चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली में सुधार समय की माँग है
चुनाव आयोग पर कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी के लिए, कभी उटपटांग परिसीमन के लिए, कभी फर्जी मतदान के लिए, कभी मतदान केन्द्रों पर अव्यवस्था के लिए तो कभी ई.वी.एम. में गड़बड़ी के लिए आरोप लगते रहते हैं।
किसी भी लोकतान्त्रिक देश में लोकतन्त्र को सफल और सार्थक बनाने का प्रमुख दायित्व उस देश में चुनाव सम्पन्न कराने वाली संस्था का होता है। विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र वाले देश भारत में इस दायित्व का निर्वहन करने वाली संस्था का नाम चुनाव आयोग है। भारत की इस अति महत्वपूर्ण संस्था की कार्यप्रणाली पर यदा−कदा प्रश्नचिन्ह लगते रहते हैं। कभी मतदाता सूची में गड़बड़ी के लिए, कभी उटपटांग परिसीमन के लिए, कभी फर्जी मतदान के लिए, कभी मतदान केन्द्रों पर अव्यवस्था के लिए तो कभी ई.वी.एम. में गड़बड़ी के लिए। आधी−अधूरी तैयारी के साथ आनन−फानन चुनावों की घोषणा करने में भारत का चुनाव आयोग अब माहिर हो चुका है। ऐसे में लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की दूरगामी सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।
चुनाव आयोग कितने भी दावे क्यों न कर ले परन्तु त्रुटिरहित चुनाव संपन्न कराने की स्थित मिें फिलहाल तो वह नहीं है। मतदाता सूची में नाम की गलतियाँ वह आज तक नहीं सुधार पाया है। सबसे हास्यास्प्रद स्थिति तो तब उत्पन्न होती है जब चुनाव आयोग स्वयं के ही द्वारा जारी किये गये मतदाता पहचान−पत्र को मतदाता सूची में नाम न होने की स्थिति में अस्वीकार कर देता है। किसी व्यक्ति के पास यदि चुनाव आयोग द्वारा जारी किया गया पहचान−पत्र है तो इसका तात्पर्य यही है कि सम्बंधित व्यक्ति ने आयोग द्वारा बनायी गयी उस प्रक्रिया को विधिवत पूरा किया है जो मतदाता बनने के लिए आवश्यक है। इसके बाद चुनाव के समय मतदाता सूची में नाम सुरक्षित रखने का सम्पूर्ण दायित्व आयोग का ही है न कि उस व्यक्ति का। परन्तु आयोग हर उस व्यक्ति को मताधिकार से वंचित कर देता है जिसके पास आयोग द्वारा जारी किया गया पहचान−पत्र तो है परन्तु आयोग की गलती से मतदाता सूची में उसका नाम नहीं है। मतदाता सूची में त्रुटियाँ होना तो आम बात हो गयी है। पुरुष को महिला और महिला को पुरुष बना देना तो कोई आयोग से सीखे। पूरा और शुद्ध नाम तो बड़े ही भाग्यशाली लोगों का होता है। यदि मतदाता का नाम सही होगा तो पिता का गड़बड़ होगा। पिता का पति और पति का पिता भी खूब देखने को मिल जायेगा। आयु तो शायद ही किसी की पूरी और सही छपी हो और पता तो कई बार ऐसा लिखा होता है कि उस पते के हिसाब से कोई आगंतुक दो चार दिन में भी आप तक न पहुँच पाये। अनेक लोगों का तो माकन नम्बर "00" लिखा होता है। इस नम्बर का मकान तो पूरे भारत में भी ढूंढे नहीं मिलेगा।
शिक्षक स्नातक और स्नातक विधान परिषद सदस्य चुनाव के लिए बनने वाली मतदाता सूची में नाम जुडवाने की प्रक्रिया तो अत्यंत विचित्र है। यह मतदाता सूची तो प्रत्याशियों के ही भरोसे बनती है। जो प्रत्याशी जितने अधिक वोट बढ़वा लेता है उसके जीतने की उतनी ही अधिक सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। इस कारण इस चुनाव में भी गड़बड़ी की आशंका प्रबल हो जाती है। इस सबके अलावा चुनाव के दौरान अधिकारियों और कर्मचारियों में तारतम्य का आभाव स्पष्ट दिखायी देता है। जिसका खामियाजा प्रत्याशियों को भुगतना पड़ता है। नामांकन की सम्पूर्ण प्रक्रिया का ज्ञान कुछ बड़े अधिकारियों को छोड़कर शायद ही किसी को होता है। अधिकारी भी बार−बार गाइड बुक के पन्ने पलटते रहते हैं। इसी कारण नामांकन प्रक्रिया के लिए प्रत्याशियों को वकील करना पड़ता है। नामांकन पत्र के साथ लगने वाले प्रपत्रों की सूची न तो नामांकन स्थल के बाहर या अन्दर कहीं लगी होती है और न ही नामांकन फॉर्म के साथ ही उपलब्ध करायी जाती है। नामांकन फॉर्म की भाषा कई बार इतनी अधिक क्लिष्ठ होती है कि बड़े−बड़े विद्वान तक चकरा जाते हैं। इसी कारण हर प्रत्याशी कई प्रतियों में नामांकन जमा करता है। क्योंकि नामांकन प्रायः उस औपचारिकता की कमी से रद्द हो जाता है जिसकी जानकारी देने वाला कोई अधिकृत व्यक्ति नहीं होता है।
