''अब्दुल सत्तार ईधी'' जैसे महापुरुषों से सीख ले पाकिस्तान

इस बात में संशय है कि अब्दुल सत्तार ईधी जैसे महापुरुषों की बात पाकिस्तान में कोई सुनेगा भी, क्योंकि वहां हाफ़िज़ सईद, सय्यद सलाहुदीन जैसे अंतर्राष्ट्रीय आतंकियों की बातें ज्यादा सुनी जाती हैं।

अगर आप पूरे विश्व में किसी से भी कहें कि पाकिस्तान में 'महापुरुष' टाइप के लोग हैं तो लोगों को शायद ही यकीन हो। जिस देश में ओसामा बिन लादेन जैसा विश्व का सर्वाधिक खूंखार आतंकवादी सरकारी पनाहगाह में रह रहा हो, परमाणु-बम जैसी विनाशक टेक्नोलॉजी का जो देश बिना किसी जिम्मेदारी के व्यापार करता हो, भाड़े के आतंकी पैदा करने की फैक्ट्री जिस देश में लगी हो, उस देश के बारे में कोई और क्या सोच सकता है भला। जो कुछ अच्छे लोग होते भी हैं तो उन्हें पाकिस्तान की तानाशाही व्यवस्था (अक्सर और लगभग) बाहर का रास्ता दिखला देती है। पर आज हम पाकिस्तानी हुक्मरानों की इस सोच पर बात करने की बजाय एक ऐसे महापुरुष की बात करेंगे, जो पाकिस्तानियों को राह दिखलाने वाले हैं। हालाँकि, इस बात में संशय है कि अब्दुल सत्तार ईधी जैसे महापुरुषों की बात पाकिस्तान में कोई सुनेगा भी, क्योंकि वहां हाफ़िज़ सईद, सय्यद सलाहुदीन जैसे अंतर्राष्ट्रीय आतंकियों की बातें ज्यादा सुनी जाती हैं। जनता भी लाखों, करोड़ों की शक्ल में जुटकर आतंकियों का महिमा-मंडन ही करती है। किन्तु, इस उपद्रवी देश में रहते हुए भी सबके लिए सम्मान के पात्र बन चुके अब्दुल सत्तार ईधी वास्तव में अल्लाह के बन्दे थे। जी हाँ, वो इंसान जीवटता की प्रतिमूर्ति के रूप में आज विश्व भर में विख्यात है, अपने जाने के बाद भी।

एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति जिसने आज अपने दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते वो कार्य कर दिखाया, जिसे करने के लिए बेहद मजबूत तंत्र की आवश्यकता होती है, वह अब्दुल सत्तार ईधी ही हैं। पाकिस्तान में ईधी फाउंडेशन की स्थापना कर, बिना सरकारी मदद के दुनिया की सबसे बड़ी एबुंलेस सर्विस और पाकिस्तान में कल्याणकारी संस्था बनाकर उन्होंने अँधेरी रात में खुद को 'दीपक' की तरह साबित किया। ईधी और उनकी टीम अनाथों, असहायों के लिए मैटरनिटी होम, वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम और जरूरतमंदों के लिए एम्बुलेंस की निःशुल्क सेवा प्रदान करती है। आज उनके फाउंडेशन के पास 1,500 एंबुलेंस हैं और पाकिस्तान के चारों प्रांतों में उनकी एंबुलेंस सेवा बीमारों को मदद पहुंचा रही है।

स्व. ईधी साहब ने सबसे पहले 1951 में कराची की संकरी गली में क्लीनिक खोला था और अपनी आत्मकथा 'ए मिरर टू दि ब्लाइन्ड' में लिखा है कि मेरी आजीविका समाज सेवा हो गई और मकसद बन गया उन लोगों की मदद करना जो अपनी मदद खुद नहीं कर सकते। ईधी की शख्सियत ऐसी थी कि वे बिना किसी घिन्न के लाशों को ढोते, यदि कोई नवजात बच्चे को कूड़े में डाल जाता तो वे उसे अपना बना लेते, उसे पढ़ाते और मां-बाप के खाने में अपना और अपनी पत्नी बिलकीस का नाम लिखते। दुत्कारी औरतों, बूढ़े और बच्चों को छत और लावारिस लाश को आखिरी चादर देते थे। इस सम्बन्ध में भारत के वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने अब्दुल सत्तार को अपने एक लेख में 'महात्मा' कहकर सम्बोधित किया है, जो कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं लगता है। वैसे भी कहा जाता है कि 'कीचड़ में ही कमल' खिलता है और इस उक्ति का कुछ दिनों पहले तक जीता जागता उदाहरण अब्दुल सत्तार ईधी महोदय ही थे। हालाँकि, अब वह नश्वर संसार छोड़ कर जा चुके हैं, लेकिन अपने पीछे पाकिस्तानियों और शेष विश्व के लिए एक नजीर छोड़ गए हैं कि जब तक पूरे विश्व में एक भी व्यक्ति लावारिस है, बीमार है, अनाथ है, तब तक प्रगति और विकास नाम के शब्द बेमानी ही हैं।

