विपक्ष सरकार की आलोचना में ही मशगूल, राष्ट्र की परवाह नहीं
भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ देश के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर था। इस दिन राष्ट्रीय सहमति के विषय का चयन होना चाहिए था। उनके प्रति संकल्प का भाव व्यक्त होना चाहिए था।
भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ देश के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर था। इस दिन राष्ट्रीय सहमति के विषय का चयन होना चाहिए था। उनके प्रति संकल्प का भाव व्यक्त होना चाहिए था। जिससे खास तौर पर युवा पीढ़ी उन राष्ट्रीय मूल्यों को समझ सके जिसकी स्थापना हमारे स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानियों ने की थी। यह गनीमत थी की लोकसभा और राज्यसभा ने इस संबंध में अलग−अलग संकल्प पारित किए। लेकिन उसके पहले विपक्षी नेताओं ने राजनीति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पिछले तीन वर्षों से वह सरकार, भाजपा और संघ पर जिस प्रकार हमला बोल रहे हैं, उसी भाषा का प्रयोग किया गया। मतलब भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ उनके लिए अलग से कोई महत्व नहीं रखती थी। संसद के बाहर विरोध की इसी मानसिकता का प्रदर्शन किया गया। बिहार में तेजस्वी यादव, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और अनेक स्थानों पर कांग्रेस ने प्रदर्शन के लिए इस दिन को चुना।
कांग्रेस के नेता संसद और सड़क पर ऐसे बोल रहे थे जैसे आजादी में यही अंग्रेजों से मोर्चा ले रहे थे। तेजस्वी यादव महात्मा गांधी की दुहाई दे रहे थे। वह जनादेश सम्मान यात्रा पर हाथी, घोड़े साथ लेकर निकले हैं। अखिलेश यादव ने देश बचाओ देश बनाओ का नारा बुलंद किया। लेकिन यह नहीं बताया कि सपा के शासन में उत्तर प्रदेश को कितना बनाया गया। देश को बचाने व बचाने की बात बहुत दूर है। क्षेत्रीय दलों की एक सीमा होती है। यह क्यों न माना जाए कि सपा ने जानबूझकर प्रदेश की जगह देश को बचाने की बात कही। प्रदेश बचाने या बनाने की बात करते तो उनके ऊपर ज्यादा सवाल उठते। तेजस्वी यादव की परेशानी अलग है। नीतीश उनकी अकूत अवैध संपत्ति पर आंख मूंदे रहते तो यह देश का सम्मान होता। आंखें खुलीं तो जनादेश का अपमान हो गया। तेजस्वी कहते हैं कि जिस समय का मामला है तब वह बच्चे थे। बात ठीक है। लेकिन आज तो बड़े हैं। विधायक हैं, उपमुख्यमंत्री रहे हैं। अब उन्हें संपत्ति का पूरा ज्ञान है। इसका उपयोग भी करते हैं। उन्होंने अपने माता−पिता की गैराज वाली फोटो अवश्य देखी होगी। वह कितनी साधारण स्थिति में थे। इसका भी अनुमान होगा। बच्चे थे तो नहीं समझे। लेकिन अब तो पूछना चाहिए था कि इतनी दौलत, संपत्ति का मालिकाना हक कैसे मिल गया। महंगे फार्म हाउस कैसे बन गए। बिहार के सबसे बड़े मॉल के निर्माण में परिवार किस प्रकार सक्षम हो गया।
जहां तक जनादेश की बात है तो नीतीश कुमार का राजद पर ज्यादा उपकार था। यह नीतीश की साफ छवि का प्रभाव था जिसने राजद को एक बार फिर उभरने का अवसर दिया। तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। अन्यथा राजद धीरे−धीरे बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रही थी। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री का अपने प्रदेश से बाहर कोई महत्व नहीं है। लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ के दिन उन्होंने भी भाजपा को भगाने, हटाने के लिए रैली निकाली। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। भाजपा पश्चिम बंगाल में कभी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज नहीं कर सकी थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भाजपा का गिरा हुआ जनाधार बढ़ा है। विधानसभा चुनाव में भाजपा को दस प्रतिशत वोट मिले। इसमें ममता की नींद उड़ी है। वह भाजपा को हटाने की बात कर रही हैं, भाजपा की जड़ें प्रदेश में लगातार गहरी होती जा रही हैं।
