कांग्रेस दर्शा कुछ और रही थी प्रयास सिर्फ गठबंधन का था

कांग्रेस कार्यकार्ताओं को दिखाया गया कि राज बब्बर भीड़ जुटायेंगे। पार्टी का ग्राफ बढ़ेगा। फिर कवायद यहीं तक सीमित नहीं रही। उसने आगे बढ़कर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया।

अंततः कांग्रेस और सपा दोनों की मुराद पूरी हुई। गठबंधन मुकक्मल हुआ। इसी के साथ साबित हुआ कि दोनों में से कोई अकेले चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। अब तक जो आंख मिचौली चल रही थी वह एक दूसरे पर दबाव बनाने के लिए थी। सौदेबाजी में बढ़त के लिए दावे किए जा रहे थे। इनको देखकर हकीकत का अनुमान लगाया जा सकता है। कांग्रेस के नेता ने कहा कि उनकी पार्टी सभी सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार है। इसकी पूरी तैयारी कर ली गई है। गठबन्धन होगा, तो देखा जायेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि जो पार्टी 403 सीटों पर चुनाव लड़ने का दम भर रही थी, उसे 105 पर सिमटने में देर नहीं लगी। कांग्रेस के प्रभारी और प्रदेश अध्यक्ष बेचैनी से दिल्ली लखनऊ एक किए हुए थे। इन्हें देखकर लग रहा था कि ये गठबन्धन के लिए कुछ भी कर सकते हैं। जो पार्टी दूसरे चरण का नामांकन शुरू होने के बाद पहले चरण के बाद पहले चरण के प्रत्याशियों की घोषणा नहीं कर सकी हो, वह कितनी तैयार थी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। कुछ दिन पहले राज बब्बर और शीला दीक्षित को चुनावी समर में इस तरह भेजा गया था, जैसे वह कांग्रेस को विजय की सौगात दिलाकर ही मानेंगे, लेकिन इधर नामांकन शुरू हुए उधर शीला दीक्षित तस्वीर से हटने लगीं।

राज बब्बर लखनऊ में मुख्यमंत्री अखिलेश से मिलने की प्रतीक्षा में रोके गए। हाईकमान से निर्देश मिल रहे थे। प्रत्याशी चयन, प्रचार सब कुछ पीछे रह गए। सपा का रूख पता करना प्राथमिकता हो गयी। चुनाव में कांग्रेस को गठबन्धन से कितना फायदा होगा, यह तो भविष्य में पता चलेगा। लेकिन इसका संगठन व मनोबल किस मुकाम पर है, इसका खुलासा अवश्य हो गया। जिस प्रकार सपा से गठबन्धन का जोर लगाया गया वह पूरी कहानी बयान करता है। अब तो यह लगता है कि कांग्रेस ने चुनावी मैनेजर की सेवायें केवल गठबन्धन के लिए ली थीं। इसके लिए उसने अपना पूरा संगठन अनौपचारिक रूप से उन्हीं के हवाले कर दिया था। पार्टी को धीरे−धीरे गठबन्धन की ओर ही बढ़ाया जा रहा था। कार्यकर्ताओं को धोखे में रखने के लिए ही कुछ परिवर्तन दिखाया जा रहा था। अध्यक्ष पद से निर्मल खत्री को हटाया गया। राज बब्बर को उनकी जगह लाया गया। जबकि कुछ समय पहले वह समाजवादी पार्टी के सदस्य थे। वह अपने को जन्मजात समाजवादी मानते थे। कार्यकार्ताओं को दिखाया गया कि राज बब्बर भीड़ जुटायेंगे। पार्टी का ग्राफ बढ़ेगा। फिर कवायद यहीं तक सीमित नहीं रही। उसने आगे बढ़कर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया। कार्यकर्ताओं से कहा गया कि शीला दीक्षित के नेतत्व में कांग्रेस सरकार बनायेंगी। '27 साल यूपी बेहाल' अभियान तो पार्टीजनों को भ्रमित करने के लिए था। यह बताया गया कि पीके कांग्रेस की बेहाली दूर कर देंगे।

कार्यकर्ताओं ने भीड़ जुटाने के लिए मेहनत भी की। फिर कहा गया कि शीला दीक्षित ब्राह्मणों का वोट हासिल कर लेंगी। पिछड़ा अल्पसंख्यक सम्मेलन भी हुए, लेकिन पीके की यह दिखावटी तैयारी थी। वह कांग्रेस हाईकमान की पूरी जानकारी में सपा से गठबन्धन की गोटी चल रहे थे। इसलिए कार्यकर्ता खटिया लाकर सभा की व्यवस्था कर रहे थे, लेकिन राहुल के '27 साल यूपी बेहाल' से सपा नदारद थी। जब मीडिया में इसकी चर्चा शुरू हुई तो औपचारिकता निभाने को उन्होंने सपा का नाम लिया, लेकिन राहुल बता यही रहे थे कि नरेन्द मोदी के ढाई साल में यूपी 27 साल से बेहाल हो गयी। कुछ समय बाद राहुल विदेश में छुट्टी मानने चले गए। उधर सपा अपनी पारिवारिक कलह में उलझी थी। कांग्रेसी प्रबन्धक समझ ही नहीं पा रहे थे कि किससे बात करें। लड़ाई सपा में थी लेकिन कांग्रेस में गतिविधियां सुस्त पड़ गयी थीं।

इधर सपा की लड़ाई थमी, उधर मैनेजर व उनके एक सहयोगी सक्रिय हो गये। बताया गया कि ये प्रियंका वाड्रा के प्रतिनिधि हैं। इन्होंने सीधे अखिलेश से वार्ता की तो बात बन गयी। अब सपा की स्थिति पर विचार कीजिए। पारिवारिक कलह से अखिलेश यादव विजेता बनकर उभरे थे। पूरी पार्टी उनकी हो चुकी थी। इसके पहले प्रचार में भी उनका मंसूबा देखते बनता था। कहा जा रहा था कि सारे वादे पूरे हो गये। लग रहा था कि उनके नेतृत्व वाली पार्टी सभी सीटों पर लड़ेगी। लेकिन कांग्रेस के गठबंधन में उनकी पार्टी की दिलचस्पी कम नहीं थी। अकेले चुनाव लड़ने का साहस सपा भी जुटा नहीं पा रही थी।

कांग्रेस जैसी पार्टी से गठबन्धन से बड़ी उम्मीद करना अजीब लग सकता है, लेकिन वोट बैंक के मकसद से यह सौदा किया गया। इससे जाहिर है कि सपा को अपने विकास संबंधी मुददों पर विश्वास नहीं रहा। सपा कांग्रेस के गठबन्धन से बसपा को अवश्य परेशानी हुई है। पहले विधानसभा चुनावों में पराजय फिर लोकसभा में सूपड़ा साफ होने के बाद मायावती का सवर्णों के प्रति विश्वास डगमगाया था। लोकसभा चुनाव में तो उनके दलित वोट में भी सेंध लगी थी। उन्हें लग रहा था कि सपा−कांग्रेस का गठबन्धन नहीं होगा। इसके अलावा उन्हें सपा में विभाजन की पूरी उम्मीद थी। इसलिए अपनी सोशल इन्जीयरिंग की दिशा बदल दी थी। बहरहाल, इतना साफ हो गया है कि डेढ़, दो दशक से उत्तर प्रदेश का राजनीतिक माहौल बदल चुका है। पहले उसमें केवल सपा−बसपा थी। आज ये सभी पार्टियां भाजपा से ही अपनी मुख्य लड़ाई मान रही हैं।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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