मेडिकल में पिछड़ों को आरक्षण से सरकार को बड़ा राजनीतिक लाभ मिल सकता है

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सरकार का कहना है कि इस नई व्यवस्था से सामान्य वर्ग के छात्रों का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि एमबीबीएस की 2014 में 54 हजार सीटें थीं, वे 2020 में बढ़कर 84000 हो गई हैं और एमडी की सीटें 30 हजार से बढ़कर 54000 हो गई हैं।

सरकार ने मेडिकल की पढ़ाई में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। यह आरक्षण एमबीबीएस, एमडी, एमएस, डिप्लोमा, बीडीएस और एमडीएस आदि सभी कक्षाओं में मिलेगा। आरक्षण का यह प्रावधान सरकारी मेडिकल कॉलेजों पर लागू होगा। इस आरक्षण के फलस्वरूप स्नातक सीटों पर 1500 और स्नात्तकोत्तर सीटों पर 2500 सीटों का लाभ अन्य पिछड़ा वर्ग को मिलेगा।

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सरकार का कहना है कि इस नई व्यवस्था से सामान्य वर्ग के छात्रों का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि एमबीबीएस की 2014 में 54 हजार सीटें थीं, वे 2020 में बढ़कर 84000 हो गई हैं और एमडी की सीटें 30 हजार से बढ़कर 54000 हो गई हैं। पिछले सात वर्षों में 179 नए मेडिकल कॉलेज खुले हैं। सरकार का यह कदम उसे राजनीतिक फायदा जरूर पहुंचाएगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश के चुनाव सिर पर हैं और वहां पिछड़ों की संख्या सबसे ज्यादा है। ये अलग बात है कि अनुसूचितों और पिछड़ों के लिए जितनी सीटें नौकरियों और शिक्षा-संस्थाओं में आरक्षित की जाती हैं, वे ही पूरी नहीं भर पाती हैं। नौकरियों में योग्यता के मानदंडों को शिथिल करके जाति या किसी भी बहाने से आरक्षण देना देश के लिए हानिकर है। वह तो तुरंत समाप्त होना ही चाहिए लेकिन शिक्षा और चिकित्सा में आरक्षण देना और ये दोनों चीजें आरक्षितों को मुफ्त उपलब्ध करना बेहद जरूरी हैं।

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आजकल स्कूलों और अस्पतालों में जैसी खुली लूटपाट मची हुई है, वह कैसे रुकेगी? यह आरक्षण 70-80 प्रतिशत तक भी चला जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन इसका आधार जाति या मजहब बिल्कुल नहीं होना चाहिए। इसका एकमात्र आधार जरूरत यानि गरीबी होना चाहिए। पिछड़ा तो पिछड़ा है, उसकी जाति चाहे जो भी हो। मेडिकल की पढ़ाई में गरीबों को 10 प्रतिशत की जगह 70-80 प्रतिशत आरक्षण मिले तो हम सभी जातियों, सभी धर्मों और सभी भारतीय नागरिकों को उचित और विशेष अवसर दे सकेंगे। सैंकड़ों वर्षों से अन्याय के शिकार हो रहे हर नागरिक को विशेष अवसर अवश्य मिलना चाहिए लेकिन विशेष का उचित होना भी अत्यंत जरूरी है। जो अनुसूचित और पिछड़े लोग करोड़पति हैं या मंत्री, मुख्यमंत्री, डॉक्टर, प्रोफेसर या उद्योगपति रहे हैं, उनके बच्चों को विशेष अवसर देना तो इसका मजाक बनाना है। लेकिन देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी में इतना दम नहीं है कि वह इस कुप्रथा का विरोध करे। हर पार्टी थोक वोट के लालच में फंसी रहती है। इसीलिए जातिवाद का विरोध करने वाली भाजपा और संघ के प्रधानमंत्री को भी अपने नए मंत्रिमंडल के सदस्यों का जातिवादी परिचय कराना पड़ गया। भारत की राजनीति के शुद्धिकरण का पहला कदम यही है कि जाति और मजहब के नाम पर चल रहा थोक वोटों का सिलसिला बंद हो।

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक 

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