विपक्ष समस्याओं का हल नहीं सुझाता, बस भाजपा को रोकना चाहता है
विपक्ष को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए कि आखिरकर उनके साथ देश की जनता सरकार के विरोध में क्यों खड़ी नहीं हुई? क्यों जनता सरकार के सख्त फैसलों के बावजूद सरकार का विरोध नहीं कर रही है?
2014 में केन्द्र में सरकार बनाने के बाद से भाजपा का कश्मीर से कन्याकुमारी तक विस्तार तेजी से हुआ है। भाजपानीत एनडीए की सरकारें आज देश के 21 राज्यों में शासन कर रही हैं। भाजपा के बढ़ते कदमों से कांग्रेस समेत लगभग सारा विपक्ष चिंतित है। विपक्ष को कोई राह नहीं सूझ रही कि आखिरकर वो कैसे भाजपा का मुकाबला करे। देश के तमाम दिग्गज नेताओं और राजनीतिक दलों को अपना भविष्य में अंधकारमय दिखाई दे रहा है। गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा को कांटे की टक्कर देने के बाद से कांग्रेस में थोड़ी जान आई है। राजस्थान व मध्य प्रदेश के उपचुनाव के नतीजे भी विपक्ष के लिए ठण्डी हवा का झोंका बनकर आये। वहीं यूपी और बिहार उपचुनाव की जीत ने विपक्ष की उम्मीदों में पंख लगा दिये हैं। तेलगुदेशम पार्टी के एनडीए का साथ छोड़ने के बाद विपक्ष नये सिरे से लामबंदी की तैयारी में जुट गया है।
यूपी में बीजेपी को हराने के लिये जिस तरह धुर विरोधी सपा और बसपा ने हाथ मिलााया है। उस राजनीतिक सौदेबाजी से ये साफ हो गया है कि देश में ज्यादातर राजनीतिक दल विचारधारा के तौर पर कंगाल हो चुके हैं। विपक्ष का लक्ष्य केवल सत्ता हासिल करना है। विपक्ष सरकार पर आरोप लगाता है कि आम आदमी परेशान है। अनुपूरक प्रश्न यह है कि विपक्ष के पास देश के विकास और आम आदमी की समस्याओं के निराकरण की क्या योजना या सोच है। क्या विपक्ष का लक्ष्य केवल बीजेपी के बढ़ते कदमों का रोककर सत्ता हासिल करना ही है। इस सारी राजनीति, चुनाव और जीत-हार के बीच आम आदमी कहां खड़ा होता है?
लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की भूमिका सरकार से कम नहीं होती है। सरकार के काम-काज पर नजर रखना और जनता के व्यापक हितों के प्रति उसे सचेत रखना विपक्ष की भूमिका और कर्तव्यों में शामिल है। केंद्र में एनडीए सरकार के सत्तारुढ़ होने के बाद से विपक्ष अपनी वास्तविक भूमिका निभा पाने में असफल रहा है। कांग्रेस, जो संसद में सबसे बड़ी पार्टी है, वो सरकार को तमाम मौकों के बावजूद संसद से लेकर सड़क तक घेर नहीं पाई। सरकार के फैसलों, नीतियों और कार्यक्रमों के विरोध की बजाय विपक्ष अनर्गल बयानबाजी करता रहा। संसद में जनहित के मुद्दों और मसलों को प्रभावशाली तरीके से उठाने की बजाय विपक्ष वाकआउट और शोर-शराबे के बीच अपनी जिम्मेदारियों से मुंह छिपाता रहा।
भाजपा के बढ़ते कदमों और लगातार विस्तार के बाद विपक्ष जनहित के तमाम मुद्दों को दरकिनार कर केवल भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकने की जुगत में लगा है। यहां सवाल यह है कि क्या भाजपा देशविरोध में काम कर रही है। क्या भाजपा ने लोकतंत्र का अनुशासन और रीति-नीति को भंग किया है। क्या भाजपा के कार्य संविधान विरोधी हैं। क्या भाजपा की विचारधारा और कार्यप्रणाली देश और जनविरोधी है। क्या भाजपा जनता से धोखा कर रही है। क्या भाजपा शासन के प्रति लोगों में भारी विरोध और नाराजगी है। अगर ऐसा है तो विपक्ष का धर्म है कि वो देश की जनता को इकट्ठा करके भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दे। लेकिन यहां तो विपक्ष केवल सत्ता हासिल करने के लिये बेचैन दिख रहा है।
