रियो ''ओलंपिक'' ने महिला खिलाड़यों में नयी उम्मीद जगायी

कुछ समय पहले तक महिलाएँ अपने भविष्य के बारे में सोचती थीं, तो टीचर, डॉक्टर और इंजिनियर के बाद उन्हें कोई राह नज़र नहीं आती थी, किन्तु अब उनके पास कुछ नहीं, बल्कि बहुत कुछ करने के लिए नए रस्ते उपलब्ध हैं।

वैसे तो हमारे देश में हमेशा ही औरतों को सम्मान देने की संस्कृति रही है, किन्तु उन्हें माँ, बेटी और बहन की भूमिका से ऊपर देखने में हमने न जाने कितने साल लगा दिए। इस कड़ी में, अपने लिए स्थान बनाने में औरतों ने जो कष्ट उठाये हैं उसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है और उस कल्पना का 'दिव्यदर्शन' इस बार रियो-ओलंपिक में भी हुआ है। संयोग से जिस दिन हमारे देश की दो लड़कियों, साक्षी मलिक और पीवी सिंधु ने मैडल जीता, उसी दौरान रक्षाबंधन का त्यौहार भी था, तो सोशल मीडिया पर यह चर्चा ज़ोर शोर से हुई कि भाइयों की रक्षा इस बार बहनों ने की है। फिर तो यह चर्चा विधिवत आगे बढ़ी कि 'सब्ज़ी से लेकर ओलंपिक मैडल' तक लाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही है, तो किसी ने ट्वीट किया कि 'गहनों' के लिए बहुओं को जला डालने वाले और बेटियों को गर्भ में मार डालने वाले लोग आज उनसे 'ओलंपिक मैडल' की उम्मीद कर रहे हैं।

खैर, इस बीच यह बात खुलकर साबित हो चुकी है कि अब महिलाएं पीछे और बराबर नहीं, बल्कि पुरुषों से कई कदम आगे निकल चुकी हैं। हाँ, इनकी आनुपातिक संख्या कम जरूर है और अभी समाज के कई हलकों में महिलाओं को जबरदस्ती 'बुरके' के भीतर ढक कर रखा गया है तो पुरुषवादी समाज आज भी उन्हें अपनी बराबरी का स्वीकार नहीं कर पा रहा है। पर इस बीच ऐसे लोग भूल चुके हैं कि महिलाएं, बराबरी ही नहीं, पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं और अब चाहे-अनचाहे संकुचित मानसिकता वालों को अपनी राह बदलनी ही पड़ेगी। इस क्रम में अगर हम थोड़े व्यापक ढंग से बात करते हैं तो सबसे पहले शिक्षा के क्षेत्र में, फिर रोजगार और व्यवसाय के क्षेत्र में और अब पुरुषों के सम्पूर्ण वर्चस्व वाले क्षेत्र जिसमें औरतों के भविष्य के बारे में सोचना भी मुश्किल था, उस खेल के क्षेत्र में महिलाओं ने जो स्थान बनाया है, उसने हमारे देश की आधी आबादी को सम्मान के साथ गर्व की भी अधिकारी बना दिया है।

इस बात में रत्ती भर भी संदेह नहीं है कि कुछ समय पहले तक औरतें अपने भविष्य के बारे में सोचती थीं, तो टीचर, डॉक्टर और इंजिनियर के बाद उन्हें कोई राह नज़र नहीं आती थी, किन्तु अब उनके पास कुछ नहीं, बल्कि बहुत कुछ करने के लिए नए रस्ते उपलब्ध हैं और इसका श्रेय जाता है उन तमाम एथलीट्स को जिन्होंने 'ओलम्पिक' जैसे विश्व स्तर के खेल आयोजन में न सिर्फ भाग लिया बल्कि अपने देश के लिए पदक भी जीता। अबकी बार तो महिलाओं की ताकत बेहद रोमांचकारी अंदाज में सामने आयी! इस बार ओलम्पिक की शुरुआत के बाद कई दिन बीत जाने के बाद भी जब भारत की झोली में एक भी पदक नहीं आया, जबकि जिनसे उम्मीद थी वो सारे खिलाड़ी नाकामयाब रहे तो कुछ श्रेष्ठ खिलाड़ी भी बारीक अंतर से चूक गए थे, ऐसे में अप्रत्याशित तरीके से भारत के लिए पदक कमाया महिला खिलाड़ियों ने।