प्रचार सामग्री, प्रेस−कांफ्रेंस, चुनावी−सभा तथा वाहन आदि के लिए अनुमति लेने में भी प्रत्याशियों के पसीने छूट जाते हैं। यहाँ अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच आपसी सामंजस्य तथा अधूरे ज्ञान का स्पष्ट दर्शन होता है। प्रत्याशियों को अपना प्रचार रोककर एक काम के लिए सरकारी कार्यालयों के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त बिजली विभाग, जल विभाग,
नगर निगम आदि से अनापत्ति प्रमाण−पत्र लेने में भी प्रत्याशियों को भारी मशक्कत करनी पड़ती है। क्योंकि कामचोरी और भ्रष्टाचार के कारण यहाँ भी कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। यही हाल आयोग के कार्यालय से मतदाता सूची में नाम की प्रमाणित प्रति लेने में भी होता है।
ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनके चलते चुनावी प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है। जो स्वस्थ्य लोकतन्त्र के लिए कतई उचित नहीं है। अतः आवश्यक है कि चुनाव आयोग अपनी कार्यप्रणाली की समीक्षा करते हुए उसे चुस्त−दुरुस्त और पारदर्शी बनाये। आयोग को सर्वप्रथम मतदाता सूची को हर सम्भव त्रुटिरहित बनाना होगा। या फिर मतदाता सूची का काम ही समाप्त कर दिया जाये। इसके स्थान पर आधार−कार्ड का उपयोग किया जाना चाहिए। इससे वह व्यक्ति भी मताधिकार का प्रयोग कर सकेगा जिसकी आयु मतदान वाले दिन ही 18 वर्ष पूरी हो रही होगी। लोग अपने−अपने क्षेत्र के मतदान केन्द्र पर जाकर यदि आधार कार्ड द्वारा मतदान करेंगे तो इससे फर्जी मतदान की सम्भावना भी पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार स्नातक प्रतिनिधि चुनाव में आधार−कार्ड तथा स्नातक या समकक्ष परीक्षा उतीर्ण प्रमाण−पत्र के आधार पर मतदान कराया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया से मतदाता सूची के निर्माण आदि पर होने वाला व्यय बचेगा तथा हर कोई सरलता से मतदान भी कर सकेगा।
नामांकन प्रक्रिया को भी सरल और पारदर्शी बनाने की महती आवश्यकता है। ताकि आम और गरीब व्यक्ति भी बिना किसी व्यवधान के चुनाव लड़ सके। इसके लिए आवश्यक है कि नामांकन प्रक्रिया में लगने वाले प्रपत्रों तथा अन्य औपचारिकताओं का स्पष्ट उल्लेख न केवल नामांकन फॉर्म के साथ संलग्न हो बल्कि नामांकन कार्यालय के बाहर सूचना−पट पर भी चस्पा हो। नामांकन फॉर्म की भाषा सरल व स्पष्ट होनी चाहिए। अनापत्ति प्रमाण−पत्र देने वाले विभागों के लिए भी स्पष्ट व सख्त निर्देश जारी हों। ताकि ये विभाग बिना किसी विलम्ब के प्रत्याशियों का अनापत्ति प्रमाण−पत्र जारी कर सकें।
चुनाव के समय लगभग एक माह तक पूरा सरकारी अमला चुनाव संपन्न कराने में जुटा रहता है। ऐसे में अन्य प्रशासनिक कार्य पूरी तरह प्रभावित होते हैं। चूँकि लगभग प्रत्येक डेढ़, दो वर्ष के अन्दर कोई न कोई बड़ा चुनाव संपन्न होता है। अतः चुनावी कार्य के लिए नीचे से ऊपर तक अलग से अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त किये जाने चाहिए। जिनका काम सिर्फ चुनाव संपन्न कराना ही हो। यद्यपि प्रत्येक जिले में एक चुनाव कार्यालय होता है परन्तु वह अकेले चुनाव करा पाने में सक्षम नहीं है। इस तरह से चुनाव आयोग को अपनी कार्यप्रणाली की गहन समीक्षा करते हुए उसमें सुधार करना चाहिए। सरल एवं पारदर्शी चुनावी प्रकिया ही लोकतन्त्र की सफलता, सार्थकता और विश्वसनीयता की द्योतक है।
- डॉ. दीपकुमार शुक्ल
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