विपक्ष की परेशानी अपनी खत्म होती राजनीति को लेकर है। विपक्ष को यह भी चिंता सता रही है कि भाजपा का शासन जितना लंबा चलेगा उनका भविष्य उतना अंधकारमय होगा। विपक्ष की चिंता येन-केन-प्रकरेण सत्ता में बने रहने की है। विपक्ष को इस बात की भी परेशानी है कि ज्यादा समय सत्ता से वंचित रहने पर जनता के सामने नये विकल्प आ जाएंगे। नया नेतृत्व उभर आएगा। फिर उनकी दुकानदारी कैसे चलेगी। लंबे समय से सत्ता का सुख भोगने वाले राजनीतिक दलों को चार वर्षों का राजनीतिक बनवास बर्दाश्त नहीं हो रहा है।
गौर किया जाए तो विपक्ष ने पिछले चार साल में एक भी ऐसा मुद्दा नहीं उठाया जिससे देश भर में जनांदोलन खड़ा हो पाता। विपक्ष नोटबंदी से लेकर जीएसटी तक सरकार के फैसलों की कड़ी निंदा करता है। लेकिन वो इन मुद्दों को लेकर व्यापक तौर पर जनता के बीच नहीं गया। टीवी चैनलों पर राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बहस-मुहाबसा करते रहे। बेरोजगारी, मंहगाई, किसानों की समस्याएं, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि तमाम मोर्चों पर सरकार की घेरेबंदी विपक्ष कर सकता था। लेकिन विपक्ष देश के आदमी की सारी फिक्र फाइव स्टार होटलों के कांफ्रेंस हाल, न्यूज चैनलों के स्टूडियो या फिर पार्टी कार्यालय में प्रेस कांफ्रेंस करके करता रहा। बकौल विपक्ष सरकार जुमलेबाजी कर रही है। अगर सरकार जुमलेबाजी कर रही है तो विपक्ष भी तो उसे उसी की जुबान में जवाब दे रहा है। तो फिर सरकार और विपक्ष में फर्क ही क्या रहा? विपक्ष की राजनीति बयानबाजी और आरोप-प्रत्यारोपों तक सिमट गई है। जन-मुद्दों पर सड़कों पर आंदोलन और उनमें आम जनता की भागीदारी अब बीते दिनों की बातें रह गई हैं।
पिछले चार साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार ने तमाम बड़े व सख्त फैसले लिये। विपक्ष का आरोप है कि सरकार के फैसलों से आम आदमी बहुत परेशान है। आम आदमी का जीना मुहाल हो गया है। लेकिन इन तमाम आरोपों और आलोचनाओं के बावजूद विपक्ष जनता को अपने साथ जोड़ने में नाकामयाब क्यों रहा? विपक्ष को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए कि आखिरकर उनके साथ देश की जनता सरकार के विरोध में क्यों खड़ी नहीं हुई? क्यों जनता सरकार के सख्त फैसलों के बावजूद सरकार का विरोध नहीं कर रही है। एक के बाद एक राज्य में एनडीए की सरकारें बनना सरकार की नीतियों पर जनता की मोहर नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
एक बात समझ में नहीं आती कि प्रधानमंत्री मोदी रोजगार, विकास, वादों की पूर्ति, पाकिस्तान, चीन से लेकर औसत नागरिक के खाते में 15 लाख रुपए जमा कराने सरीखे मुद्दों पर बचाव की मुद्रा में हैं, लेकिन जैसे ही कोई नया जनादेश सामने आता है, तो वह विजयी घोषित होते हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है? जवाब की हमें भी अपेक्षा है और विपक्ष भी जानने को बेचैन है। विपक्षी दल और नेता नोटबंदी, जीएसटी, जुमलेबाजी और बैंकिंग घोटालों के भगोड़ों को लेकर भी प्रधानमंत्री मोदी को घेरते रहे हैं और उनके कालखंड को सवालिया बनाते रहे हैं, लेकिन अंत में विजेता कौन सामने आता है- बेशक मोदी! क्या अब भी देश की ज्यादातर जनता का प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में ही विश्वास है और उन्हीं से उम्मीदें बंधी हैं?
