आरक्षण से सब खुश तो हैं लेकिन अब विचार करना होगा कि यह व्यवस्था कब तक रहे
दरअसल गरीबी समाज में सब जगह है। सवर्ण भी गरीब हैं। अन्य भी बहुत से परिवारों के सामने रोजी−रोटी का संकट है। बच्चों की अच्छी शिक्षा देने की समस्या है। ऊंची जाति के व्यक्ति जीवन यापन के लिए पल्लेदारी कर रहे हैं।
केंद्र सरकार द्वारा लागू आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों के लिए दस प्रतिशत के आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मुहर लगा दी। इसने इस आरक्षण को वैध करार दिया है। पीठ के एक न्यायमूर्ति ने साथ ही कहा है कि आरक्षण लंबे समय तक नहीं दिया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का फायदा सामान्य वर्ग के लोगों को शिक्षा और सरकारी नौकरी में मिलेगा। भाजपा का एनडीए गठबंधन जहां इसे अपनी सरकार की विजय मान कर लाभ लेने में जुट गया है, वहीं कांग्रेसी भी आगे आकर इस निर्णय की प्रशंसा में लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का कांग्रेस ने स्वागत किया है। कांग्रेस पार्टी के महासचिव जयराम रमेश ने कहा कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के 103वें संवैधानिक संशोधन को बरकरार रखने के फैसले का स्वागत करती है, जो एससी/एसटी/ओबीसी के साथ-साथ अन्य जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को (EWS) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण कोटा प्रदान करता है।
इस आरक्षण पर सुनवाई करने वाले पांच न्यायधीशों में से तीन ने आर्थिक रूप से कमजोर सामन्य लोगों के आरक्षण के सरकार के फैसले को संवैधानिक ढांचे का उल्लंघन नहीं माना। उल्लेखनीय है कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले एनडीए सरकार ने सामान्य वर्ग के लोगों को आर्थिक आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण दिया था। इसके लिए संविधान में 103वां संशोधन किया था। कानूनन, आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। अभी देशभर में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग को जो आरक्षण मिलता है, वह 50 प्रतिशत की सीमा के भीतर ही है। केंद्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में 40 से ज्यादा याचिकाएं दायर हुई थीं।
मुख्य न्यायधीश यूयू ललित, जस्टिस बेला त्रिवेदी, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस पारदीवाला और जस्टिस रवींद्र भट की पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने इस पर फैसला सुनाया। जस्टिस पारदीवाला ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि आरक्षण का अंत नहीं है। इसे अनंतकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए, वर्ना यह निजी स्वार्थ में तब्दील हो जाएगा। आरक्षण सामाजिक और आर्थिक असमानता खत्म करने के लिए है। यह अभियान सात दशक पहले शुरू हुआ था।
केंद्र की ओर से पेश तत्कालीन अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने सुनवाई के दौरान कहा था कि आरक्षण के 50 प्रतिशत की बाध्यता को सरकार ने नहीं तोड़ा। उन्होंने कहा था कि 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने ही फैसला दिया था कि 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए ताकि बाकी 50 प्रतिशत जगह सामान्य वर्ग के लोगों के लिए बची रहे। यह आरक्षण 50 प्रतिशत में आने वाले सामान्य वर्ग के लोगों के लिए ही है। यह बाकी के 50 प्रतिशत वाले ब्लॉक को डिस्टर्ब नहीं करता है।
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निर्णय उस समय आया जब गुजरात और हिमाचल में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं। भाजपा इस निर्णय का लाभ लेने में लगेगी। उसे ऐसा करना भी चाहिए, क्योंकि उसी ने ये आरक्षण लागू किया था। हालांकि इस बारे में कहती बहुत पार्टी रही हैं, किंतु वह ऐसा नहीं कर पाईं। जिसने किया, लाभ भी उसी के हिस्से में जाएगा। वैसे दलितों और पिछड़े वर्गों के नेताओं में आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को छोड़ दें तो अधिकांश नेता गरीब सवर्णों को आरक्षण देने के पक्षधर रहे हैं। स्वयं कांग्रेस भी इसका समर्थन करती रही है।
