मायावती की विरासत पर है सांसद सावित्री बाई फुले की नजर

Savitri Bai phule''s eyes on mayawati legacy

सावित्री बाई फुले अपने राजनीतिक जीवन में इतनी मुखर पहले कभी नहीं हुई थीं। यह चमत्कार अप्रत्याशित है। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें नरेंद्र मोदी के करिश्मे का भरपूर लाभ मिला था। वह कम उम्र में निर्वाचित होकर लोकसभा पहुंच गई थीं।

भाजपा सांसद सावित्री बाई फुले नए तेवर में दिखाई दीं। लखनऊ रैली में उनके मंच का रूप, रंग और स्वर अपने में बहुत कुछ कहने वाला था। इसमें वह प्रतीक भी शामिल थे, जिन पर मायावती अपना एकाधिकार  समझती हैं। भाषण में भी वही आक्रामकता। यह दिखाने की कोशिश की गई जैसे न जाने कौन सा तूफान आने को है। इसे केवल सावित्रीबाई ही रोक सकती हैं। रैली का नामकरण भी उतना ही आक्रामक था। बैनर था- 'संविधान और आरक्षण बचाओ महारैली'। यही तेवर मायावती शुरुआती दौर में अपनाती थीं। सावित्री भी इसी का उद्घोष कर रही थीं। जबकि संविधान इतना कमजोर नहीं कि उसे कोई खत्म कर देगा और सावित्री ही उसे बचा लेंगी। वस्तुतः यह शब्दावली संविधान निर्माता के प्रति असम्मान को दर्शाती है। संविधान बचाओ का निहितार्थ यह है कि डॉ. आंबेडकर ने कमजोर संविधान बनाया है। इसीलिए सावित्री जैसी  नेता को उसे बचाने की हुंकार भरनी पड़ रही है। यही बात आरक्षण पर लागू है। कोई भी सरकार इसे समाप्त करने का साहस नहीं कर सकती। इस समय देश के प्रधानमंत्री पिछड़ा वर्ग के हैं।

भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है। उसे यह हैसियत किसी एक वर्ग के कारण नहीं मिली। इसमें दलित, पिछड़ा सहित सभी वर्गों का योगदान है। वहीं बसपा जैसे दलों का अस्तित्व दांव पर लगा है। संविधान और आरक्षण पर झूठे खतरे बताए गए। लेकिन अति दलित और अति पिछड़ा वर्ग की आरक्षण में उपेक्षा की कोई चर्चा नहीं हुई। इसकी बात होते ही कहा जाता है कि आरक्षण खत्म किया जा रहा है। संविधान और आरक्षण बचाने को जान देने की बात कही गई। कहा गया कि सांसद रहें चाहे न रहें, संविधान और आरक्षण बचाएंगे। ये ऐसी बात है जैसे कोई आसमान के गिरने का भय दिखाए, फिर यह कहे कि हम ही तुम सबको बचा सकते हैं। कुछ लोग गलत हो सकते हैं। लेकिन संविधान के खत्म होने की बात करना बेमानी है। दुनिया में इतने अच्छे ढंग से कोई संविधान नहीं चल रहा है।

इस आधार पर कहा जा सकता है कि उनकी नजर बसपा प्रमुख मायावती की विरासत पर है। यह सोचना गलत है कि वह बसपा में शामिल होंगी। बसपा में शामिल होने की इच्छा रखने का स्वर इतना तेज नहीं हो सकता क्योंकि इतना बोलने वालों को बसपा में जगह मिलना मुश्किल होता है। दलितों के मुद्दे उठाने में भी वहां एकाधिकार होता है। वह बसपा में शामिल हो भी गईं, तो उन्हें मौन ही रहना होगा। ऐसे में यही लगता है कि सावित्री ने सुनियोजित ढंग से बसपा के प्रतीकों को सुशोभित किया है। उनके मंच पर कांशीराम के चित्र से यह स्पष्ट है। सावित्री कितना सफल होंगी, इस बारे में फिलहाल कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन अनेक दलित नेता मायावती की लगातार कमजोर होती स्थिति का फायदा उठाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि सपा से समझौता करना दलित समुदाय के साथ ठीक नहीं है। पच्चीस वर्षों में उन्होंने जो मंजर देखा है, उसे भूलना आसान नहीं है। यह सही है कि सावित्री बाई का कदम स्थानीय कारणों से भी प्रभावित है। संभव है कि इसे उन्होंने बड़े रूप में उजागर करने का प्रयास किया है।

   

सावित्री बाई फुले अपने राजनीतिक जीवन में इतनी मुखर पहले कभी नहीं हुई थीं। यह चमत्कार अप्रत्याशित है। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें नरेंद्र मोदी के करिश्मे का भरपूर लाभ मिला था। वह कम उम्र में निर्वाचित होकर लोकसभा पहुंच गई थीं। लेकिन इस दायित्व में उनकी चर्चा कभी सुनाई नहीं दी। लेकिन आम चुनाव से कुछ महीने पहले उनके तेवर में गजब की तेजी आ गई है। दलितों के प्रति उनकी पीड़ा उमड़ पड़ी है।

    

सावित्री बाई फुले जनसेवा के अपने किसी विचार या कार्यों को लेकर चर्चित होतीं, तो कोई बात नहीं थी। यह माना जाता कि उन्होंने दलितों के लिए बहुत संघर्ष किया है। लेकिन आजिज आकर उन्हें यह मार्ग चुनना पड़ा। लेकिन यह सब अप्रत्याशित है, इसलिए कयास भी लग रहे हैं। सावित्री के इस रूप पर अटकलें लगना स्वाभाविक है। इसके कारण भी तलाशे जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि उनके इस कदम का  तात्कालिक और दीर्घकालिक कारण है। पहली बात तो यह कि उन्हें अपने पुनः निर्वाचन की चिंता सताने लगी है। बताया जाता है कि बतौर सांसद उनका रिकॉर्ड संतोषजनक नहीं रहा है। इसके अलावा अपने निर्वाचन क्षेत्र में भी लोग उनसे खुश नहीं हैं। भाजपा हाईकमान को इन बातों की जानकारी है। सावित्री को इसका अंदेशा है कि दुबारा टिकट मिल भी गई तो, स्थानीय लोगों की नाराजगी दूर करना आसान नहीं होगा। वह नरेंद्र मोदी के नाम पर पिछली बार जीती थीं। इस बार भी वह इसकी उम्मीद कर सकती हैं, लेकिन इसके लिए टिकट मिलना जरूरी है। ऐसे में सावित्री दबाव की राजनीति कर रही हैं। लेकिन सावित्री  की महत्वकांक्षा यही तक सीमित नहीं लगती। इसी बहाने वह मायावती को भी चुनौती देना चाहती हैं।

-डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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