विपक्ष ड्राइंग रूम में बैठा रह गया और मोदी ने चुनावी रैलियां भी शुरू कर दीं

Modi started campaigning, opposition left behind
अजय कुमार । Jul 20 2018 3:23PM

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधियों पर खूब ''गरज−बरस'' रहे हैं। 2014 की तरह इस बार भी भाजपा ने प्रचार के मामले में बढ़त बना ली है। प्रदेश में प्रधानमंत्री मोदी की चार जनसभाएं हो चुकी हैं और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार जन समर्थन जुटाने में जुटे हैं।

उत्तर प्रदेश में आम चुनाव ने 'दस्तक' दे दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधियों पर खूब 'गरज−बरस' रहे हैं। 2014 की तरह इस बार भी भाजपा ने प्रचार के मामले में बढ़त बना ली है। प्रदेश में प्रधानमंत्री मोदी की चार जनसभाएं हो चुकी हैं और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार जन समर्थन जुटाने में जुटे हैं। कुछ दिनों के भीतर मोदी के शाहजहांपुर और लखनऊ में भी जनसभा और अन्य कार्यक्रम हैं। मोदी−योगी जनता के सामने अपनी सरकार के कामकाज को रख रहे हैं तो विरोधियों पर आक्रमण करने का भी कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि मोदी विरोधी नेता अभी तक 'ड्राइंग रूम' की पॉलटिक्स से आगे नहीं निकल पाये हैं। यह नेता जनता के बीच जाने की बजाय, मीडिया के सामने आकर ज्यादा हमलावर हो रहे हैं, जिसका प्रभाव अकसर कम और कभी−कभी उलटा भी नजर आता है। भाजपा की पूरी कोशिश है कि उनके विरोधियों के पक्ष में किसी कौम विशेष के वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होने पाये। इसके लिये सभी पैंतरे अजमाये जा रहे हैं। जनता को यह समझाने की कोशिश हो रही है कि विपक्ष के पास मोदी विरोध के अलावा देश के लिये कोई एजेंडा या नेता नहीं है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनाव का शंखनाद मगहर (संत कबीरनगर) से किया था, जहां कबीर ने प्राण त्यागे थे, इसके बाद उनकी वाराणसी, आजमगढ़ और मिर्जापुर में भी उनकी रैलियां हो चुकी हैं। मोदी अपनी जनसभाओं में सपा−बसपा से अधिक यूपी में अपेक्षाकृत कमजोर समझी जाने वाली कांग्रेस और राहुल गांधी के प्रति ज्यादा हमलावर दिख रहे हैं। ऐसा लगता है कि भाजपा यह सब सोची−समझी रणनीति के तहत कर कर रही है, जिससे जनता के बीच यह संदेश जाये कि कांग्रेस भी मुकाबले में है। इससे भाजपा विरोधी वोटों का बिखराव होगा और सपा−बसपा को अपने आप को मुकाबले में खड़ा दिखाने के लिये ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह से मुस्लिम कार्ड चल रहे हैं, उससे भी भाजपा गद्गद् है। मुस्लिम वोटों में अगर बिखराव हो गया तो भाजपा की मुसीबतें अपने आप कम हो जायेंगी। संभवतः इसीलिये मोदी और भाजपा के प्रवक्ताओं द्वारा राहुल की मुस्लिम परस्त छवि बनाकर उसको मीडिया में ज्यादा उछाला जा रहा है। राहुल जब मुसलमानों से मिलते हैं या फिर उनके नेता मुस्लिमों के पक्ष में कोई बयान देते हैं तो उसे भाजपा झट से लपक लेती है। ठीक वैसे ही जैसे 2014 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के चाय वाले उस बयान को भुनाया गया था, जिसमें अय्यर कहते दिख रहे थे कि एक चाय वाला कभी भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता है।