जब से एनडीए सरकार सत्ता में आई है तब से देश का समूचा विपक्ष सत्ता वापसी के लिए हर हथकंडा अपना रहा है। तथ्यहीन बातें व आंकड़े रखकर वो जनता को भ्रमित कर रहा है। राजनीति में यूं भी ‘एवरीथिंग इज फेयर इन लव एंड वार’ का फंडा काम करता है। इसलिए यह मानकर चला जाना कि कांग्रेस और सत्ताविरोधी सभी राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए शुचिता पूर्ण राजनीति करेंगे यह संभव नहीं है। 2014 में जब मोदी सत्ता में आए तब कमोबेश देश में कांग्रेस के विरुद्ध लोगों में असीमित आक्रोश था। कांग्रेस का भ्रष्टाचारी शासन, मुस्लिम तुष्टिकरण, गई गुजरी विदेश नीति, पाकिस्तान के प्रति असीमित सहनशीलता, कालेधन का प्रसार, भाई भतीजावाद, घोटालों में लिप्तता और हिंदू हितों की अनदेखी जैसे कई कारण थे कि देश की जनता ने उसे उखाड़ फेंका। मोदी का सत्ता में आना महज संयोग नहीं था। उनका सबका साथ, सबका विकास और कांग्रेस मुक्त भारत जैसे नारों ने देश की जनता में एक आस जगाई जिसका नतीजा यह हुआ कि पूरे देश में मोदी की आंधी से विपक्ष इतना सिकुड़ गया कि संसद में उसकी पहचान उंगलियों पर गिने जाने जितनी हो गई। असल में जनता वास्तविकता में विश्वास करती है और जानती है कि क्या हो सकता है और क्या नहीं? सोचने का एक अन्य बिन्दु यह है कि भारत दाएं पंथ की ओर क्यों मुड़ता जा रहा है? इसके विभिन्न कारण हैं। सर्वप्रथम कारण तो यह है कि कांग्रेस सहित सैकुलर पार्टियां मतदाताओं की बदलती प्रोफाइल के साथ खुद को बदलने में विफल रही हैं क्योंकि मतदाताओं के साथ उनका सीधा संबंध बचा ही नहीं है। 1984 में जिस भाजपा के पास लोकसभा की 2 सीटें थीं उसने अब अखिल भारतीय राष्ट्रीय पार्टी के रूप में कांग्रेस का स्थान हथिया लिया है।
लोकतंत्र की खासियत है कि इसमें किसी भी राजनीतिक दल का सत्ताधारी होना या विपक्ष में बैठना मतदाताओं के वोट पर निर्भर है। आज जो सत्ता का आनंद ले रहा है वह अगले चुनाव में विपक्ष की भूमिका अदा करने को मजबूर हो सकता है। विपक्ष की चिंता भाजपा के बढ़ते कदमों को रोकने की बजाय आम आदमी की परेशानियां व समस्याएं होनी चाहिएं। सरकार बीजेपी की हो या किसी अन्य दल की अगर वो जनअपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरेगी तो जनता उसे स्वयं सत्ता से बेदखल कर देगी। अगर सत्ता हासिल करना ही विपक्ष का लक्ष्य है तो विकास, जन व देश हित और आम आदमी की समस्याओं की बात कौन करेगा?
-आशीष वशिष्ठ
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