सचमुच एकजुट हो गया विपक्ष तो 2019 में नरेंद्र मोदी की हार तय

Modi will loose 2019 elections if opposition parties united

कैराना से लेकर कर्नाटक तक व महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक उपचुनावों में भाजपा को शिकस्त देने के बाद विपक्षी पार्टियों को समझ आ गया है कि बीजेपी अजेय नहीं है। एकजुट होकर उसे परास्त किया जा सकता है।

कैराना से लेकर कर्नाटक तक व महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक उपचुनावों में भाजपा को शिकस्त देने के बाद विपक्षी पार्टियों को समझ आ गया है कि बीजेपी अजेय नहीं है। एकजुट होकर उसे परास्त किया जा सकता है। इसी के साथ 2019 में महाबली मोदी के सामने महाचुनौती पेश करने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है। विपक्षी एकता की इस राह में ढेर सारे किंतु-परंतु हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि इस विपक्षी एकता का नेतृत्व कौन करेगा? क्या क्षेत्रीय क्षत्रप किसी एक का नेतृत्व स्वीकार कर अपनी महत्वाकांक्षाओं की बलि देने को तैयार हो जाएंगे? 

ऐसा इसलिए क्योंकि तृणमूल कांग्रेस नेत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, बीजेडी नेता और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी नेता शरद पवार, आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, टीडीपी नेता और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू जैसे कुछेक दल बीजेपी विरोधी संघीय मोर्चा बनाने के लिए सियासी जद्दोजहद तो कर रहे हैं, लेकिन ये लोग अपने तल्ख व्यक्तिगत अनुभव और व्यापक जनाधार के चलते बेहद सिकुड़ चुकी कांग्रेस के समक्ष घुटने टेकने को तैयार नहीं हैं।

वैसे जब जब राजनैतिक अवसरवाद की वजह से विपक्षी एकता का अमलीजामा पहनाया जाता है तो कतिपय सवाल उठना लाजिमी है। क्योंकि जनहित के मद्देनजर विपक्षी एकता के जो मायने होने चाहिए, वो यहां बिल्कुल कम या फिर नहीं के बराबर दिखाई देते हैं। किसी भी लोकतांत्रिक राजनीति में विपक्षी एकता का मतलब होता है जनहित के कतिपय अहम मुद्दों पर गोलबंद होकर मदमस्त सत्ता से टकराना और जनहित की बात किसी भी कीमत पर मनवाना। लेकिन भारतीय राजनीति में विपक्षी दलों की एकता के अपने खास निहितार्थ हैं जो कि हमेशा ही सवालों के घेरे में रहे हैं, क्योंकि इनके लिए विरोधी दलों की एकता येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करने की जद्दोजहद से ज्यादा कुछ विशेष मायने नहीं रखते! और यही वजह है कि सत्ता उनके करीब आकर भी प्रायः दूर चली जाती है। यानी कि वह कभी भी ज्यादा दिनों तक सत्ता में नहीं टिक पाते हैं! इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधी जिस विपक्षी एकता का खुलकर इजहार किया है, वह कर्णप्रिय तो है लेकिन इसका अनुभव बहुत अधिक डरावना रहा है भारतीय मतदाताओं के लिए, कुछेक अपवादों को छोड़कर।

उदाहरण के लिए विपक्षी एकता की मिसाल समझी जाने वाली 1967 की संविद सरकार, 1977 की जनता पार्टी सरकार, 1989 की जनता दल सरकार और 1996 की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के बनने-बिगड़ने की जो वजहें हैं, उससे जाहिर है कि राष्ट्रीय अथवा सूबाई राजनीति में इसकी प्रासंगिकता कम और अप्रासंगिकता ज्यादा महसूस की गई है। यहां पर स्पष्ट कर देना जरूरी है उपरोक्त तमाम विपक्षी एकता की मिसाल उसी कांग्रेस के खिलाफ बनी थी, जो कि आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए खुद ही विपक्षी एकता की सबसे बड़ी पैरोकार और खेवनहार बनकर उभर रही है। यह बात दीगर है कि कांग्रेस के खिलाफ बनी विपक्षी एकता में कभी समाजवादी मूल की क्षेत्रीय पार्टियां और बीजेपी गोलबंद हुआ करती थी, तो आज बीजेपी के खिलाफ बन रही विपक्षी एकता में भी समाजवादी मूल की क्षेत्रीय पार्टियों के साथ कांग्रेस गोलबंद हो रही है।

दरअसल, विगत चार वर्षों में बीजेपी ने जिस तरह से थोक भाव में विपक्षी दलों और उनके गठबंधन को सूबाई सत्ता से निपटाया, उससे अल्पसंख्यकों की राजनीति करने वाली कांग्रेस, पिछड़ा वर्ग की राजनीति करने वाले समाजवादी दलों और दलित वर्ग की राजनीति करने वाले दलितवादी दलों और कतिपय अन्य क्षेत्रीय दलों के एकाधिकारी और वंशवादी नेताओं के माथे पर भी बल पड़ने लगा। यही वजह है कि अपने-अपने सियासी अहंकारों को तिलांजलि देकर ऐसे नेता एक दूसरे के बीच आपसी सहयोग बढ़ाने की नीति पर बल देने लगे, जिसके सकारात्मक परिणाम यूपी और बिहार में सम्पन्न विभिन्न उपचुनावों में मिले। इससे उनकी तत्परता बढ़ने लगी और कर्नाटक विस चुनाव में मिले त्रिशंकु जनादेश से तो उनकी बेताबी और अधिक बढ़ गई।

कर्नाटक में चुनाव बाद बने कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को अवसरवादी कहना गलत नहीं होगा। भले ही वहां उनकी सरकार बन गई है, लेकिन आगे क्या होगा उनके तल्ख अतीत के मद्देनजर निश्चयपूर्वक कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हां, इतना जरूर हुआ है कि कर्नाटक में भी अपना जनाधार खिसकता देख कांग्रेस को अब सद्बुद्धि आ गई है। यही वजह है कि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद तीसरे स्थान पर रही पार्टी जेडीएस को महज इसलिए सौंप दिया, ताकि बीजेपी को सत्ता में आने से रोका जा सके। उसके लिए खुशी की बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से ही सही, किन्तु वह अपने कर्नाटक मिशन में कामयाब हो चुकी है।

कर्नाटक विजय से उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दो टूक कहा है कि अब समूचा विपक्ष मिलकर प्रधानमंत्री मोदी से लोहा लेगा। इसका मतलब यह है कि बीजेपी को केंद्र और राज्यों की सत्ता से बेदखल करने के लिए मोदी विरोधी दलों को एकजुट करने की वह पूरी कोशिश करेंगे और जरूरत पड़ी तो इसके लिए आवश्यक त्याग भी करेंगे। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में राजद, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी, ओडिशा में बीजेडी और तमिलनाडु में डीएमके, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और दिल्ली में आम आदमी पार्टी का छोटा भाई बनकर यदि सियासी गुजर-बसर करना कांग्रेस सीख जाती है तो भले ही उसकी राष्ट्रीय धाक खत्म हो जाए, लेकिन वह बीजेपी को सत्ताच्युत करने के अपने मकसद में कामयाब हो सकतती है। इसके विपरीत यदि वह ऐसा नहीं करेगी तो बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत के अभियान को ही बल प्रदान करेगी।

-बद्रीनाथ वर्मा

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