अरबों, खरबों की संपत्ति को समेटे हुए तमाम कार्पोरेट्स को भी अब्दुल सत्तर ईधी जैसे महापुरुषों से सीख लेनी चाहिए, ताकि अपने 2% प्रॉफिट को वह वास्तव में जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाएं, न कि झूठे एनजीओ की मदद से खुद ही मिल-बांटकर खा जाएँ। भारत जैसे देशों में भी सक्रिय, हज़ारों-हज़ार एनजीओ को भी अब्दुल सत्तार ईधी जैसे महापुरुषों से प्रेरणा लेनी चाहिए, न कि दान के पैसे से खुद 'ऐयाशी' करनी चाहिए।

गौरतलब है कि आज भारत में कुकुरमुत्ते की तरह एनजीओ चल रहे हैं, किन्तु अगर आप उनके कर्ताधर्ताओं को देखेंगे तो कब और कैसे वह मोटरसाइकिल से स्कार्पियो और फिर फॉर्च्यूनर जैसी लग्जरी गाड़ियों में बैठ जाते हैं, आप समझ नहीं पाएंगे। इसके अतिरिक्त, काले धन को सफ़ेद बनाने वाले तमाम एनजीओ को भी अब्दुल सत्तार ईधी की मानवतापूर्ण राह से बहुत कुछ सीखने को है। इन महापुरुष की बात करें तो, ईधी साहब का जन्म 1 जनवरी 1928 को भारत के गुजरात में हुआ था और बंटवारे के बाद वो 1947 में पाकिस्तान चले गए थे। पाकिस्तान जैसे कट्टर देश में रहते हुए भी मानवता की नयी मिसाल किस प्रकार गढ़ी जा सकती है, यह उन्होंने साबित कर दिखाया है। ईधी के प्रयासों की वजह से ही आज 'ईधी फाउंडेशन' का नाम दुनिया भर में मशहूर है। अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से लोगों की सेवा करते हुए अब्दुल सत्तार ईधी ने 9 जुलाई 2016 को अंतिम साँस ली। 92 साल के हो चुके ईधी को साँस लेने में तकलीफ की वजह से हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया था।

इस बात में कोई शक नहीं है कि ईधी का जीवन सम्पूर्ण मानवता के लिए आदर्श है और उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग उनसे कुछ सीखेंगे, वो भी ऐसे समय में जब धर्म के नाम पर एक दूसरे की जान लेने पर 'आतंकवादी' आमादा हैं। अब्दुल सत्तार ईधी साहब की महत्ता इस बात से ही जाहिर हो जाती है कि उन्हें न केवल शांति के लिए 'नोबेल पुरस्कार' हेतु नामित किया गया था, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा सहित तमाम वैश्विक नेताओं ने उनके निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। जहाँ तक 'नोबेल पुरस्कार' की बात है तो आज नहीं कल 'नोबेल पुरस्कार समिति' को अपनी गलती का अहसास जरूर होगा, ठीक वैसे ही जैसे महात्मा गांधी को नोबल न देने के लिए हुआ। वैसे भी, अब्दुल सत्तार ईधी जैसे महापुरुषों के सामने कोई भी नोबेल या दूसरे पुरस्कारों का कद बहुत छोटा है, क्योंकि इन्हें पाने के लिए वास्तविक कार्यों से ज्यादा तथाकथित 'प्रबंधन' की आवश्यकता पड़ती है और अब्दुल सत्तार ईधी जैसे महान व्यक्ति तो 'मानवता की भलाई' के लिए अपना जीवन देते हैं, न कि झूठे-प्रबंधन से वाहवाही लूटते हैं। पर इस महापुरुष को सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब पाकिस्तानी और शेष विश्व के तमाम नेता, नागरिक भी 'मानवता की सच्ची भलाई' के लिए कार्य करेंगे।

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