आज विपक्ष में जितने भी नेता शीर्ष पर सक्रिय हैं, उनमें से किसी की स्वतंत्रता संग्राम में सहभागिता नहीं थी। लेकिन संसद में इनका भाषण ऐसा था जैसे इन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर भारत छोड़ो आंदोलन को सफल बनाने में जान की बाजी लगा दी थी। लोकसभा में सोनिया गांधी बोलीं कि उस दौर में ऐसे संगठन थे जिनका आजादी में कोई योगदान नहीं था। यही बात राज्यसभा में गुलाम नबी आजाद ने कही। इन्हें पता होना चाहिए कि कांग्रेस के प्रायः सभी राष्ट्रीय व प्रांतीय नेता आंदोलन शुरू होने के पहले जेलों में बंद कर दिए गए थे। आंदोलनकारियों में संघ की भी अहम भूमिका थी। उन्होंने आंदोलन कारियों को अपरोक्ष सहायता पहुंचाने का भी कार्य किया था।
सोनिया गांधी सहित कई विपक्षी नेता तीन वर्ष से रटे जा रहे राग को इस अवसर पर भी ले आए। कहा कि लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है। मतलब मतदाता उन्हें विजयी बना दें, तो लोकतंत्र मजबूत हो जाता है, बहुलतावादिता और धर्मनिरपेक्षता आ जाती है। मतदाता भाजपा को जिता दे तो यह सब खतरे में आ जाता है। सोनिया यहीं तक नहीं रुकीं। कहा कि अंधकार की शक्तियां तेजी से उभर रही हैं। जनतंत्र की बुनियाद को नष्ट किया जा रहा है।
जाहिर है विपक्ष के सबसे बड़े नेता ही इस महत्वपूर्ण दिन की मर्यादा कायम नहीं रख सके। क्या मनमोहन सिंह जैसे जनाधारविहीन नेता को प्रधानमंत्री बनाने से जनतंत्र की बुनियाद मजबूत हुई थी। क्या लाखों करोड़ रुपए के घोटाले से देश का नुकसान नहीं हुआ था। आज मोदी जब भ्रष्टाचार भारत छोड़ो की बात करते हैं तो इसका कुछ आधार दिखाई देता है। यह सही है कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना है। लेकिन तीन वर्षों में स्थितियां बदली हैं।
सरकार पर हमले के अवसर तो बराबर मिलते। लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगांठ का विपक्ष ने जैसा उपयोग किया, उसकी प्रशंसा नहीं की जा सकती। इसमें भी वह मोदी विरोध के दायरे से बाहर नहीं निकल सके। जिस प्रकार के भाषण दिए गए, घोटाले के आरोपी महात्मा गांधी के रास्ते पर चलने की बात कर रहे थे। विपक्ष में आने के बाद देश बचाने व बनाने के दावे हो रहे थे, उससे विपक्ष की प्रतिष्ठा बढ़ी नहीं है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर अपने पद की गरिमा का पालन किया। उन्होंने देश के समक्ष मौजूद समस्याओं का उल्लेख किया। यह आह्वान किया कि देश हित में कुछ मुद्दों पर आपसी सहमति बननी चाहिए। भारत छोड़ो की वर्षगांठ को इसी का अवसर मानना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने भ्रष्टाचार व गरीबी को भारत से हटाने की बात रखी। चीन और पाकिस्तान की गतिविधियों का उल्लेख किया। इसके विरोध में पूरे देश को एकजुट प्रदर्शित करना आवश्यक है। विपक्ष इस बात से नाराज था कि मोदी ने जवाहरलाल नेहरू का नाम नहीं लिया। सच्चाई यह है कि मोदी ने स्वतंत्र भारत में कार्य कर चुके किसी भी प्रधानमंत्री का नाम नहीं लिया। इसका यह मतलब नहीं कि किसी का अपमान हुआ। जहां तक नाम की बात है तो सप्रंग के दस वर्षों में कितनी बार अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लिया गया। कांग्रेस के शासन में भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, सुभाष चंद्र बोस का कितनी बार नाम लिया जाता था। कांग्रेस को यह विषय उठाना ही नहीं चाहिए था।
- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
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