दरअसल गरीबी समाज में सब जगह है। सवर्ण भी गरीब हैं। अन्य भी बहुत से परिवारों के सामने रोजी−रोटी का संकट है। बच्चों की अच्छी शिक्षा देने की समस्या है। ऊंची जाति के व्यक्ति जीवन यापन के लिए पल्लेदारी कर रहे हैं। ग्राम पंचायतों में सफाई करने के काम में लगे हैं। इसीलिए सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए आरक्षण देना केंद्र का एक अच्छा प्रयास था। न्यायधीश पारदीवाला ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि आरक्षण का अंत नहीं है। इसे अनंतकाल तक जारी नहीं रहना चाहिए, वर्ना यह निजी स्वार्थ में तब्दील हो जाएगा। उनके इस कथन पर शायद कोई भी राजनैतिक दल कुछ नहीं कहेगा, न ही आरक्षण खत्म करने के लिए काम करेगा, क्योंकि सभी दल जानते हैं कि वे इसे खत्म करके रिजर्वेशन में आने वालों का विरोध नहीं झेल पाएंगे।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश पारदीवाला जहां आरक्षण को अनंत काल तक जारी रखने के पक्षधर नहीं हैं, वहीं हमारे दलितों की राजनीति करने वाले नेता प्राइवेट सैक्टर में भी आरक्षण लागू करने का प्रयास करते रहे हैं। स्वर्गीय रामविलास पासवान केंद्र में गठबंधन सरकार में शामिल होकर बार−बार ये मांग उठाते रहे। पिछली सरकार में केंद्रीय कानून मंत्री रहे रविशंकर प्रसाद ने निजी क्षेत्र (प्राइवेट सेक्टर) में आरक्षण पर एक सवाल के जवाब में कहा कि इस पर राष्ट्रीय सहमति जरूरी है। उन्होंने कहा था कि देश के विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं में इस पर सोचा जा रहा है। उन्होंने कहा कि एक बार सहमति बन जाने के बाद आरक्षण लागू होने में दिक्कत नहीं आएगी। वह बिहार विधानसभा भवन के शताब्दी समारोह में विधायकों के सवालों का जवाब दे रहे थे।
केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की एक बार इस बारे में बैठक हो चुकी है, पर वह जानता है कि इससे उसे हानि ही होगी, लाभ मिलेगा, इसकी गारंटी नहीं है। सवर्ण भाजपा का सबसे बड़ा वोटर है, जबकि आरक्षण का लाभ लेने वाला वोटर बंटा है। एक बात और इसकी भी गारंटी नहीं दी जा सकती कि आरक्षण का लाभ लेने वाला तबका लाभ लेकर रिजर्वेशन देने वाली पार्टी को वोट दे ही देगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था। इसके बावजूद आरक्षण जिनको मिला, उनका वोट स्वर्गीय वीपी सिंह को नहीं मिला। अन्य पिछड़ा वर्ग की पीठ पर सवार हो दुबारा प्रधानमंत्री बनने का इनका सपना पूरा नहीं हो सका। अन्य पिछड़ा वर्ग के इस आरक्षण का देश भर से सवर्ण युवाओं ने विरोध किया था। एक सौ से ज्यादा युवाओं ने आत्मदाह कर लिया था। इतना सब करके के भी अगली बार वीपी सिंह सरकार नहीं बना पाए थे।
अपने वोटर को रिझाने के लिए राजनैतिक दल अपने−अपने प्रदेश में प्राइवेट नौकरियों में स्थानीय युवकों को 75 प्रतिशत आरक्षण देने के प्रयास में हैं। कुछ जगह हुआ भी है। ये राजनेता जानते हैं कि यह संविधान के अनुरूप नहीं है, किंतु राजनैतिक स्वार्थ में अपने प्रदेश की जनता को गुमराह करने में लगे हैं। वे जानते हैं कि कोर्ट में जाकर इस पर रोक लग जाएगी। पर उनका काम इसे लागू कराना नहीं, मात्र लाभ लेना है। केंद्र सरकार जिस तरह से दुनिया के उद्योग समूह को देश में उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित कर रही है। प्रदेशों में उद्योग आ रहे हैं, उसे देख लगता है कि कोई भी सरकार प्राइवेट क्षेत्र में आरक्षण लागू करने का दुस्साहस नहीं करेगी। ऐसा करने से उद्योगपति भारत में उद्योग लगाने से बचेंगे। पहले भी जब प्रयास हुए तो बड़े उद्यागपतियों ने यह दिया था कि हम अपने मुख्यालय दूसरे देश में ले जाएंगे। वहीं से नियुक्ति करेंगे।
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सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से सामान्य वर्ग के गरीब का विकास का रास्ता खुलेगा। शिक्षा के रास्ते खुलेंगे। नौकरी में लाभ मिलेगा। साथ ही इस बहस की फिर शुरुआत होगी कि आरक्षण कब तक लागू रखा जाए। क्या इसमें सुधार हो। 70 साल से लागू होने के बाद भी आज तक सभी दलित इसका लाभ नहीं उठा पाए। ये भी विचार करना होगा कि जिनके लिए आरक्षण लागू हुआ है, उस समाज के सभी को इसका लाभ मिले। जिन्हें लाभ मिल गया, उन्हें आरक्षण से बाहर का रास्ता दिखाया जाए। वैसे आज किसी राजनैतिक दल में जातिगत आरक्षण समाप्त करने को बूता नहीं है।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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