अबकी से नायक बदल गये हैं, लेकिन चरित्र वही है। इस बार शशि थरूर का 'हिन्दू पाकिस्तान' वाला बयान चर्चा बटोर रहा है तो उसमें राहुल गांधी के उस कथित बयान का भी तड़का लगाया जा रहा है जिसमें राहुल मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच कांग्रेस को मुसलमानों की पार्टी बताते हैं। शशि थरूर के साथ−साथ विवादित बयान देने वाले पूर्व राष्ट्रपति हामिद अंसारी, कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद, पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी0 चिदम्बरम, जम्मू−कश्मीर के सैफुद्दीन सोज, कांग्रेस नेता और अयोध्या विवाद में मुस्लिम पक्ष के नेता कपिल सिब्बल सहित कुछ अन्य नेता भाजपा की पहली पसंद बन गये हैं, जिनके बयानों को खूब भुनाया जा रहा है। हाल ही में मीडिया से बात करते हुए सोज ने कहा था कि कश्मीर के लोगों की पहली प्राथमिकता आजादी पाना है, लेकिन वर्तमान स्थिति में कश्मीर की आजादी इससे जुड़े देशों के कारण संभव नहीं है, परंतु यह जरूर है कि कश्मीर के लोग पाकिस्तान के साथ इसका विलय नहीं कराना चाहते हैं। सोज के इस बयान के बाद उनका जबर्दस्त विरोध भी हुआ था।

ठीक इसी तरह से गुजरात चुनाव के समय मणिशंकर अय्यर के विवादित बयानों और दिल्ली में गुपचुप तरीके से पाकिस्तान के कुछ नेताओं आदि से मुलाकात को खूब 'खाद−पानी' दिया गया था। इसके बाद राहुल गांधी ने अय्यर को भले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया था, परंतु मणि अभी भी अपने आप को कांग्रेसी कहते हैं और भाजपा, आरएसएस और मोदी पर हमलावर रहते हैं।

इसी कड़ी में हाल ही में मणिशंकर अय्यर ने कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल पर तैयार की गई रिपोर्ट 'डिस्मेंटलिंग इंडिया ए फोर ईयर रिपोर्ट' के विमोचन पर केंद्र सरकार की मौजूदा नीति पर प्रहार करते हुए कहा था, 'आज न तो देश के आंतरिक हालात ठीक हैं और न ही विदेश नीति मजबूत हो सकी है। राष्ट्रवाद, संविधान, उसूल, परम्पराएं, विरासत, संस्कृति और इतिहास पर एक चुनौती है। ये संस्थाएं और मान्यतायें, आगे बच पाएंगी, इसमें संदेह है।' यह स्थिति तब है जबकि कांग्रेस आलाकमान बार−बार अपने नेताओं को नसीहत दे रहा है, लेकिन पार्टी नेताओं के बिगड़े बोल बंद ही नहीं हो रहे हैं।

उधर, सपा−बसपा ने जुगलबंदी करके उप−चुनावों में भाजपा को पटखनी भले दे दी हो, लेकिन दोनों को पता है कि आम चुनाव के समय यह नतीजे ज्यादा मायने नहीं रखते हैं। उप−चुनाव में माहौल दूसरी तरह का होता है और आम चुनाव के समय फिज़ा बिल्कुल बदली हुई रहती है। उप−चुनाव के समय भाजपा का ट्रंप कार्ड माने जाने वाले मोदी ने प्रचार नहीं किया था और मतदाता भी कम संख्या में निकले थे। उस समय कांग्रेस भी मैदान में नहीं थी, मगर आम चुनाव के समय कांग्रेस यदि सपा−बसपा के साथ महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनती है तो उसके भी प्रत्याशी मैदान में ताल ठोंकते नजर आयेंगे। आम चुनाव के समय पूरा प्रदेश चुनावी मोड में होगा।

लब्बोलुआब यह है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है। आजकल राजनीति में भी यही हो रहा है। एक समय कांग्रेस और तमाम भाजपा विरोधी नेता पार्टी पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगाया करते थे। आज इसी समस्या से भाजपा विरोधी कांग्रेस और अन्य दल जूझ रहे हैं। इन दलों के शीर्ष नेताओं को सफाई देनी पड़ रही है कि वह हिन्दू विरोधी नहीं हैं। ऐसा पहली बार हो रहा है।

-अजय कुमार

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