्रमिक वर्ग शोषित जीवन जीने पर अभिशप्त हो सके। अब प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश सरकार के एक कार्यक्रम में खुलेआम ऐलान कर दिया है कि पूंजीपतियों के पक्ष में खड़े होना कोई गुनाह नहीं है और यह सही भी है। लेकिन उन्होंने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया है कि मजदूरों का जो लगातार शोषण हो रहा है और कारखानों में जो छंटनी हो रही है और मजदूरों को अपने हक के लिए सालों−साल न्याय के लिए कोर्ट में धक्के खाने पड़ते हैं उसे रोकने के लिए उन्होंने क्या किया। उल्टा यह हुआ है कि श्रम कानूनों के दुरूपयोग की खुली छूट दी गई है और श्रम न्यायालयों से फैसला कितने वर्षों में आता है, यह किसी से छिपा नहीं है जबकि श्रम न्यायालयों का गठन करते समय फसलों के लिए 6 माह का समय निर्धारित किया गया था लेकिन वहां मुकदमों का ढेर बढ़ता ही जा रहा है।

दूसरे भाजपानीत सरकार बनने के बाद दलितों पर अत्याचार के मामलों में वृद्धि हुई है और सरकार से दलितों का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है। कुछ माह पहले आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जिस प्रकार से दलित संगठनों ने धरना−प्रदर्शन करके गुस्सा जाहिर किया था और कई दलितों की मौत हुई थी, उससे लगता है सरकार ने कुछ नहीं सीखा है। उल्टे मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की उसी बैंच के एक माननीय न्यायधीश को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का पांच साल के लिए अध्यक्ष बनाकर इनाम दे दिया है जबकि यह सीट पिछले 6 माह से रिक्त थी और इस दौरान और भी कई रिटायर्ड वरिष्ठ जज पात्र थे लेकिन सरकार ने 6 माह तक उनकी रिटायरमेंट का इंतजार किया और रिटायरमेंट के एक दिन पहले उनकी नियुक्ति की सार्वजनिक घोषणा कर दी, जिससे दलितों का मोदी सरकार के खिलाफ गुस्सा उफान पर है जिसे भांपकर तीन केन्द्रीय मंत्री अब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में अध्यक्ष के पद पर नियुक्त पूर्व न्यायधीश को तुरंत हटाने की मांग कर रहे हैं। असल में इन मंत्रियों को दलित समाज का नाराजगी का अहसास हो चुका है और उन्हें अपनी सीटें खोने का डर है जिसके कारण वह यह संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं जबकि सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया सुनाई नहीं पड़ रही है। राजनीति के माहिर यह खिलाड़ी नाव डूबने के डर से दूसरी नाव में सवार होने का विकल्प तवाश रहे हैं क्योंकि समय से पहले सरकार से बाहर जाने पर वह अपना वोट बैंक बचाने में कामयाब हो सकते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषण में भारत की आर्थिक विकास दर तेज करने और बड़ी तादाद में युवाओं के लिए रोजगार पैदा करने का दावा करते हैं। सरकार बनने से पहले हर वर्ष दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने के सुनहरे सपने दिखाये गये लेकिन सरकार के चार वर्ष बीत जाने के बाद भी सरकारी आंकड़ों से अनुसार रोजगार बढ़ने की बजाय घटे हैं। नए बजट में दो करोड़ के वायदे के बदले केवल 70 लाख युवाओं को रोजगार मुहैया कराने की बात कही गई है, इसका सीधा सा अर्थ यह है कि रोजगार के मोर्चे पर आलोचना झेल रही सरकार को मानना पड़ा है कि रोजगार घटे हैं। मोदी सरकार युवाओं और मध्यम वर्ग को सुनहरे सपने दिखाकर सत्ता में आई थी लेकिन सबसे ज्यादा यही वर्ग अब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है।

जेटली जब विपक्ष में थे तो आयकर की सीमा पांच लाख करने की मांग करते थे लेकिन पांचवां बजट पेश करते हुए भी उन्होंने आयकर सीमा को यथावत रखा है जिसका मतलब है कि भाजपा की कथनी और करनी में भारी विरोधाभास है। मोदी सरकार का कार्यकाल 2019 की शुरूआत में समाप्त हो रहा है लेकिन सरकार की लगभग सभी योजनाओं की पूर्ति का लक्ष्य 2022 रखा गया है। कोई भी सरकार पांच वर्ष के लिए चुनी जाती है और पांच वर्षों के अनुरूप ही अपना लक्ष्य निर्धारित करती है लेकिन यह पहली सरकार है जिसने अपने सभी लक्ष्य 2022 के लिए निर्धारित किये हैं ताकि 2019 के लोकसभा चुनावों में कोई सवाल ही नहीं उठाए।