जी हाँ, महिला कुश्ती में साक्षी मलिक और बैडमिंटन में पीवी सिंधु ने हमारी लाज जैसे-तैसे बचा ली। इनके पदक हासिल करने के बाद के एकाध दिनों में भी भारतीय उम्मीदें फुस्स ही रहीं और सवा सौ करोड़ आबादी की इज्जत उन्हीं महिलाओं ने बचाई, जिसका विभिन्न स्तर पर अपमान होता ही रहता है। अगर ओलंपिक के सन्दर्भ में हम बात करते हैं तो खेल का महासंग्राम कहे जाने वाले ओलिंपिक की शुरुआत 1894 में हुई और भारत के एथलीट्स इसमें 1924 से हिस्सा ले रहे हैं। आश्चर्य है कि इतने लंबे समय से ओलिंपिक में हिस्सा लेने के बाद भी भारत को आज तक कुल 26 पदक ही हासिल हुए हैं और इन 26 पदक में 5 पदक महिलाओं ने जीते हैं। ऐसे में निष्पक्ष आंकलन किया ही जाना चाहिए, न केवल महिलाओं के नजरिये से, बल्कि खेल के स्तर पर हमारे देश को समीक्षा करनी ही चाहिए।

हर बार जब ऐसे खेल के आयोजन समाप्त होते हैं तो समीक्षा के रूप में एक बात निकल के सामने आती है कि हमारे देश में खिलाड़ियों को उचित सुविधाएँ नहीं मिलतीं, जिससे उनका प्रदर्शन बेहतर नहीं हो पाता। कुछ हद तक ये बात सही भी हो सकती है, लेकिन साथ ही एक बात और सोचने वाली है कि इन बदहाल सुविधाओं में महिला खिलाड़ियों की क्या स्थिति होती होगी? उन्हें तो और कम संसाधन उपलब्ध होते होंगे, तो दूसरी समस्यायों से भी उन्हें दो-चार होना पड़ता होगा, मसलन घर-परिवार से लेकर समाज का विरोध, हमारे देश में महिला असुरक्षा का माहौल, बेटियों पर बेटों के मुकाबले कम खर्च करने की बुरी परंपरा, इत्यादि! लेकिन अपने कुछ कर गुजरने की चाहत के आगे इन महिलाओं ने बाधाओं को आड़े नहीं आने दिया। कहते हैं कि क्षेत्र कोई भी हो, सफल होने के लिए अनुशासन के साथ कड़ी मेहनत की जरूरत होती है, क्योंकि सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता और आज जो दोनों महिला खिलाड़ी हम सबकी हीरो बनी हैं, उन्हें इस मुकाम को हासिल करने के लिए बहुत कुछ करना और सहन करना पड़ा है।

साक्षी मलिक, जहाँ बचपन से ही कुश्ती लड़ रही हैं, वहीं पीवी सिंधु दर्जनों किलोमीटर का सफर तय करके ट्रेनिंग लेने जाती थीं। देश-दुनिया से कटकर जिस तरह का जीवट इन युवतियों ने दिखलाया है, उससे हमारे देश की हर महिला, हर नारी को प्रेरणा लेनी चाहिए और इस बात में कोई शक नहीं है कि अगर नारियां चाह लें तो समाज की सोच बदलने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। अगर हम पीवी सिंधु की बात करें, जिन्होंने भारत को ओलिंपिक में रजत पदक दिलाया है तो उनके इस प्रयास में कोच पुलेला गोपीचंद ने भी जी जान लगा दी थी और जानकारी के अनुसार, बैडमिंटन कोच गोपीचंद का अनुशासन मिलिट्री के अनुशासन से कम नहीं होता था, जिसको सिंधु मानने से कभी नही हटीं। उनके पिता रोज 120 किलीमीटर की दूरी तय करके उन्हें बैडमिंटन की क्लास के लिए ले जाते थे, तो उन्होंने मिशन रियो की तैयारी में पिछले एक साल अपने आप को पूरी तरह से गोपीचंद के नियमों में ढाल लिया था। यहाँ तक की ओलंपिक शुरू होने के तीन महीने पहले से मोबाइल फोन को हाथ तक नहीं लगाया और अंत में उनके परिश्रम ने रंग दिखाया और वो सिल्वर मेडल को हासिल करने
 में कामयाब रहीं।