मोदी सरकार और भाजपा आश्वस्त है कि कमजोर विपक्ष के चलते 2019 में भी उनकी ही सरकार बनेगी, चाहे वह आम जनता की गाढ़ी कमाई को टैक्स के रूप में जितना भी निचोड़ ले। पैट्रोल और डीजल की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय बाजार में जब लगातार कम हो रही थीं तो मोदी सरकार सैंट्रल एक्साइज ड्यूटी लगातार बढ़ा रही थी ताकि घटी कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को न मिल सके और सरकारी खजाना भरा जा सके। अब जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ रही हैं और पैट्रोल, डीजल के दाम आसमान पर हैं तब उस पर करीब 8 रूपए प्रति लीटर रोड़ एण्ड इंफ्रास्ट्रक्चर सैस लगा दिया गया है जिसके कारण आम जनता मंहगाई की चक्की में पिस रही है और सरकार आंकड़ों की बाजीगरी दिखाकर केवल भ्रमित कर रही है। असल में मोदी सरकार गरीबों का मसीहा होने का दावा करती है जबकि हकीकत में उसकी नीतियां पूंजीवाद की वाहक हैं, जहां सुनहरे सपने दिखाकर मजदूर और मध्यमवर्ग का लगातार शोषण हो रहा है। अभी गत माह जब दावोस में अंतर्राष्ट्रीय वर्ल्ड इकोनोमिक्स सम्मेलन चल रहा था वहां ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत की 70 प्रतिशत सम्पदा पर एक प्रतिशत लोगों का कब्जा है और पिछले एक साल में उनकी सम्पत्ति में 20.9 लाख करोड़ का इजाफा हुआ है जो सरकार के केन्द्रीय बजट के बराबर है।   इसी रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत की 67 करोड़ जनता की 2017 की कमाई में केवल एक प्रतिशत का इजाफा हुआ है, जो यह बताने के लिए काफी है कि अमीरी−गरीबी की खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि कामगारों के हितों का संरक्षण नहीं किया जा रहा है और सरकार की नीतियों पर बड़े कार्पोरेट घरानों की छाप दिखाई देती है।

अंतर्राष्ट्रीय लेबर आर्गनाइजेशन (आईएलओ) की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में रोजगार के अवसर लगातार घटे हैं और जो अस्थायी रोजगार हैं, वहां कामगारों की स्थिति दयनीय है और 2019 तक यही स्थित बिनी रहेगी। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कामगार देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, उनकी मेहनत से ही देश में ढांचागत सुविधाओं और हर प्रकार की छोटी−बड़ी चीजों का निर्माण होता है  लेकिन वह वर्ग अपनी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहा है और वह बड़ी मुश्किल से इतनी कमाई कर पा रहा है ताकि परिवार का खर्चा उठा सके। रोजगार छूटने की हालत में वह हर प्रकार के दबाव और अभाव में काम कर रहा है। सरकार की सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं नाकाफी हैं। जब बेरोजगारी, कृषि उत्पादों की कम कीमतों और कारोबार में मंदी की वजह से मजदूरों, किसानों और व्यापारियों की कमाई घटी है और लोगों का जीवन यापन मुश्किल हुआ है तो मकान बनाने और दूसरी सुविधाओं के लिए लोग निवेश कैसे कर सकते हैं।

मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरूण जेटली ने ताजा बजट में 'वित्त विधेयक 2016' में एक संशोधन किया जिसके तहत '26 सितंबर 2010' तिथि को '5 अगस्त 1976' कर दिया है। यह संशोधन इसलिए किया गया ताकि विदेशी कम्पनियों से मिले काले धन को सफेद किया जा सके क्योंकि इस संशोधन के तहत 2010 के कानून में उल्लिखित विदेशी कंपनियों की परिभाषा बदल दी गई है। डीजल, पेट्रोल और शराब को जीएसटी के दायरे से बाहर रखा गया है। रोड़ और इंफ्रास्ट्रक्चर सैस लगाने के बावजूद रोड़ और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर बजट घटा दिया गया है। स्वास्थ्य बीमा योजना कैसे कार्यान्वित की जायेगी, स्वास्थ्य मंत्री को भी पता नहीं है। इसका हाल भी फसल बीमा योजना और पहले से लागू स्वास्थ्य बीमा योजना जैसा होने का अनुमान है। पहले से लागू स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों को 30 हजार रूपए तक का इलाज कराने की सुविधा की बात की गई है जिसे राज्य सरकारों के सहयोग से चलाया जाना था लेकिन 21 राज्य सरकारों ने इसके लिए धन ही मुहैया नहीं कराया और वह इसके लिए केन्द्र से धन की मांग कर रहे हैं।

फसल बीमा योजना के तहत 24 हजार करोड़ का बीमा कम्पनियों को प्रीमियम दिया गया जबकि किसानों के करीब 8 हजार करोड़ रुपयों के दावों का निपटारा किया गया है, इस प्रकार 16 हजार करोड़ रूपए बीमा कम्पनियों की जेब में चला गया। बजट में क्रांतिकारी बतायी गई स्वास्थ्य बीमा योजना के लिए 50 हजार करोड़ की जरूरत है, जिसका बजट में कोई प्रावधान नहीं है। अब सरकार के मंत्री कह रहे हैं कि योजना लागू करने में धन की कमी आड़े नहीं आने दी जाएगी। उज्ज्वला योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे गुजर−बसर करने वाले परिवारों को गैस के कनेक्शन दिए लेकिन उनमें से 80 प्रतिशत से ज्यादा रिफिल के लिए नहीं आ रहे हैं। लोगों के पास लकड़ी उपलब्ध है और वह लकड़ियां जलाकर खाना पकाते हैं। गैस सिलेंडर रिफिल कराने के लिए रूपए नहीं हैं। बजट भाषण में वित्त मंत्री ने कहा कि नौकरी−पेशा लोगों की बजाय बिजनेस क्लास लोगों का औसत टैक्स अधिक है लेकिन उन्हें शायद मालूम नहीं है कि सबसे ज्यादा टैक्स की भरपाई नौकरी पेशा मध्यम वर्ग से की जा रही है लेकिन सुविधाओं के नाम पर उन्हें ठेंगा दिखा दिया गया है।

-विजय शर्मा

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