ठीक ऐसे ही रियो में भारत को पहला पदक दिलाने वाली साक्षी मलिक का सफर भी कठिनाइयों से भरा रहा है। हरियाणा की रहने वाली साक्षी के लिए पहलवान बनना आसान नहीं था, क्योंकि आज भी हरियाणा में लड़कियों के लिए हर बात पर तुगलकी फरमान जारी हो जाता है। लेकिन आत्मविश्वास से परिपूर्ण और सकारात्मक सोच की साक्षी ने कभी हार नहीं मानी और पहले सेट में हारने के बाद जब दूसरा मौका मिला तो साक्षी ने उसे बिना रुके मेडल में बदल दिया। ऐसे ही, रियो ओलम्पिक 2016 की चर्चा जब भी भारत में होगी तो दीपा करमाकर का नाम भी अवश्य ही लिया जायेगा। भारत की पहली महिला जिम्नास्ट दीपा ने हार कर भी इतिहास रच दिया। वैसे तो दीपा बहुत ही कम अंतर से पदक पाने से चूक गयीं, लेकिन सबके दिलों में अपने लिए स्थान सुनिश्चित कर लिया। दीपा ने जो प्रॉडुनोवा वॉल्ट प्रदर्शित किया था, कहते हैं वो दुनिया का सबसे खतरनाक वॉल्ट है और इस वॉल्ट को दुनिया में अब तक सिर्फ 5 खिलाड़ी ही कर पाए हैं। इसका अंदाज आप इसी से लगा सकते हैं कि इसमें थोड़ी सी भी गलती की कीमत अपनी जान से चुकानी पड़ती है। लेकिन इन सबकी परवाह किये बिना पूरे आत्मविश्वास के साथ दीपा ने इसका प्रदर्शन किया। दीपा की तरह एथलीट ललित बाबर भी 3000 मीटर की दौड़ में चौथे स्थान पर रहीं। ललित के माता-पिता किसान हैं, ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ललित को ओलंपिक तक पहुंचने के लिए कितनी कठिनाई उठानी पड़ी होगी। ललित के आर्थिक हालात ऐसे नहीं होंगे कि तैयारी के लिए सारे संसाधन उपलब्ध हो सकें, इसके बावजूद ललित ने ओलंपिक में अच्छा प्रदर्शन किया।

सिर्फ इस बार ही क्यों, इससे पहले के ओलंपिक खेलों में भी भारतीय खिलाड़ियों ने पदक जीता है और भारत में लड़कियों की रोल मॉडल बनी हैं, जिनमें सन 2000 के सिडनी ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी तथा 2012 लंदन ओलिंपिक में भारत को दो कांस्य पदक दिलाने वालीं बॉक्सर मेरी कॉम के साथ बैडमिंटन में साइना नेहवाल का नाम है। यदि इन सभी खिलाड़ियों की बात करें तो सभी की सफलता के पीछे इनका दृढ़ निश्चय और कठिन परिश्रम रहा है। इन खिलाड़ियों का आत्मविश्वास इतना प्रबल था कि संसाधन की कमी और समाज का विरोध इनकी सफलता के आड़े नहीं आने पाया। सही मायने में यह बेटियां भारत की महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं, साथ
 ही साथ यह उन माँ और पिताओं के लिए भी प्रेरणादायी हैं, जो बेटी के जन्म से दुखी हो जाते हैं।

हालाँकि, सब कुछ के बावजूद इन महिलाओं का आत्मविश्वास ही इन्हें शिखर तक पहुंचाने में सहायक रहा और अगर आगे भी महिलाएं बढ़ीं तो उनका आत्मविश्वास, कठोर परिश्रम जैसे तत्व ही मायने रखेंगे। हाँ, अगर सरकार के साथ समाज भी उनकी ठोस मदद करने का संकल्प व्यक्त करे तो उनकी राह कुछ आसान जरूर हो जाएगी, किन्तु राह आसान हो या कठिन, नारी शक्ति ने हर रास्ते पर खुद को साबित कर दिखलाया है और यह क्रम निश्चित रूप से आगे जारी रखेगा, हर क्षेत्र में, ठोस उपलब्धियों के साथ।

- मिथिलेश कुमार सिंह

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